सत्य नेपथ्य के! जगत के नाथ,जगन्नाथ की पुरी से
*वरिष्ठ पत्रकार व साहित्यकार चंद्रकांत अग्रवाल का नया साप्ताहिक कालम*
मीडियावाला डॉट इन के प्रधान संपादक श्री सुरेश तिवारी जी कुछ दिनों से चाह रहे थे कि मैं अपना एक साप्ताहिक कालम राष्ट्रीय पृष्ठभूमि पर अपने अनुभवों से , स्वांतः सुखाय,स्वान्तः दुखाय अंदाज में अपने इच्छित किसी भी संस्मरणात्मक विषय पर लिखूं। विगत 7 दिनों से मैं उड़ीसा राज्य में सम्पूर्ण जगत के नाथ माने जाने वाले भगवान जगन्नाथ की पावन पुरी, समुद्र तट पर स्थित जगन्नाथपुरी में हूं। यहां के होटल नीलाद्री कांप्लेक्स में इटारसी से आए करीब 200 धर्म प्रेमियों संग भागवताचार्य पंडित नरेन्द्र तिवारी के श्री मुख से संवाहित श्री मद भागवत कथा सत्संग के अनुक्रम में। तो सोचा कि इससे अच्छा प्रसंग और क्या होगा,सत्य नेपथ्य के,के आगाज़ का क्योकि श्री जगन्नाथ को सत्य स्वरूप परमात्मा ही माना जाता है।
एक ऐसा अलौकिक सत्य जिसे विज्ञान भी स्वीकार कर चुका है कि श्री जगन्नाथ जी की प्रतिमा में आज भी दिल की धड़कन महसूस की जा सकती है। वैसे भी कोई भी सत्य तब तक अधूरा ही रहता है,जब तक कि उसका नेपथ्य भी वही सत्य बयान न करे। अतः जगन्नाथ जी की प्रतिमा विश्व की कदाचित ऐसी पहली प्रतिमा है,जो सिर्फ श्रद्धा,विश्वास का परमात्मा का ही स्वरूप नहीं वरन विज्ञान को भी एक नहीं कई चुनौती देने वाला स्वरूप है। भगवान जगन्नाथ के मंदिर का झंडा हर शाम को बदला जाता है। माना जाता है कि अगर इस झंडे को नहीं बदला गया तो मंदिर अगले 18 साल के लिए बंद हो जाएगा।
भगवान जगन्नाथ के मंदिर में हर 12 साल बाद भगवान जगन्नाथ, बहन सुभद्रा और भाई बलभद्र की मूर्ति को बदला जाता है। इन मूर्तियों को बदलते समय अंधेरा कर दिया जाता है। एक पुजारी के अलावा किसी को भी मंदिर में घुसने की इजाजत नहीं होती है। मूर्ति बदलते समय पुजारी की आंखों पर पट्टी बंधी होती है। भगवान जगन्नाथ मंदिर में पुरानी मूर्ति व नई मूर्ति में एक तत्व समान रहता है जिसका नाम ब्रह्म पदार्थ है। इसको पुरानी मूर्ति से निकालकर नई मूर्ति में डाल दिया जाता है। माना जाता है कि जो इस ब्रह्म पदार्थ को देखता है उसकी मौत हो जाती है। कई पुजारियों का कहना है कि ब्रह्म पदार्थ पुरानी मूर्ति से नई मूर्ति में डालते समय उछलता हुआ महसूस होता है। छूने में यह खरगोश जैसा लगता है।भगवान जगन्नाथ के मंदिर के गुंबद पर कभी किसी पक्षी को बैठे हुए नहीं देखा गया है। इस मंदिर के ऊपर से हवाई जहाज के भी उड़ने की मनाही है। ओड़िशा के पुरी के जगन्नाथ मंदिर में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियां लकड़ी की हैं।
