भ्रष्ट या गंभीर आरोपी ‘ जन सेवक ‘ पर कानूनी अंकुश की जरुरत

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सुप्रीम कोर्ट ने सन 2001 में एक महत्वपूर्ण फैसले में व्यवस्था दी थी कि भ्रष्टाचार के अपराध की सजा पाने वाले ‘जन सेवक ