“भारतीय संस्कृति का अमृत कलश शारदीय नवरात्र”

समन्वय भारत का सांस्कृतिक चिंतन है। अनेक विभिन्नताओं से परिपूर्ण हमारा देश भावनात्मक धरातल पर एकता की अनोखी मिसाल प्रस्तुत करता है। यही भारतीय जन जीवन का अनूठा सौंदर्य है। इसी आधार पर भारत में पर्व और त्योहारों की समृद्ध परंपरा सदियों से चली आ रही है ।यह पर्व और त्योहार रंग-रूप आकार और उद्देश्य की दृष्टि से भले ही अलग-अलग हों किंतु इनकी पावनता में जन-जन की असीम आस्था, विश्वास और श्रद्धा की निर्मल धारा समाहित है जो सदियों से इनकी प्रासंगिकता को चिर नवीन बनाए हुए हैं।

भारतीय पर्व और त्योहारों का बुनियादी दर्शन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किसी न किसी धार्मिक अनुष्ठान, ऋतु परिवर्तन , लोकमंगल, सामाजिक शिष्टाचार, लोकनायक, महान उद्धारक या किसी के पुण्य स्मरण आदि से संबंध रहा है जो मूलतः मानवीय कल्याण पर केंद्रित है ।

सोए हुए भारतीय जनमानस में व्यापक चेतना जागृत करने, सामाजिक एकीकरण, राष्ट्रीय एकता और अखंडता को सुदृढ़ बनाने तथा सामाजिक संबंधों की समरसता को जीवंत बनाए रखने में भारतीय पर्व और त्योहारों की अहम भूमिका रही है ।उमंग और उल्लास से सराबोर हमारी उत्सव प्रियता ,अनुष्ठानिक कार्यों में रुचि और परंपराओं को सहेज कर रखने की निष्ठा ने ही भारतीय संस्कृति के सुनहरे मूल्यों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित किया है। यह गतिशीलता ही भारतीय संस्कृति को कालजयी बना देती है ।

निसंदेह पर्व और त्योहारों की दृष्टि से भारत का दुनिया में कोई सानी नहीं है।
हिंदुओं का दशहरा, दीपावली, होली, रक्षाबंधन, दुर्गा पूजा हो, मुसलमानों की ईद, मुहर्रम, मिलादुन्नबी हो, सिखों की बैसाखी हो, ईसाईयों का क्रिसमस डे, बौद्ध़ो की बुद्ध जयंती हो या जैनियों का पर्यूषण पर्व यह सभी अपने अस्तित्व में उन मूल्यों आदर्शों प्रतीकों और परंपराओं को संजोये हुए हैं जिनके आलोक से हम असत्य से सत्य, मृत्यु से अमरता और अज्ञान से ज्ञान की ओर बढ़ने की प्रेरणा तथा संबल प्राप्त करते हैं।

भारतीय संस्कृति का अमृत कलश शारदीय नवरात्र अर्थात शक्ति का आराधन भारतीय पर्वौं में विशिष्ट महत्व का है। वैसे वर्ष में दो बार नवरात्र आते हैं शारदीय और वासंती। जब स्थूल रूप में दिन और रात बराबर होते हैं जब पृथ्वी से सूर्य की दूरी बराबर हो जाती है अर्थात संपात की स्थिति में ये अस्तित्व में आते हैं। इन दोनों की ही शुक्ल पक्ष की प्रारंभिक नौ तिथियां आद्या शक्ति मां दुर्गा की अर्चना और आराधना के लिए रूढ़ हो गई है।

यों सनातन धर्म में नवरात्र दो नहीं वरन चार हैं। शारदीय और वासंती नवरात्र के अतिरिक्त जो दो नवरात्र हैं उन्हें गुप्त नवरात्र कहा गया है। चैत्र और आश्विन के अतिरिक्त आषाढ़ माह में शुक्ल पक्ष तथा माघ शुक्ल पक्ष में आने वाली तिथियों को भी नवरात्रि की मान्यता दी गई है।

भारतीय जन जीवन में सबसे अधिक महत्ता शारदीय नवरात्र महोत्सव की है जो अपने स्वरूप में अखिल भारतीय है। डॉ. विद्यानिवास मिश्र के शब्दों में “यह कोई आकस्मिक संयोग नहीं है कि शरद के नवरात्र मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की जय यात्रा की परिणिति है, और विजयादशमी शारदीय नवरात्रि की अनुवर्तिनी है। साथ ही चैत्र के नवरात्र का अंतिम दिन अर्थात नवमी तिथि पुरुषोत्तम श्रीराम का जन्मदिन है।

