Lord Parashurama: सबसे प्रचंड और व्यापक अवतार है भगवान् परशुराम (Lord Parashurama) जी का
भगवान् परशुराम (Lord Parashurama) जी अवतार सबसे प्रचंड और व्यापक रहा है। यह प्रचंडता तप और साधना में भी है और प्रत्यक्ष युद्ध में भी है और समाज की सेवा में भी। उनकी व्यापकता संसार के हर कोने में और हर युग में रही। वे अक्षय हैं, अनंत हैं। प्रलय के बाद भी रहने वाले हैं।
उनका अवतार सतयुग और त्रेता के संधिकाल में हुआ अर्थात वे ही निमित्त हैं सतयुग कै समापन के और त्रेता युग के आरंभ के। वे ही निमित्त बने त्रेता और द्वापर में धर्म संस्थापना के और वे ही निमित्त बनेंगे कलियुग की पूर्णता की पूर्णता पर सतयुग निर्माण के।
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उनका अवतार बैशाख माह शुक्लपक्ष तृतीया को हुआ। चूँकि अवतार अक्षय है इसीलिये यह तिथि अक्षय तृतीया कहलाती है। उनका अवतार एक प्रहर रात्रि पूर्व हुआ।
चूँकि अवतार ऋषि परंपरा में हुआ इस लिये यह पल ब्रह्म मुहूर्त कहलाता है। उनके आगे चारों वेद चलते हैं, पीछे दिव्य बाणों से भरा तूणीर है। वे शाप देने और दंड देने दोनों में समर्थ हैं। वे चारों वर्णों में हैं और चारों युग में हैं।
जब तप साधना से ब्रह्त्व को प्राप्त कर वेद ऋचाओं का उपदेश संसार को देते हैं तप से ब्राह्मण हैं, जब प्रत्यक्ष युद्ध में दुष्टों का अंत करते हैं तो क्षत्रिय हैं।
जब लोक कलाओं का विकास कर समाज को समृद्ध बनाते हैं तब वैश्य हैं और जब दाशराज युद्ध में घायलों की अपने हाथ से सेवा शुषुश्रा करते हैं तब सेवा वर्ग में माने जाते हैं।
भगवान् शिव का भक्त तो पूरा संसार है पर परशुराम जी उनके एक मात्र शिष्य हैं। भगवान् शिव ने आषाढ़ की पूर्णिमा को ही परशुराम जी को शिष्यत्व प्रदान किया था इस लिये वह तिथि गुरु पूर्णिमा है।
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उनका अवतार ऋषि परंपरा में भुगु कुल में हुआ । ये वही महर्षि भृगु हैं जिनके चरण चिन्ह नारायण अपने हृदय पर धारण करते हैं।
और श्रीमद्भागवत गीता के दसवें अध्याय में भगवान् कृष्ण ने कहा कि “मैं ऋषियों में भृगु हूँ” इसी परम प्रतापी भृगुकुल में भगवान् परशुराम जी का अवतार हुआ है।
वे महर्षि ऋचीक के पौत्र और महर्षि दमदाग्नि के पुत्र रूप में प्रकट हुये । देवी रेणुआ उनकी माता है। जो राजा रेणु की पुत्री हैं।
पुराणों में मान्यता है कि महर्षि जमदग्नि और देवी रेणुका शिव और शक्ति के रूपांश हैं। देवी रेणुका यज्ञसेनी हैं।
उनका जन्म उसी यज्ञ कुण्ड से हुआ जिसमें महाराज दक्ष के यज्ञ में कभी देवी सती ने स्वयं को समर्पित किया था। इसीलिए यज्ञसेनी देवी रेणुका को दैवी सती का अंश माना जाता है।
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उन्होंने स्वयंवर में धरती के समस्त राजाओं को अनदेखा कर महर्षि जमदग्नि का वरण किया था। उनके पिता राजा रेणु ने भी बाद में तप करके ऋषीत्व प्राप्त किया।
भगवान् परशुराम (Lord Parashurama) जी के सात गुरु हैं। प्रथम गुरु माता रेणुका, द्वितीय गुरु पिता जमदग्नि, तृतीय गुरू महर्षि चायमान, चतुर्थ गुरु महर्षि विश्वामित्र, पंचम गुरु महर्षि वशिष्ठ, षष्ठ गुरु भगवान् शिव और सप्तम गुरु भगवान् दत्तात्रेय हैं।
उन्होंने त्रेता युग में भगवान राम को विष्णु धनुष दिया, इसी विष्णु धनुष से रावण का उद्धार हुआ।
भगवान् परशुराम (Lord Parashurama) जी ने द्वापर में भगवान् कृष्ण को सुदर्शन चक्र और गीता का ज्ञान दिया। इसका वर्णन महाभारत में है, और कलियुग में होने वाले भगवान् नारायण के कल्कि अवतार को शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा भी भगवान् परशुराम जी (Lord Parashurama) ही देंगे।
उन्होंने पूरे संसार को एक सूत्र में बांधा। संसार के प्रत्येक कौने में उनके चिन्ह मिलते हैं। संसार को श्रीविद्या देने वाले भगवान् परशुराम जी ही हैं। उन्हें यह सूत्र भगवान् दत्तात्रेय से मिला था और उन्हीं के संकेत उन्होंने इसका प्रचार संसार में किया।
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भगवान् परशुराम (Lord Parashurama) जी के शिष्य सुमेधा हैं। जिन्होंने शक्ति उपासना के सूत्र संसार को दिये। भगवान् परशुराम जी ने जब अवतार लिया, नामकरण में उनका नाम “राम” रखा गया। उनकी माता उन्हें अभिराम पुकारती थीं और जब भगवान् शिव ने परशु प्रधान किया तब वे परशुराम (Lord Parashurama) कहलाये।
लैटिन अमेरिका की खुदाई में श्रीयंत्र के आकार जैसा शिल्प मिला। इसका अर्थ है कि भगवान परशुराम (Lord Parashurama) जी द्वारा प्रदत्त श्री विद्या तब वैश्विक हो गयी थी।
उनके मार्गदर्शन में ही यह उद्घोष हुआ कि विश्व को आर्य बनाना है। आर्य अर्थात वह श्रेष्ठ नागरिक। ऐसे नागरिक जो मानवीय गुणों से युक्त हों ऐसी मानवता जिसमें सत्य अहिंसा, परोपकार और क्षमा के गुण हों भगवान् परशुराम जी का यही संदेश लेकर ही वैदिक आर्यो के दल धरती के विभिन्न क्षेत्रों में गये और मानवत्व की स्थापना की।
भगवान् परशुराम (Lord Parashurama) जी संदेश लेकर गये वेदिक आर्यों ने ही रोम की स्थापना की थी। प्राचीन मिश्र का रोमसे साम्राज्य भी राम अर्थात भगवान् परशुराम जी से ही संबंधित था। रोम और रोमन शब्दों की सीधा संबंध “राम” से है।
भगवान परशुराम (Lord Parashurama) जी का जीवन का समूचा अभियान, संस्कार, संगठन, शक्ति और समरसता के लिए समर्पित रहा है। वे हमेशा निर्णायक और नियामक शक्ति रहे। दुष्टों का दमन और सत-पुरूषों को संरक्षण उनके की चरित्र विषेशता है।
भगवान परशुराम (Lord Parashurama) जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को समझने के लिए वे परिस्थितियां जान लेना जरूरी है जिनमें उनका अवतार हुआ। वह वातावरण अराजकता से भरा था।
एक प्रकार से जिसकी लाठी उसकी भैंस जैसा वातावरण समाज और संसार में बन गया था। इसका वर्णन ऋग्वेद से लेकर लगभग प्रत्येक पुराण में है।
ऋग्वेद के चौथे मंडल के 42वें सूत्र की तीसरी ऋचा से संकेत मिलता है कि किसी ’त्रस’ नामक दस्यु ने स्वयं को ’इन्द्र’ और वरूण ही घोषित कर दिया था।
उसने कहा ‘हम ही इन्द्र और वरूण है‘ अपनी महानता के कारण विस्तृत गंभीर तथा श्रेष्ठ रूप वाली धावा-पृथ्वी हम ही है, हम मेघावी है, हम त्वष्टा देवता की तरह समस्त भुवनों को प्रेरित करते हैं तथा धावा-पृथ्वी को धारण करते है।‘
इसी मंडल के इसी सूक्त के चौथी, पांचवी और छठी ऋचा में भी ऐसे ही अहंकार से भरी उद्घोषणाएं हैं। ऋग्वेद के अन्य मंडलों में भी ऐसी अनेक ऋचाएँ हैं।
ऐसे अहंकारी शासकों के कारण ऋषि परंपरा का मान नहीं रह गया था, ऋषियो और सत्पुरुषो की हत्याएं की जा रही थी, आश्रम जलाएं जा रहे थे।
अथर्ववेद में वर्णन आया है कि अनाचार अत्याधिक बढ़ गए थे, उन्होने भृगुवंशियों को विनष्ट कर डाला और बीत हव्य हो गए । तब पूरे संसार में हा-हाकार हो गया था। चारों तरफ ईश्वर से बचाने की प्रार्थना की जाने लगी।
वेदों में ऐसी ऋचाऐं हैं जिनमें इस अनाचार वर्णन है और देवों से सहायता करने का आव्हान भी। जिन देवताओं से सहायता करने के लिये आव्हान किया गया उनमें अग्रिदेव, वरूण, इन्द्र आदि देवी देवताओं से रक्षा करने की प्रार्थना की गई है।
ऋषियों और मनुष्यों पर आए इस संकट को मिटाने के लिए नारायण का यह छठवां अवतार हुआ। इससे पूर्व हुये नारायण के पांचो अवतार आंशिक या आवेश के अवतार माने गए लेकिन परशुराम जी पहला पूर्ण अवतार है। उनका जन्म कुल सुविख्यात भृगुवंश विज्ञान और अध्यात्म के नए- नए अनुसंधानों के लिए जाना जाता है।
अग्नि का अविष्कार भृगु ऋषियों ने किया। (ऋग्वेद 1-127-7)। नारायण की हृदेश्वरी लक्ष्मी महर्षि भृगु की बेटी है। (विष्णु पुराण अध्याय 9 शलोक 141) इसी भृगुवंश में भगवान परशुराम (Lord Parashurama) जी का अवतार हुआ।
उनकी माता देवी रेणुका उन्हें अभिराम कहा करती थी। पिता महर्षि जमदग्नि ने ’भृगुराम’ पुकारा, तो ऋषि कुलों में वे ’भार्गव’ राम कहलाए।
उस कालखंड में मानवीय गुण और संस्कार अपने विकृति की पराकाष्ठा पर पहुँच गये थे। संसार में नरबलि और पशुबलि जैसी कुप्रथाएँ आरंभ हो गयी थीं। भगवान् परशुराम जी ने बाकायदा अभियान चलाकर ऐसी कुप्रथाओं का अंत किया। इससे संबंधित एक प्रतीकात्मक कथा पुराणों में मिलती है।
उसके अनुसार एक आयोजन में बालक शुनःशैप की बलि दी जा रही थी। भगवान परशुराम (Lord Parashurama) जी तब किशोर वय में थे। अपने मित्र विमद और देवी लोम्हार्षिणी के साथ वे यज्ञ स्थल पर पहुंचे।
