महाराष्ट्र डायरी:बीजेपी जितनी कमजोर एकनाथ शिंदे उतने मजबूत

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महाराष्ट्र डायरी:बीजेपी जितनी कमजोर एकनाथ शिंदे उतने मजबूत

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– नवीन कुमार, मुंबई के वरिष्ठ पत्रकार

 

लोकसभा चुनाव में शर्मनाक हार के बाद बीजेपी ने एक बड़ा फैसला लिया है। यह फैसला चौंकाने वाला है और यह भी स्पष्ट होता है कि वह अपने सहयोगी दलों के साथ किस तरह का बर्ताव करती है। इस फैसले में यह है कि अब वह एकनाथ शिंदे और अजित पवार पर दबाव नहीं बनाएगी। मतलब साफ है कि बीजेपी अपने अंगूठे के नीचे दबाकर रखती है। लोकसभा चुनाव के दौरान शिंदे और पवार की दर्दनाक चीखें सबको सुनाई पड़ी थी। महायुति में इन तीनों दलों का पहला संगम था जिससे उन चीखों को ज्यादा तवज्जो नहीं दिया गया था।

अब तो लोकसभा के नतीजों ने सब कुछ बदल दिया है। शायद बीजेपी ने यह महसूस कर लिया है कि अपने सहयोगियों को दबाकर रखने से किस तरह से नुकसान होता है। 23 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली बीजेपी 9 सीटों पर सिमट गई। शिंदे गुट ने 15 सीटों पर चुनाव लड़कर 7 सीटें जीती और महायुति में अपना सबसे बेहतर परफॉर्मेंस साबित किया। पवार एक सीट जीतकर सबसे पीछे रहे। उधर, विपक्षी गठबंधन महा विकास आघाडी (एमवीए) ने 31 सीटों पर जीत हासिल करके राज्य के राजनीतिक समीकरण को ही बदल दिया है। एमवीए का हौसला बुलंद है और उसे राज्य में सत्ता परिवर्तन भी दिख रहा है।

तीन महीने बाद राज्य में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। इसके लिए महायुति और एमवीए दोनों गठबंधन चुनावी तैयारी में लग गए हैं। लेकिन सबसे ज्यादा मुसीबत बीजेपी के सामने है। उसका राजनीतिक जनाधार खिसका है जिससे उसकी चिंता बढ़ गई है। उसके लिए यह चुनाव जीतना बहुत आसान नहीं है। उसे अपने लिए फिर से जनसमर्थन जुटाने के लिए मशक्कत करनी पड़ेगी। एक बात यह भी है कि लोकसभा चुनाव के दौरान बीजेपी ने जिस तरह से शिंदे गुट और पवार गुट को कमजोर साबित करने की कवायद की उसके विपरीत इन दोनों गुटों की ताकत उजागर हो गई। बीजेपी ने अपने अंदरूनी सर्वे का सहारा लिया था और शिंदे गुट के साथ पवार गुट को ऐसा आंका कि वे जीत ही नहीं सकते हैं।

इस सर्वे ने दोनों गुटों का मनोबल तोड़ दिया था। लेकिन शिंदे और पवार ने अपनी तरह से जमीन मजबूत की और महायुति में सबसे बेहतर स्थिति शिंदे गुट की सामने आई। पवार गुट को लेकर आशंका ज्यादा थी। फिर भी उसने एक सीट हासिल कर ली। बीजेपी को ऐसा लग रहा था कि उसने पुरानी शिवसेना (अब उद्धव ठाकरे की शिवसेना) और पुरानी एनसीपी (अब शरद पवार की एनसीपी) को तोड़ दिया है और उसका लाभ उसे मिलेगा। लेकिन बीजेपी कार्यकर्ताओं और समर्थकों की भावनाओं को समझ नहीं पाई जिसका उसे खामियाजा भुगतना पड़ा। महाराष्ट्र की राजनीति में में यह संस्कृति नहीं रही है और लोगों ने अपनी भावना जता दी। अभी विधान परिषद के चार सीटों के लिए चुनाव हुए जिसमें उद्धव गुट ने दो सीटों पर जीत हासिल कर ली और बीजेपी को एक एवं शिंदे गुट को एक सीट मिली। जनता का यह रुख बीजेपी का भविष्य भी जता रहा है।

जनता के फैसले से बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व भी बेचैन है। प्रदेश कोर कमेटी की बैठक में बीजेपी के केंद्रीय नेताओं ने साफ तौर पर कहा कि शिंदे गुट और पवार गुट पर न तो दबाव बनाया जाएगा और न उन्हें परेशान किया जाएगा। उनके साथ समन्वय बनाकर विधानसभा का चुनाव लड़ना है। यह तो तय है कि अगर शिंदे और पवार गुट का सहयोग नहीं मिला तो विधानसभा चुनाव तो क्या बीएमसी चुनाव भी बीजेपी जीत नहीं पाएगी। एक तरह से देखा जाए तो महाराष्ट्र में बीजेपी अपने सियासी दांव पेंच में कमजोर पड़ रही है। अब उसने पैंतरे बदलने शुरू कर दिए हैं। कल तक उसे लग रहा था कि शिंदे गुट और पवार गुट उसके हर तरह के दबाव को झेलने के लिए तैयार रहेंगे। लेकिन अब स्थिति और परिस्थिति दोनों बदल गए हैं।

