Memories:आँगन के नीम जैसा कड़वा गुणकारी प्रेमीला बचपन
• डॉ श्रीमती सुमन चौरे
बरबस आँखे भर आईं। ऐसा तो कुछ हुआ नहीं। हाँ हुआ तो है…। आँगन के पार हरे भरे नीम की निम्बोली टपक रहीं हैं। यही पीली, पकी, रसभरी निम्बियां ही तो है, जो हम भाई बहनों के प्रेम पालन की पहचान हैं। पर मुझे तो कभी नही लगता कि, हम भाई बहन आपस में प्रेम करते थे। कैसे लग सकता है, हर घड़ी तो हम लड़ते- झगड़ते रहते थे बचपन में। आज जब मोठा भाई नहीं हैं, तो लगता है, कितना प्रेम था हमारा आपस में।
आँगन के नीम जैसा कड़वा गुणकारी प्रेमीला बचपन। उनकी अनुपस्थिति में एहसास करा रहा है वह प्रेम की। सतत चलती लड़ाई में भी, कहाँ रह पाते थे हम भाई बहन बिना बोले। ये झरती निबोलियाँ बचपन की स्मृतियों को अपने में पकाकर ले आई हैं, सावन की यादें। भाइयों की कलाइयों पर बँधे रंग-बिरंगे डोरों की यादें।
सुबह जागते ही कुएँ पर मुँह धोते-धोते दिन भर का सौदा हो जाता था। मैं कहती, आज हम बिल्कुल नहीं लड़ेंगे। भाई, तू जो कहेगा, वही राखी बाँधूँगी, पर हाँ, तू मोठी बैण (बड़ी बहन) को एक आना भले ही देना, पर मुझको चौकोर दो आना देना, हाँ। मोठा भाई बोलते “हौ बैण, तेरी थाली में टन्न से डाल दूँगा। तू जल्दी उठाना, अपनी नियत बदल जाय तो भरोसा नहीं। हाँ… हाँ… एक बात और सुन, वो मेरे भौंरे की डोर कहीं गुम गई…।““अरे भाई तू चिन्ता क्यों करता है। मैं हूँ ना। मुँह पोछते पोछते भाई पहुँचता, दूध पीने रसोई में, तब तक मैं, दादी या माँ के पेटीकोट की नाड़ी चुपचाप निकालकर भाई के हाथ में थमा देती। भाई खुश। कहता, “जरूर दूँगा दो आना चौकोर वाला और घूमता भौंरा हथेली पर दे दूँगा।
चौकोर दो आने का इंतजार। दादी के आगे-पीछे घूमते घूमते, हम उनसे, पूछते “बताओ राखी बाँधने का चौघड़िया।“
थालियाँ आरती दीपक बिछायत सब तैयार होते होते दोपहर हो जाती। आज दो आने के बदले भाई से बहुत बड़ा फासला रखना होता था। मालूम नहीं, किस बात पर लड़ाई हो जाय और चौकोर दो आना, एक आने या फिर अधन्ने में बदल जाय। दादा, मोठा भाई को बहुत सारे पैसे दे दिया करते थे। कितनी बहनें थीं, घर-परिवार और गाँव रिश्तेदार थे। भाई कहते, “बोरा भर के बहने हैं। सबके नाम ले-लेकर पैसे जमा लेता हूँ।“ भाई सबका नाम ले लेकर ढेरियाँ गिनता। मेरा नाम सबसे बाद में आता। यह तो मुझसे वह बहुत प्रेम करता था, इसलिए या मेरे धीरज की परीक्षा लेता था, कि गर मैं बोली बीच में तो पैसे कट।
भाई को राखी बाँधते- बाँधते भी दो अँगुलियों में इशारा करती। तभी थाली में टन्न से दुवन्नी की आवाज़ आती। बहन भाई के मुँह में लड्डू दे, तब तक भाई गायब हो जाते। भाई दुवन्नी मेरी! बुधवार हाट से फूँदने की दो चोटी लाऊँगी। तब तक भाई कहते, ले बैण इधर आ। चोटी बाद में लाना। एक आना उधार दे दे। दशहरे पर जब मुझे पैसे मिलेंगे तो तुझे वापस दे दूँगा। चल किशना सेठ की दुकान पर तिलस्मी तिजोरी आई है।