उन्होंने पहले यज्ञाचार्य से शास्त्रार्थ किया। किसी भी प्राणी की बलि को प्रकृति और परमात्मा के विधान के विपरीत बताया। भगवान् परशुराम (Lord Parashurama) जी ने कहा कि सभी परम् ब्रह्म के अंश हैं, तब एक अंश दूसरे अंश का हंता कैसे हो सकता है।
लेकिन बात नहीं बनीं तब भगवान् परशुराम (Lord Parashurama) जी ने वरूण देव का आव्हान किया।
वरूण प्रकट हुए। उन्होंने नरबलि के निषेध करने की घोषणा की। वरुण देव से स्पष्ट किया कि बलि का देवों से कोई संबंध नहीं यह दैत्यों के अहंकार का प्रतीक है। इससे पूरे संसार को प्राणी मात्र में देवत्व होंने का संदेश मिला।
तार्किक दुष्टि से प्रश्न वरूण के प्रकट होने या न होने का नहीं है। इस कथा से संकेत मिलता है कि अपने किशोर वय से ही परशुराम जी ने समाज की कुप्रथाओं को रोककर एक संस्कारी समाज के निर्माण का अभियान छेड़ दिया था।
उस काल में जितने अराजक और आतंकी तत्व थे वे कोई और नहीं थे। परस्पर संबंधी भी थे। सभी उस परम् पिता परमात्मा की संतान थे जिन्होंने देवों को भी बनाया सभी में उनका अंश है।
लेकिन जब लोग भ्रष्ट हो गये मूल्यों से गिर गये थे और ‘आर्यत्व’ के संस्कारों से दूर हो गये थे। ऐसे सभी तत्वों को ऋषियों ने उनको बहिष्कृत कर दिया था।
अपने बहिष्कार से अपमानित इन राजन्यों ने न केवल ऋषियों और य़क्षों के विरूद्ध अभियान छेड़ दिया बल्कि वे निरंकुश और स्वेच्छाचारी हो भी गए । जिससे संसार में हाहाकार मच गया।
भगवान् परशुराम (Lord Parashurama) जी पहले शास्त्र और समझाईश द्वारा समाज में सात्विकता, समरसता, संस्कार और शांति की स्थापना करना चाहते थे। लेकिन बात नहीं बनीं।
अपने शांत सकारात्मक अभियान को गति देने के भगवान् परशुराम ने विषय ऋषियों के सामने रखा कि तब ऋषियों ने स्पष्ट किया कि ‘राजन्यों को परिष्कार से मार्ग पर लाया जा सकता है।’ जो मार्ग पर न आयें उन्हें दंड का विधान हो। इस विचार को आगे बढ़ाने के लिये ही भगवान् परशुराम (Lord Parashurama) जी ने दोनों स्तर पर कार्य आरंभ किया।
एक ओर धरती के विभिन्न भागों में आश्रम स्थापित किये। ये आश्रम आर्यावृत के अतिरिक्त सहस्त्रबाहु के साम्राज्य ‘आनर्त’ के अंतर्गत सौराष्ट में भी आश्रम स्थापित किया उसे ‘भृगुक्षेत्र’ या ‘भड़ौच’ के रूप में आज भी जाना जाता है।
उन्होंने दासों की मुक्ति, नारी सम्मान और सेवकों को शिक्षा से जोड़ने का काम आरंभ किया और दूसरी ओर सशस्त्र साधना की तैयारी भी।
इससे कुप्रथाओं और अहंकार में डूबे कुछ राजाओं ने सशस्त्र विद्रोह कर दिया और महर्षि वशिष्ठ का आश्रम जला दिया, महर्षि जमदग्नि का वध कर दिया, गायों और ऋषि कन्याओं का हरण किया। तब भगवान् परशुराम (Lord Parashurama) जी ने दुष्टों का धरती से समूल नष्ट करने का संकल्प लिया और सशस्त्र युद्ध आरंभ कर दिया।
