Mamta Kalia : “लिखने की रीति चलती रहे,इससे बड़ा सुख क्या!”

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  Mamta Kalia:”लिखने की रीति चलती रहे,इससे बड़ा सुख क्या!”

                           पोते केशव ने कायम रखी दादा दादी की लेखन परम्परा

ममता कालिया
अगर सुनसान सड़क और उजाड़ रास्ते में आपको KFC और Burger King आमने सामने अपनी चमचमाती दुकान सजाए हुए मिल जाएं तो समझ जाइये आप दिल्ली रोहतक मार्ग, पिलानी के पथ पर हैं जहाँ बिड़ला इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी एंड साइंस में सैंकड़ों तेजस्वी बच्चे शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं।
होस्टल कई भवनों में बंटा हुआ है।हर भवन के फाटक पार एक गुमटी,जहाँ चाय, कॉफ़ी,शीतल पेय और नमकीन वगैरह उपलब्ध हैं।इन्हें गुमटी नहीं रेड़ी कहते हैं।जब हम शाम को पहुँचे केशव कालिया CVR रेड़ी पर तरबूज का रस पी रहा था।और भी छात्र बेंचों पर बैठे थे।सबका पहनावा निक्कर और टीशर्ट ,पैरों में crocs।
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दो साल बाद देखा बच्चे को।और भी दुबला लम्बा और खूबसूरत हो गया है। मेरे कान में कहता है”दादी गोलगप्पे खाने चलोगी?” परिसर के अंदर बाकायदा बाज़ार सजा है जिसे कनॉट कहते हैं।चाट वाला केशव को देख कर हँसता है,”भैया रोज़ आते हैं मेरे ठिकाने।”हम उसके खोमचे की हर चीज़ चखते हैं।गोलगप्पे,पापड़ी चाट, आलू टिक्की। दुकानों में चक्कर लगाते हैं।हर जगह विक्रेता खुशमिजाज़,हँसमुख।इन्हीं विद्यार्थियों पर उनका कारोबार टिका हुआ है।खुली जगह में कुर्सी मेज़ लगी हैं।चाहे जितनी देर बैठो।कोई बंदिश नही।
अनिरुद्ध और प्रज्ञा को थोड़ा असंतोष यह है कि अतिथि गृह में हमें जगह नही मिली।सारे कमरे घिरे हुए हैं।मुझे ज़्यादा अफसोस नही।हमें एक हवेली नुमा होटल में दो कमरे मिल गए हैं।क्या शानदार स्थापत्य है।आगे विशाल पार्किंग।अंदर गोल चिट्टा आंगन।कमरों का पटाव इतना ऊंचा कि हर कमरा शीतल।किवाड़ों की बनावट मन मोह रही है।बेगम अख्तर कानों में गूंज रही है,आओ बलमुआ खोलूं किवड़िया,सारा झगड़ा ख़तम हुई जाए।
अंदर दो पल्लों को बंद करने के लिए सांकल लटक रही है।
इस गली में कई हवेलियां हैं जो सराय या होटल बनी हुई हैं।BITS पिलानी में पढ़ने वाले बच्चों के समृद्ध माता पिता किसी भी दर पर कमरा लेने के इच्छुक हैं।अन्य शहरों में आधुनिकता बिकती है।राजस्थान में प्राचीनता का कारोबार है। फाटकों में जड़े हुए कील और कुंदे याद दिलाते हैं उन वक्तों की जब दुश्मन के हमले इनसे रोके जाते थे।
भूख नही है पर V-Fast अतिथि शाला में भोजन की व्यवस्था है।भोजनशाला की छत पर सुंदर भित्तिचित्र बने हैं।सुस्वादु,स्वच्छ,शाकाहारी खाना।अंत में गुलाबजामुन।मैं केशव से कहती हूँ,’इसमें न गुलाब है न जामुन,फिर भी यह गुलाबजामुन।क्या कमाल है।’
केशव अपनी नोटबुक में खुद की लिखी कहानी मुझे देता है पढ़ने के लिए।में खिल जाती हूँ।लिखने की रीति चलती रहे,इससे बड़ा सुख क्या।कहानी शरारती और संवेदनशील है।इंग्लिश थोड़ी कठिन है।पर केशव की भाषा संपदा बचपन से घनी है।
परिसर में रंगों और रोशनियों की भरमार है।बेग़मबेलिया तूफान मचाये हुई है।हम सरस्वती मंदिर जाते हैं।शाम की आरती हो चुकी है।मंदिर की छत की पच्चीकारी और प्रस्तर का स्थापत्य अपनी शुभ्रता से हमें बांध रहा है।इस शैक्षिक संस्थान की परिकल्पना और प्रबंधन निपुण हाथों में है।कहीं कोई शिथिलता नही।अगले दिन हम केशव को हवेली ले जाना चाहते थे तो कई जगह अन्नू और केशव को हस्ताक्षर करने पड़े।तभी बाहर जाने की अनुमति मिली।
दिन के उजाले में केशव ने मुझे ढेर graffiti पढवाईं जो किसी ने कौतुक में बरामदे में लटका रखी हैं:
I’m not lazy
but I like doing nothing
Why be serious
Zindagi rude hai
Fir bhi ham dude hain.
समय का टोटा था।केशव को पढ़ना था।अन्नू प्रज्ञा की वापसी की उड़ान थी।
लौटते हुए सड़कें सिकुड़ जाती हैं।एक जगह बोर्ड है,कालिया जूस कॉर्नर।एक अन्य ढाबा आता है,भाईचारा फ़ास्ट फ़ूड।
सारे रास्ते भूसे से लदे ट्रक और उनके पीछे लटकी नसैनी दिखीं।पीपली गांव दिखा तो आमिर खान की बनाई फ़िल्म,पीपली लाइव
का गाना मन में बजने लगा,मंहगाई डायन खाये जात है।
{सुप्रसिद्ध कथाकार श्रीमती ममता कालिया की फेसबुक वाल से साभार }