
माखन चोर: मोहन के मत से असहमत मुरली
डाॅ. मुरलीधर चाँदनीवाला
हाल ही में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री जी ने भगवान् श्रीकृष्ण को ‘माखनचोर’ कहने पर आपत्ति दर्ज कराते हुए इस विशेष शब्द को हटाने पर जोर दिया है। यह भी कहा गया है कि संस्कृति विभाग इसके लिये अभियान भी चलायेगा। सामान्य दृष्टि से तो भगवान् को ‘माखनचोर’ कहा जाना शिष्टाचार नहीं है। श्रीकृष्ण की माखनचोरी इतिहास का विषय भी नहीं है’ लेकिन साहित्य की परम्परा कुछ और होती है, इतिहास की परम्परा कुछ और। भारतीय साहित्य में कई जगह मर्यादाएँ टूटी हैं, और समालोचकों ने उन्हें जायज भी ठहराया है। जयदेव के गीतगोविंद में श्रीकृष्ण, और कालिदास के कुमारसम्भव में शिव का चरित्र उकेरते हुए कई सीमाएँ लांघी गई है, लेकिन सूरदास के ‘माखनचोर’ की बात अलग है।
श्रीकृष्ण लीलापुरुषोत्तम हैं। उनकी कई लीलाओं में से बाललीलाओं के जो चित्र जन-मानस पर अंकित हैं, उन्हें मिटाया जाना किसीके वश में नहीं। भागवत पुराण की लोकप्रियता का कारण ही श्रीकृष्ण की बाल-लीलाएँ हैं। सूर के पदों में से श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं को हटा दिया जाये, तो कुछ खास बचता नहीं। सूर के पद स्कूल-कालेज में ही नहीं पढ़ाये जाते, हमारी माताएँ-बहनें भजनों की तर्ज पर गाती हैं। इन सबमें श्रीकृष्ण के ‘माखनचोर’ वाला रूप ही सबको भाता है। आश्चर्य यह, कि सूरदास महाप्रभु वल्लभाचार्य के शिष्य थे। वल्लभाचार्य भी श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं पर ही मुग्ध थे।
सूरदास जी को तो उनका ‘माखनचोर’ वाला रूप इतना मोहित करता है, कि वे उससे बाहर निकल ही नहीं पाते। वे लिखते हैं-
‘उर में माखनचोर गड़े।
अब कैसेहू निकसत नहिं ऊधो! तिरछे ह्वै जु अड़े।’
सूरदास स्थूल आँखों से जो नहीं देख सके, वह उन्होंने भीतर की आँखों से देखा। उसीकी भक्ति की, उसीको ललित पदों में बाँधकर गाया। इतने बरस बीत गये हमें गाते-गाते -‘मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो’। अब ‘माखनचोर’ वाली छबि को कौन हटा सकता है। भागवत पुराण के रस में जिसने भी डुबकियाँ लगाई हैं, वह श्रीकृष्ण की असंख्य बाललीलाओं में ऐसा खोता चला गया कि फिर कभी बाहर नहीं निकल पाया। वे माखनचोर भी हैं, नटनागर भी हैं, गायें भी चराते है, सुदर्शनधारी हैं, गिरधारी भी हैं, जगद्गुरु भी हैं। श्रीकृष्ण अपनी सब भूमिकाओं में सम्पूर्ण आनंद हैं। उनकी इस सम्पूर्णता को कौन भंग कर सकता है?

इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कि सचमुच श्रीकृष्ण माखनचोर थे या नहीं। माखन चोरी तो ठीक, क्या सचमुच वे नहाती हुई गोपियों के वस्त्र भी चुरा लेते थे? क्या सचमुच उनकी सोलह हजार पटरानियाँ थीं? क्या सचमुच उन्होंने गोवर्धन पर्वत को अपनी छोटी उँगली पर उठा लिया था? क्या सचमुच वे उज्जयिनी में विद्याध्ययन के लिये आये थे, और चौसठ दिनों में चौसठ कलाओं में पारंगत हो गये थे। भगवान् की लीलाएँ अनंत हैं, वे तर्क का विषय नहीं। उनका वर्णन लोगों को सुख देता है, उनके चित्त को आराम देता है। यह कुछ कम नहीं है। यह लोकरुचि का खेल है,और इस पर किसी का नियंत्रण नहीं। लोकरुचि अपना रास्ता खुद बनाती हैं।

सरकार यदि ‘माखनचोर’ के विरुद्ध अभियान चलाने पर उतर आये, तो उसे सबसे पहले सूरदास के साहित्य पर प्रतिबंध लगाना होगा। रसखान पर प्रतिबंध लगाना होगा, जहाँ ‘ताहि अहीर की छोहरिया छछिया भर छाछ में नाच नचावे’ में अहीर-बालाएँ छाछ और माखन का लालच देकर कान्हा को नाचने पर विवश कर देती हैं। मंदिरों में गाये जाने वाले भजनों पर कैंची चलानी होगी, भागवत सप्ताह पर कड़ी नजर रखनी होगी, बड़ी-बड़ी पेन्टिंग और मूर्तियों को हमारे सामने से हटाना होगा। अनेक फिल्मी गानों पर रोक लगानी होगी। यह सब न सम्भव है, न लाजमी है।
भगवान् श्रीकृष्ण जैसे भी हैं, लीलामय हैं, आनंदस्वरूप हैं,मोहक हैं। उनका हँसना-रोना, उठना-बैठना, चलना-फिरना, गाना-बजाना, सब कुछ मधुर है। वे मधुराधिपति हैं, उनकी सब लीलाएँ मधुर हैं। ‘मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्।’






