महाकवि कालिदास वर्तमान और भविष्य के कवि हैं
कविकुलगुरु कालिदास का नाम लेते ही वृहत्तर भारत की भावभूमि अपने सम्पूर्ण शृंगार के साथ सामने आ खड़ी होती है। वेदोपनिषद्, पुराण, रामायण, महाभारत सहित विपुल साहित्य-सम्पदा के होते हुए भी भारतीय चेतना को तृप्त करने का सामर्थ्य तो केवल कालिदास की कविता में ही है। कालिदास के पास परम्परा से मिला हुआ सब कुछ है, और उसकी महिमा का गान करने का कोई अवसर वे नहीं छोड़ते, फिर भी वे भविष्य में छलाँग भरते हुए विश्व के आधुनिकतम साहित्य में अपनी कविता के लिये पूजा का स्थान बनाये हुए हैं, तो केवल इसलिये कि वे न तो प्राचीन से चिपके रहे, और न ही नये को लेकर किसी तरह के आग्रह से बँधना स्वीकार किया।
कालिदास वाल्मीकि के प्रति कृतज्ञ हैं,और बड़े विनम्रभाव से राम के पावन चरित्र के मूल में प्रवेश करने का साहस दिखाते हैं। दिलीप-सुदक्षिणा, अज-इंदुमती की प्रणयकथाएँ कालिदास की स्फूर्त लेखनी का स्पर्श पाकर ही कालजयी हुईं। ‘रघुवंश’ महाकाव्य न हो, तो यह समझ पाना बड़ा कठिन है कि इतने बड़े-बड़े प्रतापी राजाओं के होते हुए भी वंश रघु के ही नाम से क्यों आगे चला। राम यदि रघुनंदन, राघव, और रघुपति कहलाते हैं तो इसमें रघु का उदात्त और पावन चरित्र ही मुख्य है, और यही बताने के लिये कालिदास ने रघुवंश महाकाव्य का प्रणयन किया। विशाल साम्राज्यों के इतिहास में रघु के साम्राज्य की तुलना में कोई भी नहीं ठहरता। चक्रवर्ती सम्राट् रघु दिग्विजय के लिये निकलते हैं, तो अखंड भारत के चप्पे-चप्पे पर महाराज रघु के पदचिह्न अंकित दिखाई देते हैं। सबको जीत कर भी सबको सर्वस्व लुटाकर अयोध्या के बाहर छोटी सी कुटिया में मिट्टी के दो-चार पात्र और वल्कल के सहारे राज-काज सम्हालने वाला राजर्षि रघु को छोड़ कर दूसरा नहीं हुआ।
कालिदास की कविता में रमने के लिये बड़ा ही खुला हुआ हृदय चाहिए। एकदम बंधनमुक्त, और अपने तर्कजाल को समेट कर उतरना होगा। अकेला कुमारसम्भवम् ही अस्ति का ऐसा महाकाव्य है, जो हिमवान् के घर से उठता है,और तारकासुर के आतंक का समूल नाश करने के लिये मैदान में आने से पूर्व त्रिलोकसुंदरी पार्वती के प्रणयकातर-चित्त और महायोगी शिव की ध्यान-मुद्रा के बीच सेतु बनाता हुआ प्रेम के ऐसे संसार में ले आता है, जो स्त्री-पुरुष के जीवन में आदिकाल से आकर्षण का केन्द्र रहा है। शिव और पार्वती संसार के माता-पिता कहे गये हैं। माता-पिता के प्रणय-प्रसंग और एकांत-रति के मनोरम वर्णन करने का साहस कालिदास के अतिरिक्त और कौन कर सका है। पार्वती के तापस सौन्दर्य और प्रिय को रिझाने के लिये जिस कठोरतम तपस्या का जिक्र कुमारसम्भवम् में है, वह हमारी लोक-संस्कृति में इतना रचा-बसा है कि कभी यह नहीं लगता कि कालिदास हमें अपनी भूमि से कहीं दूर ले आये हैं। पार्वती की तपस्या के आगे शिव खरीदे हुए दास की तरह खड़े दिखाई देते हैं, तो सहज ही नारी के त्याग और समर्पण के वे सारे सूत्र मंगलद्रव्यों की तरह लगने लगते हैं, जिनसे भारतीय समाज के शील की सुरम्य बुनावट हुई।