एक आने की पर्ची में सब कुछ है, कंघा, आइना, ऐनक, रबड़, पेंसिल, बिंदी, चोटी, घड़ी, कंचा भौंरी। देख एक पर्ची तू निकालना एक मैं निकालूंगा। देख बैण मेरी पर्ची में कंघा निकलना चाहिए, मैंने बजरंग बली से भी कहा है कि, “कंघा निकाल देना, गुड़ फुटाने चढ़ाने आउँगा।“ मैं बोलती “अरे भाई इतने से कंघे के लिए बजरंग बली को क्यों परेशान करता है, ले एक आने की पर्ची मैं खोल दूँगी। पर्ची में कंघा निकला तो तुझे दूँगी।“ भाई ने पर्ची खोली तो चूरण की पुड़िया निकली। भाई दुखी हो गया। मैं दिलासा देते हुए कहती “मत चिन्ता कर, ले मेरी पर्ची में कंघा ही निकलेगा“। और सही में मेरी पर्ची में कंघा ही निकला। उसे मैंने कंघा दे दिया।
भाई को कंघा लेते देर नहीं हुई और मैंने कहा, “भाई जरा कंघा दे मैं भी बाल सँवारूँगी।“ भाई बोला बैण तेरे बाल लम्बे और घने हैं कंघा टूट जायगा। फिर उससे सहमत होते हुए मैंने कहा, “हाँ- हाँ चल तू ही धर ले कंघा, पर बाबूजी से छिपाकर रखना नहीं तो डाँट पड़ेगी।“ बाबूजी का मत था कि आवारा लड़के जेब में कंघा रखते हैं।
भाई मित्रों में खेलने जाता था तो कमीज की जेब में ऊपर से थोड़ा बाहर निकालकर कंघा रखता था। बीच-बीच में दोस्तों को दिखाकर बाल सँवार लेता था। जब घर आता, तो पैजामे की जेब में उसे छिपा लेता। भाई, मैं हिदायत देते कहती, कंघा घर में रखना, भूल से भी स्कूल मत ले जाना। यदि बड़े गुरुजी को ऐसी जानकारी हो गई कि तेरी जेब में कंघा है, तो धुनाई हो जायगी। भाई कहता, “अरे बैण तू चिन्ता मत कर। गुरुजी तो बुधवार हाट के दिन तलाशी लेते हैं।“ हाट से छात्र कंचा, गोटी, कौड़ी, गुल्ली, भौंरा आदि खरीद कर जेब में छिपाकर स्कूल लाते थे।
राखी के अगले दिन गुरूजी ने अकस्मात लड़कों की जेब टटोली। प्रर्थना की पंक्ति से बाहर निकाल कर गुरुजी ने सबके सामने भाई को खड़ा करके कहा,“ये सा’ ब कंघा रखने का शौक फ़रमाते हैं। अशोक कुमार बनेंगे कि राजेन्द्र कुमार, हीरो बनेंगे। “ कंघा अपने पास रखकर गुरुजी ने भाई को शाला के चक्कर दौड़ते हुए लगाने का आदेश दिया। मेरी आँखे डबडबा आईं। मेरे मन में बड़ी वेदना हुई कि, क्यों नहीं मेरी पर्ची में भी चूरण की पुड़िया निकली। मेरे कारण भाई को सज़ा मिली। मुझसे रहा नहीं गया और मैंने गुरुजी से कहा, “गुरूजी कंघा मेरा है, मुझे सज़ा दीजिए।“ गुरुजी बोले, “तू बहन है, भाई को बचाना चाहती है। उससे बहुत प्रेम करती है। इसलिए ऐसा कह रही है।“ मैंने कहा, “ गुरुजी, सच में कंघा मेरा है, भाई की जेब बड़ी है, इसलिए रखने को दिया था।“ भाई ने कहा, “गुरूजी नहीं इसके बाल तो बड़े हैं, कंघा तो मेरा ही है। गुरुजी ने कंघा लौटाते हुए कहा “लगता है, तुम भाई बहन में बहुत प्रेम है। भाई-बहन को ऐसे ही रहना चाहिए…।
राखी के दिन बचपन की ऐसी कितनी ही बातें याद कर हम पेट पकड़-पकड़ कर लोट-पोट हो जाते थे। आज आँखे भर आईं हैं। क्या हम भाई बहन सच में प्रेम करते थे। ऐसा अहसास अब हुआ जब मोठा भाई के बिना पहली राखी आई।
– डॉ. श्रीमती सुमन चौरे,
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