मान्यता के अनुसार, भगवान श्रीकृष्ण ने जब देह त्याग किया था तो उनका अंतिम संस्कार हुआ। भगवान श्रीकृष्ण का बाकी शरीर तो पंचतत्व में विलीन हो गया लेकिन उनका हृदय सामान्य और जिंदा रहा। कहा जाता है कि यह दिल आज भी सुरक्षित है और वो भगवान जगन्नाथ की मूर्ति में आज भी धड़कता है। उड़ीसा प्रदेश की पुरी का श्री जगन्नाथ मन्दिर पूरी तरह विश्व का एक ऐसा हिन्दू मन्दिर है, जो भगवान जगन्नाथ (श्रीकृष्ण) को समर्पित है। जिसके द्वार पर स्पष्ट लिखा है कि सिर्फ हिंदू ही मंदिर में प्रवेश कर सकते हैं। जगन्नाथ शब्द का अर्थ जगत अर्थात संसार का स्वामी होता है। इनकी नगरी ही जगन्नाथपुरी या पुरी कहलाती है। इस मन्दिर को हिन्दुओं के चार धाम में से एक माना जाता है। यह वैष्णव सम्प्रदाय का मन्दिर है, जो भगवान विष्णु के अवतार श्री कृष्ण को समर्पित है। इस मन्दिर का वार्षिक रथ यात्रा उत्सव विश्व भर में प्रसिद्ध है। इसमें मन्दिर के तीनों मुख्य देवता, भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भ्राता बलभद्र और भगिनी सुभद्रा तीनों, तीन अलग-अलग भव्य और सुसज्जित रथों में विराजमान होकर नगर की यात्रा को निकलते हैं।
पर रथ यात्रा की चर्चा के साथ यदि मेरी जगन्नाथ यात्रा की इस पहली कड़ी में जगन्नाथ जी के परम भक्त माधवदास जी के प्रारब्ध लेकर बीमार पड़ गये श्री जगन्नाथ भगवान की सत्य कथा की चर्चा नहीं करूंगा तो रथ यात्रा के ऐतिहासिक व आध्यात्मिक रहस्य पर से पर्दा भी नहीं उठ पाएगा।जगन्नाथ पूरी में ही भगवान के एक परम भक्त रहते थे, श्री माधव दास जी
। वे अकेले ही रहते थे, उनको संसार से कोई लेना देना भी नही था। अकेले बैठे बैठे भजन किया करते थे, नित्य प्रति श्री जगन्नाथ प्रभु का दर्शन करते थे, और उन्हीं को अपना सखा मानते थे, मानसिक रूप से प्रभु सानिध्य में ही अपनी सम्पूर्ण दैनिक दिनचर्या करते थे। प्रभु भी इनके साथ अनेक लीलाएँ किया करते थे। ठीक उसी तरह जिस तरह कि ब्रज में श्री कृष्ण गोप गोपियों के संग करते थे। एक बार माधव दास जी को अतिसार (उलटी-दस्त) का रोग हो गया। वह इतने दुर्बल हो गए कि उठ-बैठ नहीं सकते थे, पर जब तक इनसे बना ये अपना कार्य स्वयं करते थे और सेवा किसी से लेते भी नही थे। कोई कहे महाराज जी हम कर दें आपकी सेवा तो कहते नही मेरे तो एक जगन्नाथ ही हैं, वही मेरी रक्षा करेंगे। ऐसी दशा में जब उनका रोग बढ़ गया । और वो उठने-बैठने में भी असमर्थ हो गये, तब श्री जगन्नाथजी स्वयं सेवक बनकर इनके घर पहुँचे और माधवदासजी से कहा की हम आपकी सेवा कर दें।
क्योंकि उनका रोग इतना बढ़ गया था कि उन्हें पता भी नही चलता था कि कब वे मल, मूत्र त्याग देते थे। वस्त्र गंदे हो जाते थे। उन वस्त्रों को जगन्नाथ भगवान अपने हाथों से साफ करते थे, उनके पूरे शरीर को साफ करते थे, उनको स्वच्छ करते थे। कोई अपना भी इतनी सेवा नही कर सकता, जितनी जगन्नाथ भगवान भक्त माधव दास जी की सेवा करते थे। जब माधवदासजी को होश आया, तब उन्होंने तुरन्त पहचान लिया कि यह तो मेरे प्रभु ही हैं। एक दिन माधवदासजी ने पूछ लिया प्रभु से – “प्रभु ! आप तो त्रिभुवन के मालिक हो, स्वामी हो, आप मेरी सेवा कर रहे हो। आप चाहते तो मेरा ये रोग भी तो दूर कर सकते थे, रोग दूर कर देते तो ये सब करना नही पड़ता।” ठाकुरजी कहते हैं – “देखो माधव ! मुझसे भक्तों का कष्ट नहीं सहा जाता, इसी कारण तुम्हारी सेवा मैंने स्वयं की। जो प्रारब्ध होता है उसे तो भोगना ही पड़ता है। अगर उसको इस जन्म में नहीं काटोगे तो उसको भोगने के लिए फिर तुम्हें अगला जन्म लेना पड़ेगा और मैं नहीं चाहता की मेरे भक्त को जरा से प्रारब्ध के कारण अगला जन्म फिर लेना पड़े। इसीलिए मैंने तुम्हारी सेवा की लेकिन अगर फिर भी तुम कह रहे हो तो भक्त की बात भी नहीं टाल सकता। (भक्तों के सहायक बन उनको प्रारब्ध के दुखों से, कष्टों से सहज ही पार कर देते हैं प्रभु) अब तुम्हारे प्रारब्ध में ये 15 दिन का रोग और बचा है, इसलिए 15 दिन का रोग तू मुझे दे दे।” 15 दिन का वो रोग जगन्नाथ प्रभु ने माधवदासजी से ले लिया।वो तो हो गयी तब की बात पर भक्त वत्सलता देखो आज भी वर्ष में एक बार जगन्नाथ भगवान को स्नान कराया जाता है (जिसे स्नान यात्रा कहते हैं)। स्नान यात्रा करने के बाद हर साल 15 दिन के लिए जगन्नाथ भगवान आज भी बीमार पड़ते हैं। 15 दिन के लिए मन्दिर बन्द कर दिया जाता है। कभी भी जगन्नाथ भगवान की रसोई बन्द नही होती पर इन 15 दिन के लिए उनकी रसोई बन्द कर दी जाती है। भगवान को 56 भोग नही खिलाया जाता, (बीमार हो तो परहेज तो रखना पड़ेगा) 15 दिन जगन्नाथ भगवान को कई तरह के औषधीय काढ़ों का भोग लगता है। इस दौरान भगवान को आयुर्वेदिक काढ़े का भी भोग लगाया जाता है। जगन्नाथ धाम मन्दिर में तो भगवान की बीमारी की जांच करने के लिए हर दिन वैद्य भी आते हैं। काढ़े के अलावा फलों का रस भी दिया जाता है। वहीं रोज शीतल लेप भी लगया जाता है।
बीमार रहने के दौरान उन्हें फलों का रस, छेना का भोग लगाया जाता है और रात में सोने से पहले मीठा दूध अर्पित किया जाता है। भगवान जगन्नाथ बीमार हो गए है और 15 दिनों तक आराम करेंगे। आराम के लिए 15 दिन तक मंदिरों के पट भी बन्द कर दिए जाते है और उनकी सेवा की जाती है। ताकि वे जल्दी ठीक हो जाएँ। जिस दिन वे पूरी तरह से ठीक होते हैं उस दिन जगन्नाथ यात्रा निकलती है, जिसके दर्शन हेतु विश्व भर से असंख्य भक्त पुरी में उमड़ते हैं। खुद पर तकलीफ लेकर अपने भक्तों का जीवन सुखमयी बनाये, ऐसी भक्तवत्सलता है प्रभु जगन्नाथ जी की। इस साल 14 जून को स्नान यात्रा हुई थी और 15 दिन बाद 1 जुलाई को रथयात्रा हुई थी। माधवदास का ही श्री कृष्ण से सख्य भाव/दृष्टांत/राजा के बगीचे से कटहल की चोरी करने के लीला चरित्र की चर्चा करना भी यहां प्रासांगिक होगा। जो व्यास पीठ से भागवताचार्य पंडित नरेन्द्र तिवारी ने भी सबको सुनाया। श्री माधव दास जी का भगवान श्री कृष्ण से सख्य भाव था, अतः भगवान उनसे विविध