
‘मोहन ज्ञान’ ही ‘भारत का भाव’ है…
कौशल किशोर चतुर्वेदी
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने यह संकेत दे दिया है कि ‘सनातन’, ‘हिंदुत्व’ के नाम पर देश की ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ संस्कृति को ठेंगा दिखाने का चलन अब खत्म होना चाहिए। मस्जिदों में मंदिर ढूंढने की मुहिम को अब विराम देना चाहिए। अयोध्या आस्था का केंद्र था, वहां तक सब ठीक था। पर अब गली-गली की मस्जिद में मंदिर ढूढने का मिजाज ठीक नहीं है। इसे नेता बनने की फैक्ट्री समझकर धर्म के ठेकेदार बनना राष्ट्रहित में नहीं है। तो दूसरी तरफ यह भी साफ कर दिया है कि “इस देश की परंपरा ही ऐसी है कि बस आपस में अच्छे से रहो नियम-कानून मानकर चलते रहो। इसलिए इस वर्चस्ववाद,कट्टरवाद को भूलकर हम सबको भारत की समावेशी संस्कृति के तहत एकजुट हो जाना चाहिए…जो डराते हैं उनको डर लगे, इतना सशक्त हो जाओ…पर किसी को डराओ मत।”
ऐसा नहीं है कि भागवत ने केवल पूरे देश के भाजपा नेताओं को आइना दिखाया है। बल्कि उन्होंने भारत की उस समावेशी संस्कृति का हवाला दिया है, जिसमें औरंगजेबी मानसिकता की कोई जगह नहीं है। पर बराबरी के भाव में पारस्परिक सम्मान का पूरा स्थान है। तो उनकी दृष्टि साफ है कि मंदिर-मस्जिद का खेल अब खतरनाक साबित हो सकता है। समय रहते एक-दूसरे को गले लगाने की अकलमंदी नहीं दिखाई तो भविष्य सबक सिखाने से नहीं चूकेगा। मोदी-शाह-योगी अपनी जगह ठीक हैं, पर हर छुटभैया नेता मंदिर-मस्जिद के नाम पर मोदी-शाह-योगी बनने की दुस्साहस करना बंद कर दे। वैसे भी ‘चार सौ पार’ की दुर्दशा ने अलार्म बजा दिया है, अब भी नहीं ‘संभल’ सके तो 2029 में स्थितियां खौफनाक बन सकती हैं। और तब फिर सब कुछ काबू से बाहर हो जाएगा। अभी तक 10 साल 7 माह के मोदी काल में जो हुआ सो हुआ, पर अब मंदिर-मस्जिद के रोज़ नए विवाद निकालकर कोई नेता बनना चाहता है तो ऐसा नहीं होना चाहिए। अब समय आ गया है कि हमें दुनिया को दिखाना है कि हम एक साथ रह सकते हैं।
भागवत ने कहा, “हमारे यहां हमारी ही बातें सही, बाक़ी सब ग़लत, यह चलेगा नहीं… अलग-अलग मुद्दे रहे तब भी हम सब मिलजुल कर रहेंगे। हमारी वजह से दूसरों को तकलीफ़ न हो इस बात का ख्याल रखेंगे। जितनी श्रद्धा मेरी मेरी ख़ुद की बातों में है, उतनी श्रद्धा मेरी दूसरों की बातों में भी रहनी चाहिए। यही तो पारस्परिक सम्मान का भारत का भाव है।भागवत ने उदाहरण भी दिया कि रामकृष्ण मिशन में आज भी 25 दिसंबर को बड़ा दिन मनाते हैं, क्योंकि यह हम कर सकते हैं, क्योंकि हम हिंदू हैं और हम दुनिया में सब के साथ मिलजुल कर रह रहे हैं। यह सौहार्द्र अगर दुनिया को चाहिए तो उन्हें अपने देश में यह मॉडल लाना होगा। यानि जिस ‘भारतीय संस्कृति के मॉडल’ का रंग भद्दा हो चला था, उसे अब फिर चमकदार बनाने की मोहन की कोशिश सराहनीय है और सत्ता में बने रहने की भाजपा की मंशा के अनुकूल भी है।’
जिस तरह बाबा साहेब अंबेडकर और संविधान की इन दिनों चर्चा आम हो गई है। तो मोहन भागवत ने कहा कि अभी अपना देश संविधान के मुताबिक़ चलता है। यहां पर किसी का राज नहीं रहता। जनता अपना प्रतिनिधि चुनती है। जो चुनकर आएगा, वह शासन चलाएगा। शासन जनता का होता है। तो फिर स्थिति साफ करते हुए नसीहत दी कि “अब वर्चस्व का ज़माना गया ख़त्म हो गया है। आपको यह बात समझनी चाहिए और यह सब पुरानी लड़ाइयां है इन लड़ाइयां को भूलकर हमें सबको संभालना चाहिए।” भारत में सभी को एक साथ रहना चाहिए और यही भारत की संस्कृति सिखाती है।
पर औरंगजेबी भाव बर्दाश्त नहीं होगा। भारतीय संस्कृति में समय-समय पर अवरोध पैदा किए गए। आख़िरी बार औरंगज़ेब ने यह अवरोध पैदा किया था। उसके बाद फिर एक बार कट्टरवाद का राज आया। भागवत ने कहा कि साल 1857 में दिल्ली के बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र ने जब गौ हत्या बंदी का आदेश निकाला और दावा किया कि उस वक़्त एक मौलवी और एक संत के प्रयासों के बाद तय हुआ था कि राम मंदिर हिंदुओं को देंगे। पर अंग्रेजों के बांटो और राज करो के एजेंडे की वजह से यह संभव नहीं हो पाया। इसके जरिए मोहन भागवत वर्तमान केंद्र सरकार को गौवध पर रोक की दिशा में कदम बढ़ाने का संकेत भी दे रहे हैं।
संघ प्रमुख ने कहा, “आज़ाद भारत में हम सबको भारत में रहना है, ऐसा सब ने कहा तो फिर अब यह अलग-अलग बातें क्यों होती हैं। यहां वर्चस्व की भाषा क्यों होती है। कौन अल्पसंख्यक और कौन बहुसंख्यक सब एक जैसे ही हैं।” मोहन का यह भाव समान नागरिक संहिता और जनसंख्या नियंत्रण कानून जैसे मुद्दों पर अपना समर्थन भी जाहिर करता है।
वास्तव में मोहन ने जो कहा है, वही वक्त की जरूरत है और वही भारत की जरूरत है। हिंदू-मुसलमान को अलग-अलग नजरिए से देखने की राजनीति का विरोध भी उनकी आवाज में है, तो कट्टरता को भी कोई जगह नहीं है। मंदिर-मस्जिद के नाम पर नेतागिरी पर विराम लगाने की नसीहत भी है। वास्तव में अब मोहन भागवत की राय 21वीं सदी में भारत को विश्व गुरु बनाने की राह है। समावेशी संस्कृति का यह ‘मोहन ज्ञान’ ही ‘भारत का भाव’ है…और यही सनातन और हिंदुत्व का भाव भी है।





