झूठ बोले कौआ काटे ! मुरादाबाद दंगे का सच और दोगली राजनीति

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झूठ बोले कौआ काटे ! मुरादाबाद दंगे का सच और दोगली राजनीति

झूठ बोले कौआ काटे ! मुरादाबाद दंगे का सच और दोगली राजनीति

– रामेन्द्र सिन्हा

उत्तर प्रदेश के दबंग मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 1980 में भड़के मुरादाबाद दंगे की पोल खोल दी है। 43 साल तक प्रदेश में 15 मुख्यमंत्री आए और गए लेकिन किसी ने भी न्यायिक जांच आयोग की रिपोर्ट को सार्वजनिक करने की हिम्मत नहीं दिखाई, कारण चाहे जो भी रहे हों। रिपोर्ट का सच ये है कि किसी हिंदू संगठन और हिंदुओं ने नहीं, मुस्लिम लीग के दो नेताओं ने दंगा भड़काया था।

सन् 1980 में स्वतंत्रता दिवस से ठीक दो दिन पहले मुरादाबाद में ईदगाह में तकरीबन 50 हजार नमाजी ईद की पवित्र नमाज पढ़ने के लिए जुटे थे। ईदगाह से लेकर सड़क तक नमाजियों का तांता लगा हुआ था। इसी बीच किसी ने अफवाह फैलाई कि नमाज क्षेत्र में धार्मिक रूप से प्रतिबंधित एक जानवर छोड़ दिया गया है, जिससे तमाम नमाजियों के कपड़े भी खराब हो गए हैं। अफवाह उड़ते ही नमाजियों में आक्रोश भड़क गया। पत्थरबाजी होने लगी और भगदड़ मच गई। गोलियां चलने लगीं और कुछ ही देर में पूरा मुरादाबाद दंगों की चपेट में आ गया।

आक्रोशित लोगों ने जिले के तीन थानों में आग लगा दी। भीड़ को काबू में करने के लिए आगे आए एडीएम सिटी डीपी सिंह को भीड़ ने मार डाला। तीन सिपाहियों की भी इस दौरान जान चली गई। हिंसा में कई महिलाओं और बच्चों की जानें चली गईं। दंगे को काबू में करने के लिए तत्कालीन वीपी सिंह की सरकार ने पीएसी और पैरा मिलिट्री फोर्स को तैनात कर दिया। पीएसी की गोलीबारी में भी कुछ लोगों की जानें चली गईं।

सरकार ने जानकारी दी कि मुरादाबाद के इस भीषण दंगे में 83 लोग मारे गए और 112 लोग घायल हुए हैं। हालांकि, स्थानीय लोगों का दावा इससे अलग था। लोगों का कहना था कि फसाद में 200 से ज्यादा लोग मारे गए हैं। दंगों का असर ऐसा था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इसे विदेशी साजिश करार दे दिया था। खाड़ी के देशों से भारत के कूटनीतिक और व्यापारिक संबंधों पर भी असर पड़ा था। माहौल की गंभीरता को देखते हुए सीएम वीपी सिंह ने मामले की जांच के लिए जस्टिस एमपी सक्सेना की अध्यक्षता में न्यायिक आयोग गठित कर दिया।

20 नवंबर 1983 को आयोग ने अपनी रिपोर्ट भी सरकार को सौंप दी लेकिन न तो उस रिपोर्ट को किसी सरकार ने सदन में रखा और न ही उसे सार्वजनिक किया। इससे दंगे में मारे गए अधिकारियों और पुलिस के जवानों के परिवारों को न तो अतिरिक्त मुआवजा मिल पाया और न ही कोई सरकारी मदद ही मिल पाई। मुद्दे को लेकर संघर्ष करने के लिए तमाम संगठन बने और सीएम तथा पीएम को चिट्ठियां लिखी गईं और मांग की गई कि दंगे के दोषियों पर कड़ी कार्रवाई हो और पीड़ित लोगों को न्याय मिले।

आखिरकार, इस घटना के 43 साल बाद योगी सरकार ने जांच रिपोर्ट को सार्वजनिक कर दिया। विधानसभा के मॉनसून सत्र में योगी सरकार ने रिपोर्ट को सदन के पटल पर रखा। रिपोर्ट में आयोग ने मुस्लिम लीग के नेता शमीम अहमद खां और उनके कुछ समर्थकों को दंगों के लिए जिम्मेदार ठहराया है। रिपोर्ट में राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी को क्लीन चिट दी गयी है। इसके अतिरिक्त किसी हिंदू संगठन की भूमिका भी इसमें नहीं पाई गई थी। आम मुसलमान भी ईदगाह उपद्रव के लिए जिम्मेदार नहीं है। साथ ही यह भी कहा गया है, “पुलिस ने दंगाइयों पर आत्मरक्षा में गोलियां चलायी थीं।”

