फिल्म समीक्षा : गंगूबाई काठियावाड़ी

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संजय लीला भंसाली ने मुंबई के कमाठीपुरा के पिंजरों को जिस तरह से आलीशान हवेलियों की तरह प्रस्तुत किया है और एक गुमनाम सी कोठे वाली को महिलाओं के कल्याण के लिए काम करने वाली अद्भुत महिला के रूप में बताने की कोशिश की है, वह अविश्वसनीय और हास्यास्पद लगती है। इस फिल्म में अगर कोई हीरो है, तो वह संजय लीला भंसाली का निर्देशन ही है। आलिया भट्‌ट ने शानदार अभिनय किया है और पल-पल चेहरे के भावों को बदलकर उसने बता दिया है कि वह अभिनय में किसी से कम नहीं है और अपने अकेले के बूते पर पूरी फिल्म को खींच ले जाने का मादा रखती हैं।

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आलिया का अभिनय और संजय लीला भंसाली का निर्देशन प्रभावित करता है। अजय देवगन करीम लाला की पैरोडी रहीम लाला बनकर रह गए और उन्हें भी महान से महानतम दिखाने की कोशिश की गई है। प्रकाश कपाड़िया और उत्कर्षिनी वशिष्ट के दमदार संवाद है। कुछ तो फिल्म के विज्ञापन और प्रोमो में ही है और कुछ ऐसे है, जो दर्शकों को याद रह जाते है।

– चकले के पास स्कूल होने से बच्चों पर बुरा असर पड़ता है, तो स्कूल पास होने का अच्छा असर चकलों पर क्यों नहीं होता?

– जिसके पास पूरा आसमान हो, वह चूहे के बिल के लिए समझौता नहीं करता।

– जिस काम के पैसे मिलते हो, वह काम फोकट में क्यों करना?

– इलेक्शन में भरोसा नहीं, पैसा चलता है।

– चड्‌डी में रह, पतलून मत बन।

– कुमारी किसी ने छोड़ा नहीं और श्रीमती किसी ने बनने नहीं दिया।

– कैसा सफेद : चांद जैसा, बादल जैसा, दूध जैसा, गुलाब जैसा, नमक जैसा, धुएं जैसा या हंस जैसा (सफेद साड़ी पहनने वाली गंगूबाई के बारे में)।

– पैर नहीं फैलाएगी, तो हाथ फैलाएगी।

हद तो यह हो गई जब एक वेश्या के निधन पर अंतिम संस्कार के लिए ले जाते वक्त गंगुबाई कहती है कि इसके दोनों पैर कसके बांध देना।

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संजय लीला भंसाली ने आम बंबइयां फिल्मों की तरह इस फिल्म में भी सारी परेशानी की जड़ राजनीति को ही बताया है। यह भी बताने की कोशिश की कि राजनीति में आते ही गंगुबाई उर्फ गंगा कितनी धूर्त हो गई। कोठे पर बिकने वाली नाबालिग गुजराती लड़की देखते ही देखते अंडरवर्ल्ड सरगना से बहन का नाता बना लेती है। पुलिस वालों को जमकर रिश्वत खिलाती हैं। दूसरे कोठे वालों से आगे बढ़ने के लिए पुलिस, मीडिया, नेता सभी को अपनी सीढ़ी बनाती हैं और अंत में तत्कालीन प्रधानमंत्री से मिलने के लिए 15 मिनट का समय भी पा लेती हैं। प्रधानमंत्री उसकी बात तो नहीं मानते, लेकिन अपने कोट का गुलाब उसे जरूर दे देते हैं। जवाब में वह कहती है कि हमारे कमाठीपुरा में भी गुलाबों के बगीचे हैं, लेकिन काले गुलाब के।

 

संजय लीला भंसाली ने चौदहवीं का चांद फिल्म के पोस्टर का और एक फिल्मी गीत हमें तो लूट लिया मिलके हुस्न वालों ने का उपयोग प्रभावी तरीके से किया है। आलिया भट्‌ट के गाल पर गोदना हो या उसका सोने का दांत, आलिया की सफेद साड़ी हो या ढीला ब्लाउज। हर जगह निर्देशक की छाप फिल्म में नजर आती है। फिल्म में आलिया को मुगदर घुमाते हुए भी दिखाया गया है और रोमांटिक सीन करते हुए भी।

यह बात आसानी से हजम नहीं होती कि आलिया जैसी दुबली-पतली लड़की कोठे वाली मौसी की तरह बन जाती है। आलिया के सिर पर विग साफ नजर आता है। विजय राज फिजूल ही खर्च हो गए, जिन्होंने एक कोठे वाली वृहनल्ला की विभत्स भूमिका निभाई हैं। फिल्म का प्रधानमंत्री कहीं से भी जवाहरलाल नेहरू नहीं लगता। कोट में गुलाब टांकने से अगर कोई जवाहरलाल नेहरू बन जाता, तो भारत में हजारों जवाहरलाल हो जाते। फिल्म में उर्दू पत्रकार आलिया का इंटरव्यू करता है और वह इंटरव्य प्रकाशित होता है एक अंग्रेजी की ग्लेज्ड पत्रिका में। उन दिनों ग्लेज्ड पत्रिकाएं कम ही होती थी।

गंगुबाई की जद्दोजहद यही रहती है कि वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता प्रदान की जाए। वह 4000 वेश्याओं की प्रतिनिधि रहती हैं, लेकिन उसे इस तरह दिखाया गया है, मानो वह कोई मुख्यमंत्री हो। भंसाली जी जो न करें कम है।

गंगूबाई फिल्म पूरी तरह से अति की शिकार हो गई है। बहुत दिनों से सिनेमा घरों और मल्टीप्लेक्स में सन्नाटा है। गंगुबाई उस सन्नाटे को तोड़ने में शायद सफल होगी। कुल मिलाकर झेलनीय