राम का उदय और राम का उत्कर्ष दिव्य मानवता का उदय और उत्कर्ष है। उदय और उत्कर्ष बिंदुओं को पाने की तैयारी ही तो दोनों नवरात्र हैं।” यद्यपि इस अवसर पर देवी की उपासना ही प्रमुख होती है किंतु नवरात्र का श्रीगणेश संवत्सर की प्रतिपदा के रूप में तथा समापन रामनवमी के रूप में होने के कारण इसकी महत्ता और बढ़ जाती है। नवरात्रि में कन्या पूजन देवी की उपासना का ही एक अंग है। दो वर्ष की कुमारीयों को क्रमशः कुमारी, त्रिमूर्ति, कल्याणी, रोहिणी, कालिका, शांभवी, दुर्गा चंडिका और सुभद्रा के नाम से पूजन किया जाता है।

नवरात्र की प्रतिपदा को प्रातः विधि विधान से घट तथा दुर्गा की प्रतिमा स्थापित की जाती है। उस दिन सात प्रकार की मिट्टियों (अश्व शाला, गौशाला, रथशाला, बामी की नदियों के संगम, तालाब तथा चौराहे की मिट्टी) से भरे पात्र में शुद्ध जल के साथ जौ बोई जाती है। इसके पूर्व घट या कलश में पंच पल्लव (दूब, सुपारी, सुवर्ण, सर्वोषधि तथा पंचरत्न) मिलाकर लाल रंग के कपड़े से ढंक दिया जाता है। इस कलश के समीप ही जागतिक मंगल की प्रतीक महिषासुरमर्दिनि की उज्जवल छवि वाली प्रतिमा स्थापित की जाती है जिसका सौंदर्य इतना विलक्षण होता है कि इसके दर्शन मात्र से ही मन के कलुष धुल जाते हैं।

नवरात्र मैं अखंड दीप जलाकर वैदिक ऋचाओं के उचचार, स्त्रोत पाठ, जप तथा दुर्गा सप्तशती आदि का मांगलिक पाठ कर रात्रि के अंधकार को, अज्ञान के आवरण को हटाकर आत्म विजय का उत्सव मनाया जाता है। प्राचीन शास्त्रों में मां दुर्गा के नौ रूपों का उल्लेख मिलता है जिनकी तिथि अनुसार अर्चना की जाती है। संभवतः मां दुर्गा के विभिन्न स्वरूपों की समग्र रूप में उपासना की जा सके इसीलिए यह पर्व नवरात्रि का है।

मां दुर्गा के नौ रूप इस प्रकार हैं महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती या चामुंडा, योगमाया, भ्रांमरी, रक्तदैतिका, शाकुंभरी, श्री दुर्गा और चंडिका। वात्सल्य और ओज की प्रतिमूर्ति देवी दुर्गा की शक्ति में अनंत ब्रह्मांड की समस्त इच्छाशक्ति वर्तमान है। जिसकी उपासना हमारी गौरवमयी परंपरा है। इसकी उपासना से साधक का व्यक्तित्व सबल, सशक्त, निर्मल और उज्जवल कांति से संवर उठता है जो उसे अलौकिक परमआनंद की अनुभूति कराती है। शक्ति से युक्त होने पर ही शिव कल्याणकारी होते हैं।

शक्ति ही ज्ञान है जिसके बिना संस्कार का अज्ञानी मन शव जैसा होता है और शिव शक्ति के बिना शव ही है। शिव में जीवन की स्पंदन शक्ति की उपस्थिति का प्रमाण है। शक्ति का मद मानव को दानव बना देता है। रावण के राक्षस होने की कथा शक्ति के दुरुपयोग का चरमोत्कर्ष है। अतः सच्ची सार्थक और सकारात्मक शक्ति वही है जो जनकल्याण की आस्था से युक्त हो और समाज तथा राष्ट्र के लिए रचनात्मक हो।आसुरी शक्तियों के अनाचार का तमस जब रात्रि को ढंक लेता है तब आद्याशक्ति विकराल रूप धारण कर भक्तों की रक्षा हेतु अवतरित होती है।

