शेर की सेहत और भयभीत जनता (Lions Health And Fearful Public)

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शेर की सेहत और भयभीत जनता (Lions Health And Fearful Public);

भारत में सरकारी शेर की सेहत क्या बनी, जनता आतंकित हो गयी. निर्माणधीन नई संसद के सामने बने शेर का अनावरण होते ही सरकार विरोधी लोग फट पड़े, जैसे की बादल फटते हैं .किसी को शेर की कद-काठी पसंद नहीं तो किसी को उसका खुला हुआ शिकारी मुंह अच्छा नहीं लग रहा .सब इस तब्दीली को सरकार की नीति और नीयत से जोड़ रहे हैं .

हमारे पास जो सरकारी शेर हैं वे सम्राट अशोक के जमाने के शेरों की प्रतिकृति हैं .सम्राट अशोक के जमाने में भी ये शेर स्थान के साथ अपनी आकृतियां बदलते रहे ,लेकिन आजाद भारत में इसे बदलने का पहला मौक़ा मिला तो जनता और विपक्ष के नेताओं से बर्दास्त नहीं हो रहा .कोई कलाकार को कोस रहा है तो कोई सरकार को .गनीमत है की शेर खुद आलोचना से बचा हुआ है .कोई ये समझने को राजी नहीं है की बीते 75 साल में आखिर शेर की सेहत भी तो सुधरी होगी !
आदमी को शांत शेर पसंद हैं ,शांत शेर केवल सर्कस में मिलते हैं. अभ्यारण्यों के शेर भी बहुत ज्यादा सुडौल नहीं होते हाँ गिर के शेर जरूर तंदरुस्त दिखाई देते हैं .मुझे लगता है कि कलाकार और सरकार ने देश की समृद्धि को प्रदर्शित करने के लिए ही मजबूत कद काठी वाले शेर राजचिन्ह के लिए चुने हैं .खाता-पीता शेर शांत तो नहीं दिखाई देगा. शेर की दाढ़ में एक बार खून लग जाये तो उसका मुंह अपने आप खुल जाता है .इसलिए संसद की नई इमारत के बाहर लगाए गए राज चिन्ह के शेर की प्रतिमा को इसी दृष्टि से देखना चाहिए .हर चीज में सियासत देखना ठीक नहीं .

विरोधी नए शेर के मुकाबले में पुराने शेर को खड़ा करते हैं .अब पुराना शेर तो पुराना है. विभाजन के बाद के शेर की हालत स्वावलम्बी देश के शेर के मुकाबले तो मजबूत होगी ही. देश में 75 साल में केवल शेरोन की ही सेहत नहीं सुधरी बल्कि पूरी सियासत की हालत सुधरी है .आप गौर से देख लीजिये आजादी के बाद के नेताओं की सेहत जेलों में रहते-रहते इकहरी हो गयी थी किन्तु आजादी के बाद के नेताओं की सेहत में अप्रत्याशित सुधर हुआ है .सकी तोंदें निकली हुई हैं .अब यदि नेताओं की प्रतिमाएं बनतीं हैं तो पूरे देश से लोहा-लंगड़ जमा करना पड़ता है .गनीमत है कि इन शेरों के लिए सरकार ने ऐसा नहीं किया .

शेर हमारे राष्ट्र की समृद्धि के प्रतीक है. मान लीजिये अब जब कोई विदेशी आएगा तो सबसे पहले उसे यही शेर तो दिखाए जायेंगे .इसलिए इन शेरों का सुडौल होना जरूरी है कि नहीं ? मान लीजिये कलाकार और सरकार तनखीन शेर बना देती तो लोग कहते कि सरकार ने कमीशन खा लिया शेर बनवाने में .यानि सरकार की फजीहत तय है. सरकार मोटा शेर बनवाये या पतला,उसकी आलोचना तो होना ही है .

सरकार सम्राट अशोक के ज़माने में पैदा हुए शेरों को तो मोटा-तगड़ा कर नहीं सकती इसलिए उसके सामने एक ही विकल्प था कि वो नए और मोटे शेर बनवाये.शेर कोई गाय तो है नहीं जो उसके चेहरे से वातसल्य भाव टपके.शेर तो शेर है उसका तो खुला और खूंखार मुखड़ा ही अच्छा लगता है .मेरी मान्यता है कि यदि शेर की प्रतिमा अच्छी न होती तो माननीय प्रधानमंत्री जी न उसका लोकार्पण करते और न उसके सामने खड़े होकर तस्वीर खिंचवाते .यानि जब शेर प्रधानमंत्री को पसंद है तो आप कौन हैं आपत्ति करने वाले .

हकीकत तो ये है कि शेर मोटा हो या पतला उससे जनता परकोई फर्कनहीं पड़ने वाला .जनता तो शेरों के सामने हमेशा से चारा ही रही है .शेर को चारा चाहिए और चारे को शेर .दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं .सौभाग्य से देश में न चारे की कमी है और न शेरों की .दोनों इफरात में हैं .शेरों से केवल विपक्ष डरता है .द्वारा हुआ विपक्ष इन शेरों का बिगाड़ भी किया सकता है .विपक्ष को मोटे-तगड़े शेर देखकर शायद जलन होती है .आजादी के पचहत्तरवें साल में विपक्ष को भी खाता-पीता दिखाई देना चाहिए था लेकिन दुर्भाग्य है कि विपक्ष की दशा भिक्षुओं जैसी हो रही है. पूरा विपक्ष बिखरा-बिखरा दिखाई देता है .

विपक्ष का केवल एक ही काम है और वो है ट्वीट करना. अब विपक्ष सड़कों पर नहीं ट्विटर पर लड़ता है,वहीं विरोध जताता है और चुप हो जाता है .ट्विटर केंद्रित विपक्ष लोकतंत्र के लिए हानिकारक है. विपक्ष को सदैव मैदानी संघर्ष करने वाला होना चाहिए .जनता और लोकतंत्र दोनों सरकार के भरोसे कम विपक्ष के भरोसे ज्यादा रहते हैं .कमजोर विपक्ष हो तो देश की बदनामी होती है .लेकिन देश के नसीब में कमजोर विपक्ष ही लिखा है तो कोई क्या करे ?

संसद भवन के सामने लगाया गया शेर कागजी शेर नहीं है. वो ग़ालिब या अकबर इलाहाबादी का भी शेर नहीं है .ये शेर मोदी सरकार का शेर है .ऐसे शेर का सम्मान करना चाहिए न कि आलोचना .

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RAKESH ANCHAL
राकेश अचल

राकेश अचल ग्वालियर - चंबल क्षेत्र के वरिष्ठ और जाने माने पत्रकार है। वर्तमान वे फ्री लांस पत्रकार है। वे आज तक के ग्वालियर के रिपोर्टर रहे है।