भाजपा के नए खेवनहार नरेंद्र तोमर जानते हैं, विपरीत हालात में चुनाव का मुंह मोड़ना!

सिंधिया से समन्वय बनाना है बड़ी चुनौती

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भाजपा के नए खेवनहार नरेंद्र तोमर जानते हैं, विपरीत हालात में चुनाव का मुंह मोड़ना!

राजनीतिक समीक्षक हेमंत पाल की खास रिपोर्ट

   भाजपा के दूसरे नंबर के सर्वशक्तिमान नेता अमित शाह ने भोपाल में अपनी बैठक में जो सबसे सटीक और कारगर फैसला किया वो रहा केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर को एक बार फिर मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनाव की कमान सौंपना। ये भाजपा के केंद्रीय संगठन का बहुत सोच-समझकर किया फैसला लगता है। क्योंकि, नरेंद्र तोमर ही प्रदेश भाजपा के वो नेता हैं, जो धारा मोड़ने की क़ाबलियत रखते हैं। उनकी राजनीतिक दक्षता निर्विवाद है। पूरे प्रदेश की राजनीतिक तासीर और मतदाताओं के मूड को उनसे ज्यादा कोई नहीं जानता। वे भले ही ग्वालियर-चंबल इलाके के नेता हों, पर प्रदेश के हर इलाके के गांव-गांव तक उनकी पहुंच है। हर जगह ऐसे पार्टी कार्यकर्ता मिल जाएंगे, जिन्हें नरेंद्र तोमर उनके नाम, चेहरे और उनकी राजनीतिक क्षमता से जानते हैं। अब, जबकि चुनाव की कमान उनके हाथ में है, तो तय है कि भाजपा को इसका फ़ायदा भी मिलेगा।

पार्टी के इस फैसले का कारण यह रहा कि मध्यप्रदेश में भाजपा इन दिनों संक्रमण के गंभीर दौर से गुजर रही है। ये दिखाया नहीं जा रहा, पर इस सच को नकारा भी नहीं जा सकता। 18 साल के लम्बे कार्यकाल के बाद भी पार्टी को पूरा भरोसा नहीं है, कि वो फिर सत्ता में लौट सकेगी। यही कारण है कि रोज नई-नई घोषणाएं करके जनता को अपने पक्ष में करने की कोशिश हो रही है। वो सारे लोकलुभावन हथकंडे अपनाए जा रहे हैं, जो सत्ता में वापसी के लिए किए जाते हैं। ऐसा भी नहीं कि भाजपा के सामने कांग्रेस की चुनौती बहुत सशक्त है। कांग्रेस ऐसा कुछ नहीं कर रही, जो भाजपा के लिए मुश्किल खड़ी करे। जो गलतियां पार्टी के नेताओं से हुई है, उसके लिए किसी दूसरे जिम्मेदार नहीं बताया जा सकता। आशय यह कि भाजपा यदि फिर सत्ता पाने से दूर रहती है तो वो उसकी अपनी गलतियां होंगी। यही सब समझकर पार्टी ने नरेंद्र तोमर को कमान सौंपी है कि वे पार्टी को सत्ता में लाने के लिए हर संभव प्रयास करें।

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अमित शाह ने उन्हें ये जिम्मेदारी बहुत सोच-समझकर और पार्टी हित को देखते हुए सौंपी है। क्योंकि, पिछले कई दिनों से पार्टी के अनुभवी और पुराने नेताओं में ये नाराजगी पनप रही थी, कि उनकी बात नहीं सुनी जाती। उन्हें पार्टी में कोई तवज्जो नहीं मिल रही और न उनसे कोई सलाह-मशविरा किया जाता है। ये बात काफी हद तक सही भी है। मालवा इलाके के कुछ नेता इसे लेकर मुखर भी हुए। कटनी में तो पार्टी के कई पुराने विधायकों ने इसी मुद्दे पर पार्टी तक छोड़ दी। कहा जाता है कि ये मसला इसलिए उलझा कि प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा ने इस बात पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया। उन्होंने उन अनुभवी नेताओं को वो तवज्जो नहीं दी, जो उन्हें मिलना चाहिए! कार्यकर्ताओं की भी शिकायत थी, कि उनकी बात सुनने वाला पार्टी में कोई नहीं है। इसका नतीजा ये हुआ कि पार्टी में असंतोष पनपने लगा था। नरेंद्र तोमर के आने से निश्चित रूप से ये सारे लोग खुश होंगे।

नरेंद्र तोमर 2006 से 2009 तक प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष रहे। इसके बाद 2012 के अंत से उन्हें फिर अध्यक्ष बनाया गया। उन्होंने 2013 का विधानसभा और 2014 का लोकसभा चुनाव करवाया। 2018 में उन्हें चुनाव अभियान समिति की जिम्मेदारी जरूर दी गई, लेकिन चुनाव में जीत को लेकर शिवराज सिंह के अतिआत्मविश्वास कारण वे कुछ ख़ास कर नहीं सके। टिकट बंटवारे में भी उनकी बातों को नहीं सुना गया। इसी का नतीजा था कि पार्टी स्पष्ट बहुमत से पिछड़ गई। बाद में पार्टी कैसे फिर सत्ता में आई, ये अलग कहानी है। पर, सच्चाई यही है कि पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी मतदाताओं ने नकार दिया था।