उप मुख्यमंत्री केशव मौर्य ने मुरादाबाद दंगों की जांच रिपोर्ट सदन में पेश किए जाने के बारे में कहा, “रिपोर्ट से मुरादाबाद के दंगों का सच प्रदेश और देश की जनता के सामने आएगा। यह सच्चाई सामने आनी चाहिए कि दंगे कौन कराता है। दंगाइयों का संरक्षण कौन करता है और दंगाइयों के खिलाफ कार्रवाई कौन करता है।” रिपोर्ट में एक स्थानीय मुस्लिम लीग के नेता शमीम अहमद खान की ओर इशारा है कि राजनैतिक लाभ के लिए उन्होंने दंगा भड़काया था। दंगे के लिए जिला प्रशासन, पुलिस और पीएसी पर भी आरोप लगे थे लेकिन आयोग की रिपोर्ट में तीनों को ही दोषमुक्त कर दिया गया था।

मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने जांच रिपोर्ट को सदन में पेश किए जाने के सवाल पर बुधवार को संवाददाताओं से कहा, ”चुनाव आ रहे हैं। अब इस तरह की रिपोर्ट आती रहेंगी।” सपा के राष्ट्रीय महासचिव शिवपाल सिंह यादव ने भाजपा पर गंभीर आरोप लगाते हुए कहा, ”सरकार चाहे कोई भी रिपोर्ट पेश करे, आज जो सत्ता में है वह कोई भी रिपोर्ट बनाकर भेज सकते हैं। हम जानते हैं कि जब वह कांड हुआ था तो उसे करने वाले लोग आज सत्ता में बैठे हैं।” मुस्लिम लीग के राष्ट्रीय सह सचिव कौसर हयात खां ने मीडिया से आयोग की रिपोर्ट को मनगढ़ंत और झूठ का पुलिंदा बताया है।

झूठ बोले कौआ काटेः

न्यायिक आयोग की रिपोर्ट में सुझाया गया है कि मुसलमानों को चुनाव में वोट बैंक समझने की प्रवृत्ति को हतोत्साहित किया जाना चाहिए क्योंकि यदि उन्हें निर्वाचन के समय सौदेबाजी की बहुमूल्य वस्तु समझा जाएगा तो नतीजे अवश्य अहितकारी होंगे।

दरअसल, लोकतंत्र ने राजनीतिक दलों को विशिष्ट समुदायों को ‘वोट बैंक’ के रूप में एकजुट करने पर ध्यान केंद्रित करने में प्रमुख भूमिका निभाई है। जिस तरह जाति की पहचान वोट बैंक (जैसे ‘दलित/पिछड़ा/सवर्ण/ आदि वोट बैंक’) को पारिभाषित करती है, उसी तरह धार्मिक पहचान भी ‘मुस्लिम वोट बैंक’ बनाती है। इन सभी को राजनीतिक दलों द्वारा उनके संख्यात्मक चुनावी महत्व के काऱण लुभाया जाता है।

भारत की अरबों की मजबूत जनसंख्या का मतलब है कि कोई भी ‘अल्पसंख्यक’ इतना छोटा नहीं है कि महत्वहीन हो। हालांकि, भारत में मुसलमान, फिलहाल कुल जनसंख्या का केवल 14.2% हैं, फिर भी 2023 में उनकी संख्या 19.7 करोड़ होने का अनुमान है। तो, दुनिया में तीसरी सबसे बड़ी भारत की मुस्लिम आबादी को मोहरा बना कर चुनावों में जीत सुनिश्चित करना, बहुत अच्छा दांव है।

विपक्षियों के पास भाजपा को मात देने के लिए सबसे बड़ा हथियार मुस्लिम वोट बैंक ही है। 16वीं लोकसभा के लिए हुए आम चुनाव के बाद मुस्लिम वोटों पर नजर डाली जाए तो कांग्रेस को उन राज्यों में सर्वाधिक मुस्लिम वोट मिलते हैं जहां उसकी भाजपा से सीधी टक्कर होती है। उत्तर प्रदेश में सपा और कांग्रेस को सर्वाधिक 65 प्रतिशत वोट मिले। बहुजन समाज पार्टी को 19 फीसद वोट मिले थे। बिहार में महागठबंधन ने 75 प्रतिशत मुस्लिम वोट हासिल किए थे।

कर्नाटक और महाराष्ट में भी कांग्रेस की मुस्लिम वोट बैंक पर अच्छी पकड़ रही। इन दोनों जगह उसे 68-68 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे। गुजरात में भी कांग्रेस को 46 प्रतिशत वोट मिले थे। यहां भाजपा को भी 26 प्रतिशत मुस्लिमों का वोट मिला था। हालांकि, पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को आम आदमी पार्टी (आप) के कारण नुकसान उठाना पड़ा था।

तेलंगाना में भी कांग्रेस का प्रदर्शन अच्छा रहा। भारतीय राष्ट्रीय समिति (बीआरएस), के चंद्रशेखर राव की पार्टी जो पहले टीआरएस थी और असुद्दीन ओवैसी की आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के रहते हुए भी कांग्रेस ने यहां सर्वाधिक 34 प्रतिशत वोट हासिल किए थे। हालांकि, उसे वोटों तुलना में सीटें नहीं मिली थीं। वहीं टीआरएस को 33 प्रतिशत और ओवैसी की पार्टी को 22 प्रतिशत वोट मिले थे।

