Loksabha Election 2024:मोहन यादव भाजपा के राष्ट्रीय फलक पर

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Loksabha Election 2024:मोहन यादव भाजपा के राष्ट्रीय फलक पर

लोकसभा चुनाव के नतीजे भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व के लिये भले ही उत्साहजनक न रहे हों, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव के लिये राजनीति के राष्ट्रीय राजमार्ग पर बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करने वाले साबित होंगे। प्रदेश की सभी 29 सीटों पर कब्जा कर कांग्रेस का सफाया करने की खुशी केंद्रीय नेतृत्व के लिये थोड़ी राहतदायक तो रहेगी ही। मप्र में 29-0 के स्कोर को पूरी तरह से मुख्यमंत्री व प्रदेश अध्यक्ष के खाते में तो नहीं डाला जा सकता, किंतु वे बड़े हिस्से के श्रेय के हकदार तो हो ही चुके हैं। मात्र छह माह के अल्प राजनीतिक जीवन(दिसंबर 2023 से मई 2024 तक) में एक विधायक से मुख्यमंत्री बनने का सफर जितना रोमांचकारी और चमत्कृत करने वाला था,उससे कहीं अधिक हतप्रभ करने वाले लोकसभा चुनाव के मप्र के नतीजे रहे।

यह जानना दिलचस्प होगा कि मोहन यादव ने दीर्घ प्रशासनिक अनुभव के बिना भी मप्र की राजनीति में इतने कम समय में कैसे इतना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया। कर्मवादी तबका भले ही किस्मत में यकीन न करता हो, लेकिन इसके अस्तित्व के प्रमाण अक्सर ही मिलते रहते हैं।मोहन यादव इसकी ताजा मिसाल हैं। मोदी लहर पर सवार होकर विधायक बने मोहन यादव मुख्यमंत्री बनने की दौड़ में तो कतई नहीं थे। तब अन्य पिछड़ा वर्ग(ओबीसी) को प्रतिनिधित्व देने की मंशा के तहत उन्हें,भाजपा कार्यकर्ताओं,प्रेक्षकों,आलोचकों और जनता को भी चौंकाते हुए मोहन यादव की ताजपोशी की गई थी। इसके पीछे का हेतु संभवत यह भी था कि इससे मप्र का पिछड़ा वर्ग तो भाजपा के प्रति संतुष्ट होता ही, साथ में उत्तर प्रदेश व बिहार के इस वर्ग को साधने का भी निहितार्थ रहा ही होगा। मप्र में तो भाजपा अपने मकसद में पूरी तरह कामयाब कही जा सकती है, लेकिन मोहन यादव उत्तर प्रदेश के यादवों को साध नहीं पाये, यह भी उतना ही सही है। इसका जवाब तो यह भी हो सकता है कि इसमें तो मोदीजी व श्री राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा भी सहयोग नहीं कर सकी।

हाल-फिलहाल तो मोहन यादव के लिये यह संतोष की बात है कि उनके कार्यकाल के पहले चुनाव में उन्होंने आशातीत नतीजे दिये हैं।वैसे प्रारंभ से ये अटकलें लगाई जा रही थीं कि इस बार भाजपा को मप्र में 28-01 की स्थिति बरकरार रखना मुश्किल होगा। फिर 25 के आसपास भी चर्चायें आकर ठहरीं,लेकिन 29-0 की कल्पना तो नहीं ही रही होगी। भले ही राजनीतिक बयानबाजी होती रही हो। जब देश में भाजपा ने उल्लेखनीय संख्या में सीटें खोई हैं, तब मप्र में बढ़ोतरी मायने रखेगी। अब यह मोहन यादव पर निर्भर करेगा कि वे इस उपलब्धि पर केवल आत्म मुग्धता का भाव रखेंगे या इसे सामूहिक प्रयासों का नतीजा मानेंगे। इसे जिम्मेदारी का बढ़ जाना मानेंगे तो भाजपा परिवार में राजपथ पर आगे बढ़ सकते हैं।

मोहन यादव के हिस्से में संयोगवश जो कीर्ति दर्ज हुई है,वह उनके लिये एक अवसर भी है,चुनौती और खतरा भी। यह उन पर निर्भर करेगा कि वे अपने आगामी राजनीतिक जीवन को चमकाने के लिये इसे एक दुर्लभ मौका मानकर संघ-भाजपा की मंशानुरूप अपना सफर जारी रखना चाहेंगे या इस उपलब्धि को गले में टांगे-टांगे घूमने में लग जायेंगे। वैसे भाजपा की कार्य प्रणाली में किसी भी अनुकूल परिणाम को निजी खाते में डालने की परंपरा नहीं है। कार्यकर्ता आधारित राजनीतिक दल में अनुशासन की जंजीर में बंधकर जितना लंबा जा सकते हैं,उससे अधिक की अनुमति मांगना कमजोरी मानी जाती है और अपेक्षा रखना महत्वाकांक्षा। दोनों ही आपको कमजोर करने के लिये काफी होती हैं।

विसंगति पूर्ण यह है कि मप्र भाजपा अपनी इस महती उपलब्धि का एकतरफा उत्सव भी नहीं मना सकती। यदि केंद्र में भी निर्बाध रूप से सरकार बन रही होती तो बात अलग है। फिर भी मुख्यमंत्री मोहन यादव और प्रदेश अध्यक्ष वी.डी. शर्मा को इसका साझा श्रेय दिया जाना चाहिये कि उन्होंने संगठन व सरकार के बीच तालमेल को टूटने नहीं दिया । मोहन यादव ने लोकसभा चुनाव में जितना परिश्रम किया है, वह मायने रखता है। वे प्रदेश की सभी सीटों पर तो पहुंचे ही,उप्र व बिहार में भी उनका उपयोग किया गया। आने वाले समय में वे अपनी सांगठनिक समझ को तराशकर दल हित में पिछड़ा वर्ग को साधे रहे तो दूसरी पंक्ति में वे ससम्मान दर्ज हो सकेंगे।