उनके नेतृत्व में विजयवाहनी सरस्वती किनारे से आगे बढ़ी। कुरुक्षेत्र होकर पूरे संसार में फैल गई। चुन चुन कर एक एक दुष्ट शासक का अंत किया।
यह महायुद्ध कुल 21 स्थानों पर हुये थे। तब समस्त राजन्य दो भागों में विभाजित हो गये थे एक जो सात्विक थे और भगवान् परशुराम (Lord Parashurama) जी के नेतृत्व में सत्य और धर्म की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहे थे और दूसरे वे जो अपने अंहकार के वश में थे।
एक प्रकार का वह ग्रहयुद्ध जैसा वातावरण था जिसमें भगवान परशुराम जी के नेतृत्व में ऋषि समर्थक समूह विजयी हुआ।
उस भयानक नरसंहार के बाद भगवान परशुराम (Lord Parashurama) जी का व्यवस्था समझने वाली है। उन्होंने समूची धरती को चार भागों में बांटा।
नर्मदा के नीचे आनर्त, नर्मदा से गंगा तक ब्रम्हावर्त, गंगा से अष्वप्रदेश तक आर्यवर्त इससे आगे पर्सवर्त अथवा पारसिक प्रदेश। राजाओं के हाथ से न्याय और दंड व्यवस्था ले ली गई।
नीतिगत निर्णयों में राजपुरोहित का परामर्श अनिवार्य किया गया। इन चारों साम्राज्यों का अधिष्ठाता कश्यप ऋषि को बनाया। यह कश्यप सरोवर ही संभवतया आज का ‘केश्पियन-सी’ है।
पारिवारिक व्यवस्था में परिवार की मुखिया मां होगी। यह व्यवस्था भी परशुराम जी ने लागू की। इसका कारण यह था कि उस भारी नरसंहार के बाद निराश्रित स्त्रियों और बच्चों की समस्या हो गई थी।
भगवान् परशुराम (Lord Parashurama) जी ने ब्रह्मचारियों और समाज के अन्य अविवाहित युवकों से इन स्त्रियों से विवाह की व्यवस्था लागू की और आगे उत्पन्न होने वाली संतान के पालन में कोई भेद न हो इसलिए परिवार का संचालन की प्रमुख माता को बनाया गया।
समाज के प्रत्येक व्यक्ति को, वर्ग को शिक्षा के अवसर दिए गए। ऋग्वेद का नवां और दसवां मंडल भगवान परशुराम (Lord Parashurama) जी के आचार्यत्व में ही तैयार हुआ।
इस मंडल का 110वां सूक्त जहां उनका स्वयं का रचित है वहीं इन दो मंडलों में अनेक सूक्त ऋषि रेणू, पुरूखा, विश्वकर्मा वास्तु, ऋषि धानक, प्रजापति, इन्द्र माताओं, यमी विश्वान के द्वारा रचित हैं।
इसमें ऋषि रेणू देवी रेणुका के पिता थे जो बाद में सन्यास लेकर ऋषि बनें। और महर्षि विश्वामित्र के शिष्यत्व में वेद दृष्टा। पुरूरवा ऐल प्रतिष्ठान के राजा पुरूवा के पुत्र थे।
ऋषि धानक के वंशज ही आज धानुक समाज के रूप में जाने जाते हैं। विश्वकर्मा और प्रजापति के नामों में कोई परिवर्तन नहीं हैं। तब कहां है वर्ग का संघर्ष, कहां है वर्ण का संघर्ष।
वह समाज एक समरस था जिसमें व्यक्ति की मान्यता उसके आचरणों से और प्रजा शक्ति से होती थी, तब तक वर्ण व्यवस्था लागू ही नहीं थी।
वर्ण व्यवस्था पौराणिक काल से आरम्भ हुई जबकि भगवान् परशुराम (Lord Parashurama) जी का अवतार वैदिक है। प्रत्येक व्यक्ति को उसकी प्रतिभा के अनुसार काम का अवसर देने का यह अद्भुत उदहरण है जो आज के लिए भी समयानुकूल है।