
मराठा आरक्षण: जरांगे जीते या फडणवीस के जाल में उलझे?
अजय बोकिल
महाराष्ट्र में मराठों को OBC श्रेणी में आरक्षण देने की अपनी पुरानी मांग को लेकर मुंबई में पांच दिनों से अनशन कर रहे, मराठा नेता मनोज जरांगे का आंदोलन सोमवार को समाप्त हो गया। कहा गया कि जरांगे सरकार से अपनी मांग मनवाने में सफल रहे। उन्होंने भाजपा की फडणवीस सरकार को झुकने पर मजबूर कर दिया। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा कुछ हुआ है? और जो हुआ है, वो किसकी राजनीतिक जीत है? जरांगे की या राज्य के ‘चाणक्य’ मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस की? दोनो के बीच जो सहमति बनी है, उसकी गहराई से पड़ताल करें तो जरांगे के हाथ सिर्फ मराठों को कुणबी मानकर OBC प्रमाण पत्र देने के संदर्भ में तत्कालीन हैदराबाद रियासत का गजेटियर लागू करने की मांग माने जाने की कामयाबी लगी है। वह भी केवल मराठवाडा क्षेत्र के लिए, जहां से जरांगे आते हैं। यह प्रमाण पत्र भी ग्राम स्तर जाति की सूक्ष्म जांच के बाद दिए जाएंगे। बाकी महाराष्ट्र में यह व्यवस्था लागू करने के बारे में सरकार ने सिर्फ विचार का आश्वासन दिया है। मराठी कहावत ‘दूध की प्यास, छाछ से बुझाने’ के अनुसार भले जरांगे इसे अपनी जीत मानें, लेकिन हकीकत यह है कि सरकार ने उन्हें झुनझुना थमाने के अलावा कुछ नहीं दिया है। कारण साफ है कि किसी भी जाति की श्रेणी बदलना आसान नहीं है और ऐसा करना जानबूझ अंगारों से खेलना है। महाराष्ट्र में फडणवीस सरकार ने दोहरी चाल कर जहां इस अंगारे को हौले से छेड़ भी दिया है और खुद ‘नियमानुसार आरक्षण’ देने की आड़ में मराठा हितैषी साबित करने की कोशिश कर, जरांगे के अब तक के सबसे बड़े आंदोलन की हवा भी निकाल दी है। उधर मराठों को OBC केटेगरी में आरक्षण देने के खिलाफ राज्य के OBC समुदायों ने खम ठोंकना शुरू कर दिया है, जिससे प्रदेश में मराठा- OBC संघर्ष के एक नए दौर में प्रवेश की आशंका बढ़ गई है। इसके अलावा इस समूचे प्रकरण में कोर्ट का भी परोक्ष रूप से इस्तेमाल कर लिया गया है।
वैसे राज्य सरकार ने जरांगे की जो मांगें मानी हैं, उनमें हैदराबाद गजेट लागू करने के अलावा सतारा और औंध रियासत के गजेट्स लागू करने की प्रक्रिया में कानूनी अड़चनें दूर 15 दिनों में दूर करने, आंदोलनकारियों पर दर्ज मुकदमे वापस लेने, आंदोलन में मारे गए लोगों के परिवारों को 15 करोड़ की आर्थिक सहायता और पात्रता अनुसार सरकारी नौकरी, 58 लाख कुणबी रजिस्ट्रेशन ग्राम पंचायत स्तर पर करने तथा मराठा आरक्षण के संदर्भ में पूर्व में गठित वंशावली (शिंदे) समिति का कार्यकाल बढ़ाना शामिल है। यानी सरकार ने जरांगे की कुल 8 में 6 मांगे मानी हैं और वो भी आंशिक रूप से। इसमें भी कई व्यावहारिक पेंच हैं।
पहली नजर में देखें तो जरांगे का आंदोलन मुंबई हाई कोर्ट की सख्ती के बाद समाप्त हुआ ज्यादा प्रतीत होता है। क्योंकि आंदोलनकारियों ने उन सभी शर्तो का उल्लंघन कर आंदोलन जारी रखा था, जिनके आधार पर कोर्ट द्वारा उन्हें मुंबई जैसे अत्यंत व्यस्त शहर के आजाद मैदान में एक दिन के सशर्त आंदोलन की अनुमति दी गई थी। मराठा आरक्षण आंदोलनकारियों में जोश तो था, लेकिन लंबा आंदोलन चलाने के लिए जरूरी रणनीति और तैयारियों की उन्हें न तो समझ दिखी और न ही उसका इंतजाम