एकाकी सैर : जब सन्नाटा बोलता है और मन सुनता है

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एकाकी सैर : जब सन्नाटा बोलता है और मन सुनता है

– एन. के. त्रिपाठी

कभी-कभी जीवन की सबसे गहरी बातें शोर में नहीं, बल्कि सन्नाटे में सुनाई देती हैं। अकेले चलने का अनुभव मानो आत्मा से संवाद करने जैसा होता है- जहां न कोई साथी होता है, न कोई व्यवधान, बस प्रकृति और मन के बीच एक मौन बातचीत। ऐसी ही एक सुबह, जब बादलों ने आसमान को ढक रखा था और धरती ताज़गी से भीगी थी, मैं अपने परिचित पार्क की ओर निकल पड़ा…

 

इस रविवार सुबह जब मैं एकांत पार्क पहुंचा, तो बारिश के बाद हवा ताज़ी थी। पार्क लगभग वीरान था। मैं अपने प्यारे पेड़ों के अलावा किसी को देखे बिना ही काफ़ी दूर तक चला। पेड़ों के बीच अकेले चलने से प्रकृति मेरे दिल में उतर गई और यादें ताज़ा हो गईं।

मेरे बीए अंग्रेजी साहित्य के पाठ्यक्रम में, 19वीं सदी के शुरुआती दौर के रोमांटिक लेखक विलियम हेज़लिट का एक निबंध था। हेज़लिट का मानना था कि सैर का सार पूर्ण स्वतंत्रता का आनंद लेना है। किसी साथी के साथ चलने से यह स्वतंत्रता भंग हो जाती है। निबंध में उन्होंने लिखा था कि अकेले चलने से उन्हें गहन चिंतन और स्मृतियों व विचारों के मुक्त प्रवाह का अवसर मिलता है।

पहले बहुत लंबे समय तक मैं हमेशा अकेला ही चलता था। अब कुछ समय से, मैं लोगों के साथ चल रहा हूं। सामाजिक संगति भी बहुत आनंददायक होती है क्योंकि इससे हम विभिन्न मुद्दों पर अपने विचार साझा करते हैं और कभी-कभी बहस भी करते हैं। हालांकि, आज जब मैं घने हरे पेड़ों के बीच बादलों से घिरे आसमान में ताज़ी हवा में अकेला था, तो मैं आत्मनिरीक्षण में डूब गया।