Memories with Raju Srivastava : ‘आता हूं आपके दफ्तर, एडिटर बनकर बहुत मजा आएगा!’

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Memories with Raju Srivastava : ‘आता हूं आपके दफ्तर, एडिटर बनकर बहुत मजा आएगा!’

राजू श्रीवास्तव नहीं रहे, ये बात अब बासी हो गई। लेकिन, उस लोगों का दुःख कम नहीं हुआ जो उन्हें नजदीक से जानते थे या जिन्होंने उनके साथ लम्बा समय बिताया। वे कॉमेडियन थे, यह उनकी पहचान थी। पर, वास्तव में वे बेहद संजीदा इंसान थे। वे कब, कौनसी बात पर कैसी मसखरी वाली बात कर देंगे, कोई अनुमान नहीं लगा सकता था। अक्सर राजू के नाम के साथ लोग कॉमेडियन विशेषण के तौर पर लगा देते हैं। पर, राजू गंभीर कलाकार थे। हास्य ऐसी विधा है, जिसे कर पाना सबसे मुश्किल अभिनय है। हंसाना उनका पेशा था और वे इसमें सिद्धहस्थ भी थे, पर वे जब गंभीर बात करते थे तो उसमें गहरा उतर जाते थे। उनकी नजर में कॉमेडी मतलब सिर्फ लोगों को हंसाना ही नहीं था। वे मानते थे कि कॉमेडी बहुत गंभीर विधा है। लोग आपकी किस बात पर हंसेंगे, इसका अहसास होना बहुत जरुरी है और सबसे बड़ी बात ये कि जब कोई जोक सुनाया जाता है तो कॉमेडियन की भाव भंगिमाएं बहुत मायने रखती हैं। दोनों का तालमेल ही सुनने और देखने वाले को गुदगुदाता है।

मुझे उनसे पहली मुलाकात का दिन याद है, जब वे अपने कॉमेडी वाले टीवी शो के प्रमोशन के सिलसिले में इंदौर आए थे। मुझे भी औपचारिक आमंत्रण मिला, पर मैंने सीधे राजू श्रीवास्तव से फोन पर बातचीत की और उन्हें ‘नईदुनिया’ आने का निमंत्रण दिया। तब मैं ‘नईदुनिया’ में फिल्म और टीवी सेक्शन का इंचार्ज था। मैंने उन्हें फोन पर उन्हें अखबार के सिटी सप्लीमेंट का एक दिन का गेस्ट एडिटर बनने का भी अनुरोध किया। आश्चर्य की बात कि उन्होंने बिना सोचे कहा ‘मैं आता हूँ हेमंत भाई! बहुत मजा आएगा एडिटर बनकर!’ अपने वादे के मुताबिक वे ‘नईदुनिया’ के दफ्तर पहुंचे और अनुराग तागड़े के साथ गंभीरता से काम किया। जब उन्हें लगा कि अखबार के दफ्तर में तीन-चार घंटे लगेंगे, तो उन्होंने चैनल को फोन करके अपना फ्लाइट टिकट भी दोपहर से शाम का करवा लिया था।

उन्हें सिटी सप्लीमेंट का गेस्ट एडिटर बनाया था तो कुछ ख़बरें भी उन्हें दिखाई, उन्होंने बीच-बीच मेंचुटीले कमेंट जुड़वाए! उस दिन उन्होंने अखबार में काम के तरीके को समझा। उन्हें अचरज भी हुआ कि अखबार के पीछे कितने लोगों की कितनी मेहनत लगती है। वे करीब चार घंटे साथ रहे! दफ्तर में हर किसी से मिले और बेहद आत्मीय अंदाज में! बीच-बीच में उनके चुटीले जोक भी लोगों ठहाकों के लिए मजबूर करते रहे। शायद उस दिन दफ्तर में दोपहर में सौ-डेढ़ सौ लोगों से वे मिले और सभी से कुछ न कुछ बात जरूर की! आशय यह कि वे मंच पर ही कॉमेडी नहीं करते थे, वे आशु कवि की तरह आशु कॉमेडियन भी थे जो लोगों से बात करते-करते उनकी ही बातों से व्यंग्य खोज लेते थे।

