“चलें, सीखें, खोजें – एक बेहतर दुनिया के लिए साथ-साथ”…

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“चलें, सीखें, खोजें – एक बेहतर दुनिया के लिए साथ-साथ”…

23 जून का दिन बड़ी-बड़ी घटनाओं का गवाह है। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, संजय गांधी के अवसान 23 जून को ही हुआ था। तो अंतर्राष्ट्रीय ओलंपिक दिवस का आयोजन भी 23 जून को ही होता है। देश-दुनिया की ऐसी महत्वपूर्ण बातों पर चर्चा कर हम आज ज्ञानवर्धन करते हैं।
दरअसल 1947 में स्टॉकहोम में अंतर्राष्ट्रीय ओलंपिक समिति के 41वें सत्र के दौरान, चेकोस्लोवाकिया में आईओसी सदस्य डॉक्टर ग्रुस ने विश्व ओलंपिक दिवस समारोह पर एक रिपोर्ट प्रस्तुत की, जो मुख्य रूप से ओलंपिक विचार को बढ़ावा देने का दिन था। इस परियोजना को कुछ महीने बाद जनवरी 1948 में सेंट मोरित्ज़ में 42वें आईओसी सत्र के अवसर पर अपनाया गया। राष्ट्रीय ओलंपिक समितियों को इस आयोजन के आयोजन का प्रभार सौंपा गया और उनसे 17 से 24 जून के बीच की तारीख चुनने का अनुरोध किया गया, जिससे 23 जून 1894 को पेरिस के सोरबोन में अंतर्राष्ट्रीय ओलंपिक समिति की स्थापना का जश्न मनाया जा सके, जहाँ पियरे डी कुबर्टिन ने ओलंपिक खेलों को पुनर्जीवित किया था। इसके बाद ही पहला ओलंपिक दिवस 23 जून 1948 को मनाया गया था। इस अवसर पर, उस समय आईओसी के अध्यक्ष सिगफ्रीड एडस्ट्रॉम ने दुनिया के युवाओं को एक संदेश दिया। पुर्तगाल, ग्रीस, ऑस्ट्रिया, कनाडा, स्विटजरलैंड, ग्रेट ब्रिटेन, उरुग्वे, वेनेजुएला और बेल्जियम ने अपने-अपने देशों में ओलंपिक दिवस का आयोजन किया। ओलंपिक चार्टर के 1978 संस्करण में , आईओसी ने पहली बार सिफारिश की थी कि सभी एनओसी ओलंपिक आंदोलन को बढ़ावा देने के लिए ओलंपिक दिवस का आयोजन करें: “यह अनुशंसा की जाती है कि एनओसी नियमित रूप से (यदि संभव हो तो प्रत्येक वर्ष) ओलंपिक आंदोलन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से ओलंपिक दिवस का आयोजन करें।” ओलंपिक दिवस रन को ओलंपिक दिवस की मुख्य गतिविधि माना जा सकता है। पहली बार 1987 में शुरू की गई इस दौड़ का आयोजन ओलंपिक दिवस मनाने और सामूहिक खेल के अभ्यास को बढ़ावा देने के लिए एनओसी  द्वारा किया जाता रहा है। 1987 में पहले संस्करण में 45 प्रतिभागी एनओसी से बढ़कर अब 200 से ज़्यादा प्रतिभागी एनओसी हो गए हैं। आज ओलंपिक दिवस एक दौड़ या सिर्फ़ एक खेल आयोजन से कहीं ज़्यादा विकसित हो रहा है। “चलें, सीखें, खोजें – एक बेहतर दुनिया के लिए साथ-साथ” के स्तंभों पर आधारित, एनओसी सभी के लिए खेल, सांस्कृतिक और शैक्षिक गतिविधियाँ आयोजित करते हैं – चाहे उनकी उम्र, लिंग, सामाजिक पृष्ठभूमि या खेल क्षमता कुछ भी हो। थॉमस बाख का यह कथन सर्वप्रासंगिक है कि ‘खेल हमेशा पुल का निर्माण करते हैं और लोगों को शांति और एकजुटता में एक साथ लाते हैं। इस ओलंपिक दिवस पर, कृपया हमारे साथ जुड़ें क्योंकि हम दुनिया भर के सभी लोगों से आह्वान करते हैं: शांति को एक मौका दें।’
मेरे पुत्र की मृत्यु भारत माता के पुत्र की मृत्यु हैं…
जुलाई 1901 को कोलकाता के संभ्रांत बंगाली परिवार में जन्मे डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी केवल 33 साल की उम्र में कोलकाता यूनिवर्सिटी के कुलपति बन गए। वहां से वे कोलकाता विधानसभा पहुंचे और उनका राजनैतिक करियर शुरू हुआ। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें अपनी अंतरिम सरकार में मंत्री पद दिया लेकिन थोड़े समय बाद ही मुखर्जी ने कश्मीर के मुद्दे पर नेहरू पर तुष्टिकरण का आरोप लगाते हुए 6 अप्रैल 1950 को मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। वे चाहते थे कि कश्मीर में प्रवेश के लिए किसी इजाजत की जरूरत नहीं पड़े। उन्होंने साफ कहा- एक देश में दो निशान, दो विधान और दो प्रधान नहीं चलेंगे। इसी का विरोध करते हुए डॉ. मुखर्जी कश्मीर जाकर लोगों तक अपनी बात पहुंचाना चाहते थे। 