प्रकार के विनोद पूर्ण कौतुक किया करते थे | एक दिन जब माधवदास जी भगवान का दर्शन करने लगे तो देखा कि भगवान कुछ उदास हैं, उन्होंने पूछा प्रभु आज आप कुछ उदास से प्रतीत हो रहे हैं क्या बात है ? श्री ठाकुर जगन्नाथ जी ने कहा, माधव दास जी क्या बताएं साल बीता जा रहा है और पका कटहल खाने को नहीं मिला। राजा के बाग में कटहल के खूब फल हैं और पके हुए भी हैं । अगर आप सहयोग दें तो आज रात में बाग में चलकर कटहल खाया जाए | माधवदास ने कहा कि पर वो बचपन में तो मुझे पेड़ पर चढ़ने का अभ्यास था , अब तो मैं बूढ़ा हो गया हूं मेरे हाथ पाव कांपते हैं | अतः पेड़ पर चढ़ने में तो मुश्किल होगी ? श्री बलराम जी भी भगवान के साथ इस विनोद में रस ले रहे थे। उन्होंने कहा कि माधव दास जी हम चढ़ने में सहायता कर देंगे, आपको कोई कठिनाई नहीं होगी । बात तय हो गई। श्री कृष्ण बलराम और माधव दास जी आधी रात में चुपचाप राजा जी के बाग में घुस गए । श्री बलराम जी ने सहारा देकर माधव दास जी को पेड़ पर चढ़ा दिया माधव दास जी ने बड़े और खूब पके फल देखकर कई कटहल नीचे गिराए ,दोनों भाइयों ने खूब जी भर कर कटहल खाए | उधर फलों की गिरने की आवाज सुनकर बाग के माली जग गए और आवाज की दिशा में लाठी लेकर दौड़े, उन्हें आता देखकर श्री जगन्नाथ जी व बलराम तो वहां की चारदीवारी लांघ कर भाग गए | पर बेचारे माधव दास जी रंगे हाथों पकड़ लिए गए। मालियों ने रात्रि के अंधेरे में पहचाना नहीं तो खूब डन्डे की मार लगाई और रात भर बांधकर भी रखा | प्रातः काल सैनिकों ने बंदी अवस्था में ही राजा के सम्मुख प्रातः काल उनके बगीचे में भ्रमण के समय आमना सामना हो गया। राजा अपने गुरु को ऐसी हालत में देखते ही पृथ्वी पर गिर पड़े और सष्टांग दंडवत प्रणाम किया और मालियों द्वारा किये अपराध के लिए क्षमा मांगी और मालियों को दंड देना चाहा | इस पर माधव दास जी ने कहा कि राजन मालियों ने अपने कर्तव्य का अच्छी प्रकार से पालन किया है। उन्होंने कोई अपराध नहीं किया था | इन्हें पुरस्कार देना चाहिए । राजा ने माधवदास के कहे अनुसार मालियों को बारह बीघे जमीन का पट्टा पुरस्कार स्वरूप दे दिया | तत्पश्चात आधी रात में बाग में आने का कारण जानना चाहा | माधवदास जी ने उन्हें सारी बात बताई तो राजाभाव विभोर हो गए। उन्होंने कहा , प्रभु मेरे धन्य भाग्य हैं कि आप मेरे बाग में आए | अब यह बाग आपकी ही सेवा में प्रस्तुत हैं |यह कहकर राजा ने ताम्रपत्र पर लिखकर बाग को श्री ठाकुर जी के श्री चरणों में समर्पित कर दिया | भगवान संग भक्त माधवदास जी के ऐसे कई चरित्र हैं | जगन्नाथपुरी में पहले भगवान नील माघव के नाम से पूजे जाते थे। जो भील संप्रदाय के सरदार विश्वासु के आराध्य देव थे। अब से लगभग हजारों वर्ष पुर्व भील सरदार विश्वासु नील पर्वत की गुफा के अन्दर नील माघव जी की पूजा किया करते थे । मध्य-काल से ही यह उत्सव काफी हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इसके साथ ही यह उत्सव भारत के कई अन्य वैष्णव, कृष्ण मन्दिरों में मनाया जाता है एवं यात्रा निकाली जाती है।