बीजेपी को महसूस हो रहा है कि शिंदे गुट और पवार गुट के भरोसे ही राज्य में उसका भविष्य टिका हुआ है। विधानसभा चुनाव वह अपने दम पर नहीं जीत सकती है। उसे शिंदे गुट और पवार गुट के बैसाखी की जरूरत है। यह स्थिति इसलिए पैदा हो गई कि लोकसभा चुनाव में बीजेपी से ज्यादा बेहतर परफॉर्मेंस शिंदे गुट का रहा है। शिंदे गुट की तरह पवार गुट दमदार नहीं है। उसे महायुति से बाहर करने के लिए आरएसएस और बीजेपी के कुछ नेताओं का दबाव है। लेकिन बीजेपी की जो स्थिति है उससे अब पवार गुट को भी बाहर निकलने से रोकने की कोशिश हो रही है। पवार गुट का उन क्षेत्रों में प्रभाव है जहां बीजेपी कमजोर पड़ रही है जैसे, पश्चिम महाराष्ट्र और मराठवाड़ा।

शिंदे के नेतृत्व में महायुति ने अपना दो साल का कार्यकाल पूरा कर लिया है। इस दौरान शिंदे का कद बीजेपी से बड़ा दिखने लगा है। इसलिए चर्चा है कि आगामी विधानसभा चुनाव शिंदे के नाम पर ही लड़ा जा सकता है। हालांकि, इसकी अभी तक कोई अधिकृत घोषणा नहीं की गई है। बतौर मुख्यमंत्री शिंदे ने राज्य की जनता से खुद को जोड़ने की कोशिश की जिससे उनकी लोकप्रियता काफी बढ़ी है। लोकसभा चुनाव के नतीजे इसके गवाह हैं। शिंदे के काम करने के तौर-तरीके अलग हैं। कम बोलने वाले शिंदे जनता की समस्याओं को समझते हैं और उसे दूर करने के लिए काम भी करते हैं। उन्होंने मराठा आरक्षण के आंदोलन को अपने तरीके से सुलझाया है। मराठा के लिए 10 फीसदी आरक्षण की शुरुआत की है। लेकिन बीजेपी का इस आंदोलन के प्रति रवैया अलग था जिससे लोकसभा चुनाव में बीजेपी को नुकसान हुआ है। मराठा आंदोलन करने वाले मनोज जरांगे का आरोप है कि बीजेपी ने मराठा और ओबीसी को लड़ने की कोशिश की है।

शिंदे अपनी राजनीतिक सूझबूझ से उस मुकाम को हासिल करने में लगे हैं जिससे उन्हें किसी दबाव में न रहना पड़े। जब वह पुरानी शिवसेना में थे तब भी उन्हें बीजेपी के साथ गठबंधन की राजनीति देखने और समझने का मौका मिला था। इसलिए जब वह बीजेपी के साथ महायुति का हिस्सा बने तो अपनी उसी सूझबूझ से राजनीति करने लगे। अब वह विधानसभा चुनाव में सीटों के बंटवारे में बीजेपी के दबाव में नहीं रहेंगे। उनके गुट के नेता बीजेपी के खिलाफ खुलकर बोल रहे हैं और 100 सीटों की मांग भी कर रहे है। शिंदे गुट का मानना है कि महाराष्ट्र में महायुति को शिंदे ही दोबारा सत्ता दिला सकते हैं। इसलिए मुख्यमंत्री का चेहरा शिंदे ही हैं। यह माना जा रहा है कि मुख्यमंत्री का चेहरा बीजेपी के नेता देवेंद्र फडणवीस या एनसीपी के नेता अजित पवार नहीं होंगे।

अजित पवार ने महायुति सरकार का आखिरी बजट पेश किया तो उसमें शिंदे का चेहरा झलक रहा है। शिंदे ने मुख्यमंत्री माझी लाडकी बहिण योजना शुरू की। इस योजना के तहत गरीब महिलाओं को हर महीने 1500 रुपए मिलेंगे। यह मध्य प्रदेश की तर्ज पर है जिसके सहारे बीजेपी ने सत्ता हासिल की है। वैसे, इस योजना का श्रेय बीजेपी और एनसीपी (पवार गुट) भी लेने की कोशिश कर रही है। लेकिन शिंदे को वाहवाही मिल रही है। यह भी माना जा रहा है कि इस योजना से शिंदे को चुनावी फायदा मिलेगा। गरीब परिवार को तीन मुफ्त सिलेंडर दिए जाएंगे। नाराज किसानों को खुश करने के लिए शिंदे ने बजट में कृषि पंप के लिए मुफ्त में बिजली की भी घोषणा की है। शिंदे के राजनीतिक गुरू आनंद दिघे उर्फ धर्मवीर पर बनी फिल्म धर्मवीर-2 भी 9 अगस्त को रिलीज होने वाली है जिसमें शिंदे का कैरेक्टर राज्य की जनता को आकर्षित करेगा। ये भी उनके सत्ता में वापसी के लिए सहायक साबित हो सकते हैं।