भोपाल:
प्रदेश में इस बार कम मतदान और मतदाता पचियों के वितरण नहीं हो पाने और मतदाता सूचियों में गड़बड़ियों को लेकर सियासी बवाल मचा हुआ है। सत्तारुढ़ दल और विपक्षी दल कांग्रेस दोनो ही लोकतंत्र के इस उत्सव में सभी मतदाताओं की भागीदारी सुनिश्चित नहीं किए जाने से नाराज है और चुनाव आयोग को भी इसकी शिकायत की गई है।
जीत-हार की संभावनाओं के बीच राजनीतिक दल अपने गणित के हिसाब से शिकायतें कर रहे है। इस पूरे चुनाव की मानीटरिंग के लिए जिम्मेदार राज्य निर्वाचन आयोग इसे कलेक्टरों के स्तर की कमियां बताते हुए खुद इससे पल्ला झाड़ रहा है। ऐसे में आधा दर्जन जिलों के कलेक्टरों पर गड़बड़ियों का ठीकरा फोड़ने की तैयारी है.
निकाय और पंचायत चुनाव में इस बार लाखों मतदाताओं के नाम मतदाता सूची में नहीं जुड़ पाए। राजधानी भोपाल की ही बात करें तो भोपाल में विधानसभा चुनाव की मतदाता सूची और निकाय तथा पंचायत चुनाव की मतदाता सूची में डेढ़ लाख मतदाता घट गए। इसी तरह की कमियां अन्य जिलों में भी मिली। एक ही परिवार के मतदाताओं के नाम एक से अधिक मतदान केन्द्रों में बांट दिए गए मतदान केन्द्र अचानक बदल दिए गए और इसकी सूचना मतदाताओं को इसलिए नहीं मिल पाई। क्योंकि मतदाता पर्चियां भी चुनाव से पहले सब तक नहीं पहुंच पाई। कई जगह मतदाताओं के नाम ही मतदाता सूची में शामिल नही थे। नये युवा मतदाताओं के नाम भी मतदाता सूची में नहीं आ पाए। मतदाता सूची का अपडेशन भी हुआ और दावे-आपत्तियां भी बुलाई गई लेकिन न तो राज्य निर्वाचन आयोग के स्तर पर कलेक्टरों से यह पूछा गया कि विधानसभा चुनाव से निकाय चुनाव में इतनी बड़ी संख्या में नाम कैसे कम हुए और न ही कलेक्टरों ने इसकी मानीटरिंग की और न हीं राजनीतिक दलों ने इसमें पर्याप्त दिलचस्पी लेकर इसे ठीक करवाने में रुचि ली।
राज्य निर्वाचन आयोग ने पल्ला झाड़ा-
राज्य निर्वाचन आयुक्त बसंत प्रताप सिंह ने पहले तो केन्द्रीय कर्मचारियों को चुनाव ड्यूटी से मुक्त किए जाने के कारण इस तरह की तकनीकी खामियों को सुधारने का समय न मिल पाने की बात कही। इसके बाद उनका कहना था कि जिलों के कलेक्टरों ने उन्हें नहीं बताया कि कोई दिक्कत है। इसलिए अब शिकायतें आई है तो जांच कराई जा रही है।
मानीटरिंग में इन पर ध्यान दिया जाता तो नहीं आती शिकायतें-
किसी भी चुनाव में मतदाता सूची का अहम रोल होता है। मतदाता सूचियों के प्रारंभिक प्रकाशन और दावे-आपत्तियों के बाद अंतिम प्रकाशन के पहले यदि किसी स्थान पर व्यापक स्तर पर कमी या वृद्धि मिलती है तो राज्य निर्वाचन आयोग इसमें उस जिले के कलेक्टर से इसका कारण पूछ सकता था। इसको लेकर राज्य स्तर पर भी राजनीतिक दलों की बैठक बुलाकर उनसे इन जिलों को लेकर फीड बैक लिया जा सकता था। इसके अलावा जिलों में कलेक्टर भी अपने निर्वाचन अमले और राजनीतिक दलों के साथ यह कवायद कर सकते थे। इससे मतदाता सूची में ज्यादा नाम कटने या गायब होंने जैसी समस्याएं सामने नहीं आती। मतदान का प्रतिशत बढ़ाने में दूसरा अहम रोल मतदाता पर्चियों के वितरण का होता है। इस बार मतदाता पर्चियां नहीं बट पाई। पर्चियां प्रशासन के स्तर पर तो बटती है ही साथ ही राजनीतिक दल भी अपने स्तर पर पर्चियां वितरण कराते है। इस काम में भी इस बार हर स्तर पर कमी देखी गई। यदि किसी मतदाता का मतदान केन्द्र बदला जाता है या एक ही परिवार के मतदाताओं के नाम अलग-अलग स्थानों पर किए जाते है तो मतदाताओं तक इसकी जानकारी पहुंचना जरुरी है। यह काम भी इस बार व्यापक स्तर पर नहीं किया गया। इन तीनों कामों की मानीटरिंग के लिए सबसे पहले राज्य निर्वाचन आयोग, उसके बाद जिलों के कलेक्टर और फिर राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि अपने-अपने स्तर पर जिम्मेदार है।