यह मंदिर वैष्णव परम्पराओं और सन्त रामानन्द से जुड़ा हुआ है। यह गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के लिये खास महत्व रखता है। इस पन्थ के संस्थापक श्री चैतन्य महाप्रभु भगवान की ओर आकर्षित हुए थे और कई वर्षों तक पुरी में रहे भी थे। जगन्नाथ यात्रा संस्मरण की इस प्रथम कड़ी में जगन्नाथ पुरी मंदिर की कुछ आश्चर्यजनक बातें जानना भी वैज्ञानिक चिंतन के लिए और हां नास्तिकों के लिए भी जानना जरूरी है। मंदिर का आर्किटेक्ट इतना दिव्य, भव्य व विश्व विख्यात है कि दूर-दूर के वास्तु विशेषज्ञ इस पर रिसर्च करने आते हैं।मंदिर की ऊंचाई 214 फुट है। पुरी में किसी भी स्थान से आप मंदिर के शीर्ष पर लगे सुदर्शन चक्र को देखेंगे तो वह आपको सदैव अपने ठीक सामने ही लगा दिखेगा। मंदिर के ऊपर स्थापित ध्वज सदैव हवा के विपरीत दिशा में लहराता है। सामान्य दिनों के समय हवा समुद्र से जमीन की तरफ आती है और शाम के दौरान इसके विपरीत, लेकिन पुरी में इसका उल्टा होता है। मुख्य गुंबद की छाया दिन के किसी भी समय अदृश्य ही रहती है। मंदिर के अंदर पकाने के लिए भोजन की मात्रा पूरे वर्ष के लिए रहती है। प्रसाद की एक भी मात्रा कभी भी व्यर्थ नहीं जाती, एक दिन में लाखों लोगों तक को खिला सकते हैं। मंदिर की रसोई में प्रसाद पकाने के लिए 7 बर्तन एक-दूसरे पर रखे जाते हैं और सब कुछ लकड़ी पर ही पकाया जाता है। इस प्रक्रिया में शीर्ष बर्तन में रखी भोज्य सामग्री सबसे पहले पकती है फिर क्रमश: नीचे की तरफ एक के बाद एक पकती जाती है। मंदिर के सिंहद्वार में पहला कदम प्रवेश करने पर ही (मंदिर के अंदर ) मंदिर के समीपस्थ स्थित समुद्र द्वारा निर्मित किसी भी ध्वनि को आप नहीं सुन सकते। वहीं यदि आप मंदिर के बाहर एक कदम भी आगे बढ़ें तो आप इसे आसानी से सुन सकते हैं। इसे शाम को व रात्रि में स्पष्ट रूप से अनुभव किया जा सकता है। मंदिर का रसोई घर दुनिया का सबसे बड़ा रसोईघर है। मंदिर का क्षेत्रफल 4 लाख वर्गफुट में है। प्रतिदिन सायंकाल मंदिर के ऊपर स्थापित ध्वज को सेवकों द्वारा उल्टा चढ़कर बदला जाता है। पक्षी या विमानों को कभी भी मंदिर के ऊपर उड़ते हुए नहीं पाएंगे। विशाल रसोईघर में भगवान जगन्नाथ को चढ़ाए जाने वाले महाप्रसाद का निर्माण करने हेतु 500 रसोइए एवं उनके 300 अन्य सहायक-सहयोगी एक साथ काम करते हैं। सम्पूर्ण भोजन मिट्टी के बर्तनों में पकाया जाता है। हमारे पूर्वज कितने बड़े इंजीनियर रहे होंगे, यह इस मंदिर के विश्व के सबसे अनूठे व अदभुद दृष्टांतो से समझा जा सकता है। अगली कड़ी में फिर इस यात्रा संस्मरण के कुछ अन्य प्रसंगों के साथ मिलेंगे। जय श्री कृष्ण।