8 मई 1953 को वे दिल्ली से कश्मीर जाने के लिए निकल पड़े। 11 मई 1953 को कश्मीर में प्रवेश करते दो सहयोगियों के साथ उन्हें शेख अब्दुल्ला की तत्कालीन सरकार ने गिरफ्तार कर लिया। उन्हें पहले श्रीनगर सेंट्रल जेल भेजा गया और बाद में शहर के बाहर बने एक कॉटेज में ट्रांसफर किया गया। एक महीने से ज्यादा समय तक कैद रखे गए मुखर्जी की सेहत लगातार बिगड़ रही थी। 19 व 20 जून की रात उन्हें प्लूराइटिस होना पाया गया, जो उन्हें 1937 और 1944 में भी हो चुका था। डॉक्टर अली मोहम्मद ने उन्हें स्ट्रेप्टोमाइसिन का इंजेक्शन दिया था। हालांकि मुखर्जी ने डॉ. अली को बताया था कि उनके फैमिली डॉक्टर के मुताबिक ये दवा उनके शरीर को सूट नहीं करती थी, फिर भी अली ने उन्हें भरोसा दिला कर ये इंजेक्शन दिया था। 22 जून को मुखर्जी को सांस लेने में तकलीफ महूसस हुई। अस्पताल में शिफ्ट किए जाने पर उन्हें हार्ट अटैक होना पाया गया। राज्य सरकार ने घोषणा की कि 23 जून की अलसुबह 3:40 बजे दिल के दौरे से मुखर्जी का निधन हो गया। अपने बेटे के मृत्यु की खबर सुनने के बाद डॉ. मुखर्जी की मां योगमाया देवी ने कहा था- ‘मेरे पुत्र की मृत्यु भारत माता के पुत्र की मृत्यु है।’ आज भारतीय जनसंघ के संस्थापक और अध्यक्ष डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी की इच्छा के मुताबिक  जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 हट चुकी है। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इसी मकसद को हासिल करने की कोशिश में प्राणों की आहुति दी थी। डॉ. मुखर्जी अब यादों में जिंदा हैं।
लोग तो आते-जाते रहते हैं, पर राष्ट्र सदैव जीवंत रहता हैं…
संजय गांधी (14 दिसम्बर 1946 – 23 जून 1980) भारत के एक राजनेता थे। वे भारत की प्रधानमंत्री रहीं इन्दिरा गांधी के छोटे पुत्र थे। मेनका गांधी उनकी पत्नी हैं और वरुण गांधी उनके पुत्र। भारत में आपातकाल के समय उनकी भूमिका बहुत विवादास्पद रही। अल्पायु में ही 23 जून 1980 को एक हवाईजहाज दुर्घटना में उनकी मौत हो गयी।मेनका गांधी अपनी किताब ‘संजय गांधी’ में लिखती हैं कि संजय को रोज सुबह 6 से 10 बजे तक दिल्ली फ्लाइंग क्लब में समय बिताना पसंद था। वो वहां 16-17 साल के लड़कों को विमान उड़ाना सिखाया करते थे। इन लड़कों में मेरा भाई भी हुआ करता था। मेनका लिखती हैं कि 23 जून 1980 को संजय उस विमान में उड़ने के लिए सुबह साढ़े सात बजे सफदरजंग एयरपोर्ट के लिए निकले थे। उस दिन ‘पिट्स एस-4ए’ में माधवराव सिंधिया संजय के साथ उड़ान भरने वाले थे, लेकिन वो एयरपोर्ट के पास रहने वाले कैप्टन सुभाष सक्सेना के घर पहुंचे। थोड़ी देर बाद दोनों ने उड़ान भरी और कुछ देर बाद हवा में कलाबाजियां करते हुए विमान क्रैश हो गया। संजय और सुभाष दोनों की इस हादसे में मौत हो गई। बेटे की मौत के 72 घंटे बाद इंदिरा पार्टी के नेताओं के साथ कार्यालय में बैठी थीं। संजय का नाम आया तो रो पड़ीं। यह पहली बार था जब इंदिरा के आंसू लोगों के सामने नजर आए। उन्होंने किसी तरह खुद को संभाला। 27 जून को जब वे अपने दफ्तर पहुंचीं तो उन्होंने कहा था, ‘लोग तो आते-जाते रहते हैं, पर राष्ट्र सदैव जीवंत रहता है।’
तो 23 जून की इन तीन बातों का जिक्र इतिहास में हमेशा जिंदा रहेगा। अंतर्राष्ट्रीय ओलंपिक दिवस एक बेहतर दुनिया के लिए साथ-साथ चलने का आग्रह करता रहेगा। तो डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जिक्र भारत के देशभक्त राजनेता संग जम्मू-कश्मीर के साथ हमेशा होता रहेगा। तो संजय गांधी भी भारतीय राजनीति में हमेशा चर्चित नामों में शुमार रहेंगे।