था। देवेन्द्र फडणवीस सरकार ने भी सीधे पंगा मोल न लेकर जरांगे समर्थकों को आंदोलन करने की इजाजत तो दी, लेकिन उसके प्रति ज्यादा संवेदनशीलता नहीं दिखाई। आंदोलन स्थल पर न तो पानी, खाने अथवा टाॅयलेट आदि का इंतजाम था। जैसी कि आशंका थी कि आंदोलन की अनुमति सिर्फ 5 हजार लोगों की थी, आ गए लाखों मराठे। इससे स्वत: अव्यवस्था फैली। सरकार ने कहा कि आंदोलनकारी कोर्ट के आदेश की भी अवमानना कर रहे हैं। वहां पुलिस का इंतजाम था, लेकिन कार्रवाई के आदेश नहीं थे। सरकार शायद हालात ज्यादा बिगड़ने और फिर सख्ती से दखल देने का इंतजार कर रही थी। उधर हाई कोर्ट भी आंदोलनकारियों की अनुशासनहीनता से नाराज था। आंदोलन के कारण दक्षिण मुंबई में ट्रैफिक जाम के हालात बन गए और हाई कोर्ट जजों को भी पैदल अपने कोर्ट तक जाना पड़ा। गौरतलब है कि हाई कोर्ट की जो दो जजों की बेंच इस मामले की सुनवाई कर रही थी, उनमें दूसरी जज आरती साठे, हाल ही में हाई कोर्ट जज बनी हैं और पूर्व में भाजपा की प्रवक्ता भी रह चुकी है। आंदोलन अनियंत्रित होता देख कोर्ट ने आदेश दिए कि आंदोलन मंगलवार तक हर हाल में खत्म करें अन्यथा कोर्ट को कोई सख्त आदेश देना पड़ेगा। आखिर कोर्ट के दबाव के आगे जरांगे को झुकना ही पड़ा। साथ ही इस बात कर खतरा भी था कि हालात बिगड़े तो आंदोलन जरांगे के काबू से बाहर हो जाएगा।
जरांगे का मराठा आरक्षण आंदोलन भी मूलत: राजनीतिक ही है। क्योंकि उनकी जो मांग है, उसे कोई भी राजनीतिक दल पूरा नहीं कर सकता। वो मराठा को सामान्य वर्ग से OBC में स्थानांतरित कर आरक्षण मांग रहे हैं। उनके आंदोलन को राज्य के शरद पवार जैसे बड़े मराठा नेताओं का परोक्ष समर्थन है। जरांगे की मांगे संविधानिक दृष्टि से कोई भी सरकार मान्य नहीं कर सकती, यह जानते हुए भी कुछ मराठा नेता इसे समर्थन इसलिए देते हैं कि इससे सत्तारूढ़ सरकार परेशानी में आती है। देवेन्द्र फडणवीस इस दांव को बखूबी समझते हैं। इसलिए उन्होंने जरांगे से चर्चा के लिए भाजपा के मराठा नेता व मंत्री राधाकृष्ण विखे पाटिल के नेतृत्व में कैबिनेट सब कमेटी बनाई और उन्हें ही बातचीत के अधिकार दिए। फडणवीस बाहर यही कहते रहे कि मैं मराठाओं को कुणबी OBC श्रेणी में ‘कानून के मुताबिक’ आरक्षण देने का समर्थक हूं। मैने बतौर सीएम अपने पिछले कार्यकाल में इसकी पहल भी की थी, लेकिन बाद की उद्धव ठाकरे सरकार ने उसे आगे नहीं बढ़ाया। साथ ही उन्होंने यह भी कह दिया कि OBC के आरक्षण को तिल भर कम करके किसी दूसरे को आरक्षण नहीं दिया जाएगा। इस तरह फडणवीस एक तीर से दो शिकार कर रहे थे। वो जरांगे को भी खुश कर रहे थे तो राज्य में OBC के मसीहा भी बने हुए थे।
अब सरकार द्वारा राधाकृष्ण विखे पाटिल उप समिति की जरांगे से हुई चर्चा के बाद स्वीकार मांगों को समझें। सरकार ने जरांगे की सिर्फ इतनी मांग मानी है कि पूर्व में हैदराबाद रियासत में जारी गजेटियर के अनुसार मराठवाड़ा क्षेत्र के मराठों को कुणबी मानकर उन्हें OBC प्रमाण पत्र दिया जाएगा, लेकिन वह भी सूक्ष्म जांच के बाद। क्योंकि कौन-सा मराठा सामान्य वर्ग में और कौन सा कुणबी, यह तय करना आसान नहीं है। इसमे कई पेंच हैं। इसका आधार क्या होगा? इसे कैसे साबित किया जा सकेगा? तथा इस पर अगर गंभीर आपत्तियां लगीं तो उनका निराकरण कैसे होगा? मजेदार बात यह है