इस बार के चुनाव में तोमर की सबसे बड़ी भूमिका होगी पूरे चुनाव अभियान में समन्वय बनाकर रखना। दिखने में यह आसान भले लगे, पर ये बेहद मुश्किल काम है। उन्हें चुनाव अभियान में लगी सभी समितियों में सामंजस्य तो बनाना ही है, उन्हें सही दिशा देकर चुनौतियों के लिए तैयार भी करना है। सीधे शब्दों में कह जाए तो चुनाव अभियान के दौरान होने वाली सारी परेशानियों को हल करने के साथ उन्हें जीत के लिए रास्ता तैयार करना है। नरेंद्र तोमर के लिए ये मुश्किल इसलिए नहीं है कि पार्टी में उनके संबंध हर स्तर पर बहुत प्रगाढ़ और भरोसेमंद हैं। वे जमीनी हकीकत भी जानते हैं और पार्टी की स्थिति से अनजान नहीं हैं।

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समझा जा रहा है कि उन्हें समन्वय में यदि कहीं परेशानी आई, तो वो है ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके समर्थकों के मामले में। इसमें कोई शक नहीं कि टिकट वितरण में ये एक बड़ा पेंच बनेगा। क्योंकि, इस बात के पूरे आसार है कि वे पार्टी की बनाई चुनाव रणनीति से अलग जाकर अपने समर्थकों को टिकट देने के लिए अपना दबाव बनाएंगे। जबकि, पार्टी स्पष्ट कर चुकी है कि टिकट उन्हीं को मिलेगा, जो पार्टी के केंद्रीय सर्वे में खरा उतरेगा! ऐसे में तोमर को समन्वय में दिक्कत होने की संभावना गलत नहीं है। इसलिए कि दोनों नेता एक ही इलाके के हैं और राजनीतिक रूप से दोनों बरसों तक प्रतिद्वंदी भी रहे। अभी दोनों भले ही एक पार्टी के नेता हों, पर कहीं न कहीं दोनों में खींचतान से इंकार नहीं किया जा सकता। इसके अलावा लगता नहीं कि प्रदेश का कोई इलाका ऐसा हो, जहां तोमर की बात को नहीं सुना जाए!

भाजपा के इस नेता की सबसे बड़ी ताकत है प्रदेशभर में उनका नेटवर्क और उस पर सौ टंच भरोसा। उनका राजनीतिक अनुभव, कार्यकर्ताओं में उनके प्रति विश्वास और बात का वजन उनकी बड़ी ताकत है। टिकट वितरण के समय उनकी यही क्षमता पार्टी के काम आने वाली है। क्योंकि, पार्टी यदि यही भूमिका किसी और नेता को सौंपती, तो निश्चित रूप से विद्रोह होने का डर ज्यादा था। नरेंद्र तोमर की एक और खासियत है कि वे कम बोलते हैं, अंतर्मुखी हैं और जब बोलते हैं, तो उनकी बात को सुना और समझा जाता है। संगठन चलाने का उनका अनुभव बरसों से उनके हर कदम में दिखाई दिया।

प्रदेश अध्यक्ष के दो कार्यकाल ने उन्हें राजनीतिक रूप से परिपक्व तो किया ही, संपर्क के मामले में भी समृद्ध किया। देखा गया है कि जब कोई पैचीदगी आती है, तो उनके पास तरकीब से काम निकालने की कला भी है। उनका धैर्य भी उनकी ताकत बढ़ाता है। उनके चेहरे के भाव से उनकी सोच का अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता। वे हर कार्यकर्ता की बात सुनने की क्षमता रखते हैं। हर पक्ष को संतुष्ट करने की कला जानते हैं। क्योंकि, कार्यकर्ता अपने नेता से भरोसेमंद आश्वासन चाहता है, जो तोमर देना जानते हैं। यही कारण है कि वे पार्टी के केंद्र में बैठे दो बड़े नेता नरेंद्र मोदी और अमित शाह के सबसे विश्वस्त लोगों में गिने जाते हैं।

इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि मध्य प्रदेश में भाजपा विधानसभा चुनाव में जीत के प्रति अपना आत्मविश्वास खो चुकी थी। दिखावे के लिए भले इससे इंकार किया जाए, पर यह बात जगजाहिर है कि संगठन की कमजोरी सड़क पर आ गई थी। ऐसे में पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने कोई नया प्रयोग करने के बजाए फिर अनुभवी नेता को चुनाव की लगाम थमाई है, ताकि पिछले सालों में जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई की जा सके। चुनावी संरचना के नए खेवनहार नरेंद्र तोमर के आने से पार्टी के हर खेमे में नई ऊर्जा आने का इशारा दिख रहा है। अब सारा दारोमदार चुनाव प्रभारी भूपेंद्र यादव और अश्विनी वैष्णव के साथ तोमर का है कि वे इस मुश्किल घड़ी में पार्टी की नैया को कैसे पार लगाते हैं।