‘ खडग शूल गदादीनि यात्रि चास्याणितेअंबिके, कर पल्लवसडकीनि तैरस्या्न रक्ष सर्वतः।’
नारी को देवी स्वरूपा मान उसका सम्मान करते हुए काम, क्रोध, लोभ, मोह के आंतरिक एवं बाह्य दोषों का निवारण कर मां की अर्चना निर्मल सौष्ठव और सच्चे भाव से की जाती है तब मां दुर्गा सज्जनों का सृर्जन और दुष्टों का दमन करती है। मन के धरातल पर एक बात और हमें स्मरण रखनी चाहिए कि मधुकैटभ, महिषासुर और शुंभ निशुंभ मोह, माया, घोर अविद्या, अन्याय , आतंक अनीति और शोषण के ही प्रतीक है यदि हम इन सब का विनाश करना चाहते हैं तो हमें शक्ति की अधिष्ठात्री देवी दुर्गा के नौ स्वरूपों की अर्चना और आराधना करनी ही चाहिए क्योंकि नवरात्र महोत्सव आसुरी शक्तियों पर देवी शक्ति की विजय का मंगल गान है।

मानव मन को आध्यात्मिक प्रेरणा देने की शक्ति का प्रतीक है। वह साधारण मां नहीं है वरन् वह विश्वेश्वरी परमेश्वरी है इसीलिए तो वह देवताओं की भी रक्षा करने वाली मां है। हे दुर्गति नाशिनी मां दारिद्रय दुखभयहारणी मां उस चैतन्य शक्ति का उन्मेष कर दे जिसमें नव सृष्टि का संदेश हो, मानवीय गरिमा का सम्मान हो और मानवीय कल्याण का उदघोष हो।

Author profile
डॉ अशोक कुमार भार्गव
डॉ अशोक कुमार भार्गव

 संक्षिप्त परिचय,

डॉ अशोक कुमार भार्गव भारतीय प्रशासनिक सेवा ( 2001बैच) के वरिष्ठ अधिकारी हैं। डॉ भार्गव अपने बैच के टाॅपर हैं। 18 अगस्त 1960 को इंदौर में जन्मे डॉ भार्गव ने एम. ए. एलएलबी (ऑनर्स) अर्थशास्त्र में पीएचडी तथा नीदरलैंड के अंतर्राष्ट्रीय सामाजिक अध्ययन संस्थान हेग से गवर्नेंस में पीजी डिप्लोमा (प्रावीण्य सूची में प्रथम स्थान ) प्राप्त किया है। अपने सेवाकाल में प्रदेश के विभिन्न जिलों में एडीएम, मुख्य कार्यपालन अधिकारी, जिला पंचायत तथा कलेक्टर जिला अशोकनगर, जिला शहडोल तथा कमिश्नर रीवा और शहडोल संभाग, कमिश्नर महिला बाल विकास, सचिव, स्कूल शिक्षा पदस्थ रहे हैं सचिव, मध्य प्रदेश शासन लोक स्वास्थ्य परिवार कल्याण विभाग से सेवानिवृत्त हुए हैं। डॉ भार्गव को भारत की जनगणना 2011 में उत्कृष्ट कार्य के लिए राष्ट्रपति पदक से सम्मानित किया गया है।कमिश्नर महिला एवं बाल विकास की हैसियत से बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ अभियान, राष्ट्रीय पोषण अभियान और प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना में उत्कृष्ट कार्य के लिए भारत शासन से 3 नेशनल अवॉर्ड, सर्वोत्तम निर्वाचन प्रक्रिया के लिए भारत निर्वाचन आयोग से राष्ट्रपति द्वारा नेशनल अवॉर्ड, स्वास्थ्य सेवाओं में उत्कृष्ट कार्य के लिए तीन नेशनल स्कॉच अवार्ड के साथ ही मंथन अवार्ड, दो राज्य स्तरीय मुख्यमंत्री उत्कृष्टता तथा सुशील चंद्र वर्मा उत्कृष्टता पुरस्कार, विधानसभा तथा स्थानीय निर्वाचन में उत्कृष्ट कार्य के लिए तीन राज्य स्तरीय पुरस्कार से भी  सम्मानित किए गए हैं। कमिश्नर रीवा संभाग की हैसियत से डॉ भार्गव द्वारा किए गए शिक्षा में गुणात्मक सुधार के नवाचार के उत्कृष्ट परिणामों के लिए अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है।साथ ही रीवा संभाग के लोकसभा निर्वाचन में दिव्यांग मतदाताओं का मतदान 95% देश में सबसे अधिक के लिए नेशनल अवॉर्ड। प्रदेश में निरोगी काया अभियान में उत्कृष्ट कार्य के लिए भी पुरस्कृत। डॉ भार्गव सामाजिक और शैक्षणिक विषयों पर स्वतंत्र रूप से लेखन कार्य करते हैं और मोटिवेशनल स्पीकर हैं। वर्तमान में डॉ भार्गव नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण में सदस्य  (प्रशासनिक) तथा सचिव शिकायत निवारण प्राधिकरण के पद पर कार्यरत हैं।