कि वीर शिवाजी पर अभिमान करने वाले मराठे, सरकारी नौकरी में आरक्षण के लिए अब ‘कुणबी’ कहलाने के लिए तैयार हैं, जिन्हें वो जाति व्यवस्था में अपने से कमतर मानते रहे हैं। यूं कुणबी भी स्वयं को क्षत्रिय मानते हैं, लेकिन 96 कुली मराठा अपने को उनसे ऊंचा और शासक क्षत्रिय मानते हैं। नई व्यवस्था से जो नया घालमेल होगा, जिससे राज्य में नए जातीय संघर्ष बढ़ सकता है। दूसरे, मराठे पूरे महाराष्ट्र में फैले हैं, लेकिन जरांगे की मांग केवल आठ जिलों के लिए मानी गई है। दूसरी तरफ फडणवीस के करीबी वरिष्ठ वकील गुणरत्न सदावर्ते ने जरांगे से समझौता होने के तत्काल बाद ऐलान कर दिया कि सामान्य वर्ग में आने वाले मराठाओं को हैदराबाद गजेटियर के अनुसार OBC में स्थानांतरित करने की कोशिश पूरी तरह असंवैधानिक है। इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देंगे। जाहिर है कि सुप्रीम कोर्ट इसके सबूत मांगेगा और मामला फिर टायं-टायं फिस्स हो जाएगा। और सरकार इसकी आड़ में कटघरे में खड़ी होने से बच जाएगी। हालांकि मराठा नेता शरद पवार कह चुके हैं कि यदि सुप्रीम कोर्ट द्वारा देश में लागू पचास प्रतिशत आरक्षण की अधिकतम सीमा को खत्म कर दिया जाए तो राज्य में मराठों को आरक्षण दिया जा सकता है। लेकिन यह बहुत मुश्किल है और केन्द्र सरकार संसद में संविधान संशोधन करे तो ही संभव है। और एक बार ‘जाति श्रेणी परिवर्तन’ का पिटारा खुल गया तो सभी जातियां अपनी सुविधा और स्वार्थ से जाति श्रेणी बदलाव की मांग करने लगेंगी। ऐसे में अराजकता की स्थिति बन सकती है। कोई भी सरकार यह खतरा शायद ही मोल ले।
उधर राज्य OBC समुदाय भी हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठा है। मंत्री छगन भुजबल ने OBC वर्ग की बैठक बुलाकर मुकाबले की तैयारी शुरू कर दी है। OBC जरांगे की चालों को भी देख रहा है और मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस की चाल को भी बूझ रहा है। दरअसल जरांगे की मांग मानने का असर केवल सरकारी नौकरियों में आरक्षण तक सीमित न रहकर दूरगामी होने वाला है। क्योंकि देश में अगले साल होने वाली जाति जनगणना के बाद OBC का राजनीतिक आरक्षण भी होगा। ऐसे में मराठा नेता चुनाव टिकट के लिए OBC सीटों पर दावा ठोंकेंगे, जो OBC कभी नहीं होने देंगे। उनका वाजिब सवाल है जब गरीब मराठा को सरकार ने अनारक्षित वर्ग में 10 फीसदी आरक्षण दे दिया है तो उन्हें फिर कुणबी (जो मूलत: कृषक समुदाय है) में आरक्षण क्यों चाहिए? गौरतलब है कि महाराष्ट्र में मराठा की आबादी 28 से 33 फीसदी तक है, जबकि OBC की जनसंख्या 33 प्रतिशत है। यानी दोनो की आबादी लगभग बराबर है। ऐसे में राजनीतिक संतुलन साधना तार पर चलने की कवायद है, जिसे फडणवीस बड़ी चतुराई से अंजाम दे रहे हैं। जबकि खुद फडणवीस ब्राह्मण हैं।.
खास बात यह भी है कि खुद मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस और उप मुख्यमंत्री तथा मराठा नेता एकनाथ शिंदे और अजीत पवार के खुद को इस चर्चा से दूर रखा। कुल मिलाकर संदेश यही है कि जरांगे, फडणवीस के जाल में उलझ कर रह गए हैं। हालांकि वो अभी भी कह रहे हैं कि मांगे पूरी होने तक उनका आंदोलन जारी रहेगा, लेकिन आगे का रास्ता इतना आसान नहीं है। खतरा राज्य में जातीय टकराव के गंभीर मोड़ लेने का ज्यादा है।