उत्तर प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, असम, जम्मू-कश्मीर और तेलंगाना में मजबूत क्षेत्रीय पार्टियों के कारण मुस्लिम वोट एकतरफा कांग्रेस को नहीं मिल पाता। यहां पर मुस्लिम वोट, धार्मिक, भाषा, क्षेत्रीय आधार पर बंट जाते हैं। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव तो बिहार में आरजेडी के नेता लालू प्रसाद यादव मुस्लिमों के मसीहा हैं। पश्चिम बंगाल में टीएमसी की ममता बनर्जी, दिल्ली में अरविंद केजरीवाल, आंध्र प्रदेश में वाईएसआर सीपी के वाईएस जगन मोहन रेड्डी, तमिलनाडु में एमके स्टालिन की पार्टी डीएमके और जम्मू-कश्मीर में पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस दोनों ही मुस्लिम वोट कांग्रेस से बांटने का काम करती हैं।

वहीं भाजपा हिंदू वोट बैंक के साथ-साथ अपने मुस्लिम वोट बैंक को भी धीरे-धीरे बढ़ा रही है। उत्तर प्रदेश में हुए उपचुनाव में भाजपा ने मुस्लिम बाहुल्य सीटें होने के बावजूद जीत दर्ज कर सबको चौंका दिया। आजम खान के गढ़ रामपुर में 50 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम हैं, इसके बावजूद भाजपा ने जीत दर्ज की। वहीं आजमगढ़ जो कभी मुलायम सिंह गढ़ था, वहां मुस्लिम-यादव समीकरण 40 प्रतिशत से अधिक होने के बाद भी भाजपा ने जीत हासिल करके यह साबित कर दिया मुस्लिम वोट एकजुट होने का भी उसे ही फायदा मिलता है।

लोकनीति और सीएसडीएस के आंकड़ों पर नजर डाली जाए तो भारतीय जनता पार्टी के मुस्लिम वोट बैंक बढ़ने की शुरुआत 1998 से शुरू हो गई थी। जहां 1996 में भाजपा को मात्र 2 प्रतिशत मुस्लिम वोट मिला था, वहीं 1998 में वह तीन गुना यानी 6 प्रतिशत पहुंच गया था। इसके बाद 1999 और 2004 में एक प्रतिशत बढ़कर यह 7 प्रतिशत तक पहुंच गया था। 15वीं लोकसभा में यह घटकर 4 प्रतिशत पर आ गया था। इसके बाद पीएम उम्मीदवार के रूप में चुनाव में उतरने वाले नरेंद्र मोदी जिनकी छवि विपक्ष ने मुस्लिम विरोधी की बना रखी थी, के आने के बावजूद 16वीं लोकसभा यानी 2014 में भाजपा को मुस्लिमों का 9 प्रतिशत वोट मिला। यह पिछली बार की तुलना में दोगुना से अधिक रहा। मुस्लिम वोटरों की वृद्धि 17वीं लोकसभा में भी जारी रही।

मुस्लिम वोटरों में कांग्रेस का ग्राफ 15वीं और 16वीं लोकसभा में स्थिर रहा। 2009 और 2014 के आम चुनाव में कांग्रेस का मुस्लिम वोट एक-समान 38 प्रतिशत ही रहा। हालांकि, इसके पहले 1998 में 32 प्रतिशत, 1999 में सर्वाधिक 40 फीसद और 2004 में गिरकर 36 प्रतिशत पर आ गया था। कांग्रेस को उन राज्यों में मुस्लिम वोट बैंक का अधिक नुकसान उठाना पड़ता है जहां तथाकथित क्षेत्रीय सेक्युलर पार्टियां प्रभावशाली होती हैं।

चुनाव विश्लेषक भी मानते हैं कि चुनाव जितना करीब होगा, दंगों की घटनाओं में वृद्धि देखने की संभावना उतनी ही अधिक होगी। 2024 में लोकसभा चुनाव हैं और विपक्ष के निशाने पर अंगद के पांवजैसे वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। पिछले एक अरसे से, खासकर हिंदू त्योहारों पर, मप्र, गुजरात, झारखंड, पश्चिम बंगाल, बिहार से लेकर देश की राजधानी दिल्ली तक सामुदायिक और सांप्रदायिक टकराव हो रहे हैं। क्या ये किसी साजि़श का हिस्सा हैं? अथवा दंगों को प्रायोजित कराया जा रहा है? क्या पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया सरीखे अलगाववादी, जेहादी संगठन मुसलमानों को उकसा रहे हैं? वो सहारनपुर का दंगा रहा हो या नूंह की सांप्रदायिक हिंसा या फिर मणिपुर हिंसा, अरबों की अर्थव्यवस्था चौपट हुई। सरकारी खजाना खाली हुआ और खेती किसानी चौपट हो गई। बेशक, आम आदमी को नुकसान के सिवाय दंगे से कुछ हासिल नहीं हुआ हो, लेकिन सियासत बहुत कुछ कमा लेती है।