राजू श्रीवास्तव के बारे में कहा जाता था कि वे परिस्थितियों से कॉमेडी खोजा करते थे। उन्होंने भी बातचीत में ये बात बताई थी कि हर व्यक्ति कहीं न कहीं कॉमेडी करता है, बस उसे उस नजर से देखने की जरूरत होती है। ट्रेनों में तो चारों तरफ कॉमेडी होती है। दरअसल, राजू श्रीवास्तव वे व्यक्ति थे, जो कोलेड़ी की दुनिया में आम आदमी का दुख दर्द लेकर आए थे। वे लोगों को हंसाने में सिद्धहस्त थे। राजू के मंच पर उतरने से पहले तक लोगों को इस बात का अंदाज नहीं था, कि किसी व्यक्ति के चलने फिरने, बोलने और उसके देखने के ढंग को भी कॉमेडी में बदला जा सकता है। यह सब राजू ने किया, फिर उसे दूसरे स्टैंडअप कॉमेडियन से सीखा। राजू ने तो ‘शोले’ जैसी फिल्म में गब्बर सिंह के किरदार में भी कॉमेडी का पुट निकाल लिया था। वे टीवी के न्यूज़ एंकर की भी जबरदस्त मिमिक्री करते थे।

राजू श्रीवास्तव ने अपने मंच पर कई किरदारों को जन्म दिया। उन्हीं में से एक था ‘गजोधर’ जो उनकी पहचान के साथ ही जुड़ गया था। उनकी सबसे बड़ी खूबी थी कि वे निर्जीव वस्तुओं को भी जीवंतता देने में माहिर थे। वे उसके आसपास कुदरती माहौल बनाकर उसमें हास्य पैदा कर देते थे। राजू का एक टीवी रिपोर्टर से इंटरव्यू लेना भी काफी चर्चित हुआ, जो बम नहीं फटने से जीवित बच जाता है। उसकी एक लाइन थी ‘मैं बम हूं, मैं फटूं!’ इस सामान्य सी लाइन को राजू जिस तरह कहते थे, वो कभी भुलाया नहीं जा सकता। शादी में लोगों के खाना खाते समय प्लेट में खाने के आइटमों की आपस में बातचीत करने वाला उनका जोक भी काफी चर्चित हुआ।

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राजू श्रीवास्तव से मेरी आखिरी मुलाक़ात 2019 में मुंबई में तब हुई, जब उन्हें उत्तरप्रदेश सरकार ने ‘यूपी फिल्म विकास परिषद्’ का अध्यक्ष बनाया था। मुंबई में रहने वाले उत्तर भारतीयों ने इस उपलब्धि पर उनके सम्मान में एक कार्यक्रम रखा था। राजू और मेरे कॉमन फ्रेंड उद्योगपति, समाजसेवी राम जवाहरानी मुझे उस कार्यक्रम में अपने साथ ले गए थे। बांद्रा के एक कॉलेज का हॉल खचाखच भरा था! पर, राजू की ही खासियत थी, कि उन्होंने मंच से उतरकर एक-एक से हाथ मिलाया और पुरबिया में बात की। पलटकर वापस आए तो आगे की लाइन में जब उनकी नजर मुझ पर पड़ी तो उनका जो अंदाज था, वो आज भी नजरों में बसा है! जोर से ताली बजाकर आधे झुककर जोर से बोले ‘अरे हेमंत भैया … जे बात हुई, बहुतई मजा आ गया!’ कार्यक्रम के बाद उनसे फिर बहुत देर बात हुई! इंदौर आने की बात पर बोला था ‘आता हूँ भैया, आपके साथ 2-3 दिन रहकर मजे करेंगे!’ लेकिन, उनका वो वादा पूरा नहीं हुआ! बुधवार सुबह जब उनके निधन की जानकारी मिली, तो वो सारे दृश्य आंखों के सामने से गुजर गए, जो उनके साथ बिताए थे! तत्काल फोन उठाया और उनका मोबाइल नंबर हमेशा के लिए डिलीट कर दिया! क्योंकि, अब ये नंबर मेरे लिए अनजान जो है।

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Hemant pal
हेमंत पाल

चार दशक से हिंदी पत्रकारिता से जुड़े हेमंत पाल ने देश के सभी प्रतिष्ठित अख़बारों और पत्रिकाओं में कई विषयों पर अपनी लेखनी चलाई। लेकिन, राजनीति और फिल्म पर लेखन उनके प्रिय विषय हैं। दो दशक से ज्यादा समय तक 'नईदुनिया' में पत्रकारिता की, लम्बे समय तक 'चुनाव डेस्क' के प्रभारी रहे। वे 'जनसत्ता' (मुंबई) में भी रहे और सभी संस्करणों के लिए फिल्म/टीवी पेज के प्रभारी के रूप में काम किया। फ़िलहाल 'सुबह सवेरे' इंदौर संस्करण के स्थानीय संपादक हैं।

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