बड़ा आश्चर्य होता है कभी-कभी कि कालिदास के यहाँ शिव और पार्वती हैं, राम और सीता हैं, किन्तु राधा और कृष्ण नहीं है। दुष्यंत और शकुन्तला को छोड़ कर कोई भी महाभारतकालीन पात्र कालिदास के यहाँ नहीं। ये दोनों भी महाभारत के अंधेरे कोने से उठाये गये पात्र लगते हैं। कालिदास की लेखनी का ही चमत्कार है कि शकुंतला राधा से उन्नीस नहीं लगती। वह निसर्गकन्या के रूप में उन सभी सौन्दर्य-प्रतीकों का मान-मर्दन करती है, जिनसे हमारा पुराना साहित्य और इतिहास भरा पड़ा है। शकुंतला किसी राजदरबार से नहीं आती। वह अनाथ की तरह छोड़ दी गई सन्तति है, और कण्व मुनि के आश्रम में पली है उसी तरह, जिस तरह लता-पादप, मृगछौने और अन्य प्रणियों के समूह पल रहे हैं वहाँ। पूरा का पूरा अभिज्ञानशाकुन्तलम् उस आश्रम में है, जहाँ हस्तिनापुर के राजा को प्रवेश करने से पहले अपने राजसी तामझाम छोड़ने पड़ते हैं। निसर्गकन्या को देखते ही दुष्यंत के मुख से जो शब्द फूटते हैं, वे हैं -‘अये लब्धं नेत्रनिर्वाणम्’। शकुंतला दिखाई देती है अनाघ्रात पुष्प की तरह, अनाविद्ध रत्न की तरह, उस मधु की तरह जिसका स्वाद नहीं चखा गया कभी। आश्रम में राजसी स्वभाव की उच्छृंखलता के जो दुष्परिणाम हुए, कालिदास बहुत सावधानीपूर्वक उनका रूपान्तर करते हैं। पिता कण्व की अनुपस्थिति और अनसूया-प्रियंवदा जैसी निष्पाप सखियों की सरलता के चलते अखंड पुण्यों का फल कहे जाने वाले शकुन्तला के रूप पर न्यौछावर हो कर दुष्यन्त ने जो कदम उठाया, तत्कालीन विवाहशास्त्र में वह विधिसम्मत होते हुए भी कालिदास को ग्राह्य नहीं। कालिदास इसीलिये दुर्वासा के शाप की योजना के साथ दुष्यंत के स्मृतिलोप की कथा रचते हैं, और शकुन्तला को सुरक्षाचक्र के साथ लगभग वहीं पहुँचा देते हैं धरती और आकाश के मध्य दिव्य तपोवन में, जहाँ कभी शकुन्तला उच्चतर चेतना के रूप में जन्मी थी। सर्वदमन भरत का जन्म पार्थिव घटना नहीं है, वह भी कुमारसम्भवम् के स्कन्द की तरह अलौकिक है, किन्तु लोककल्याण के लिये है। इतने बरसों बाद भी अभिज्ञानशाकुन्तलम् अपने लिये पुनर्व्याख्या की अपेक्षा रखता है।
मेघदूत महाकवि की प्रतिभा का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। मन्दाक्रान्ता छंद के साथ-साथ बहता हुआ विरही यक्ष का दु:ख इतना दारुण होकर विश्व साहित्य के सहृदय रसिकों की आँखों से झरने लगेगा, यह तो कालिदास ने भी नहीं सोचा होगा।अभिशाप क्या होता है, और वह अभिशप्त को कितना असहाय और विवश कर देता है, यह तो बस कालिदास के अस्तंगतमहिमा वाले यक्ष से पूछो, या पूछो उस शकुन्तला से जिसने सर्वस्व पा कर भी अभिशाप के दंश को झेला। संवेदनशील
कवि का कोमल हृदय एक वर्ष के लिये कान्ताविरहित किये गये यक्ष के लिये तड़प उठता है। भावनाओं और कल्पनाओं के समीकरण से विप्रलम्भ शृंगार ने मेघदूतम् में जिस शिखर को छुआ है, उस शिखर तक किसी और कवि की दृष्टि भी नहीं पहुँची। कालिदास एक छोटी सी लगने वाली घटना की गहराई में उतर कर अपनी कविता का स्वर ढूँढते हैं। मेघदूतम् में पद-पद पर विरहाकुल हृदय की मार्मिक वेदनाएँ आषाढ की काली घटाओं के साथ हमारे मानस पर छा जाती हैं।
महाकवि कालिदास वर्तमान और भविष्य के कवि हैं। जैसे-जैसे जीवन कठिन होता जा रहा है, संवेदनाएँ अंधेरे में लुप्त होती जा रही हैं, आर्थिक-मानसिक-शारीरिक शोषण की घटनाएँ निरंतर बढ रही है, शासकों के सामने से सब आदर्श हटा लिये गये हैं और भारतीय संस्कृति के ऊपर लगातार खतरा मँडरा रहा है, वैसे-वैसे कालिदास और उनका सरस-मधुर काव्य बार-बार याद आ रहा है।
कालिदास हमारे मनोरंजन के लिये नहीं है, पंडितों की सभा में शुष्क वाद-विवाद के लिये नहीं है। वह हैं तो केवल हमारे अभिज्ञान के लिये, हमारे जीवन-उत्कर्ष के लिये, भारत की दिग्विजय के लिये, ‘सरस्वती श्रुति महती महीयताम्’ के साथ- साथ ‘प्रवर्ततां प्रकृतिहिताय पार्थिव:’ के लिये। कालिदास की कविता ही वह एकमात्र दीपशिखा है, जो भारतीय संस्कृति को बुरी दृष्टि से देखने वालों के मुख विवर्ण करने में समर्थ है।
🍁डाॅ मुरलीधर चाँदनीवाला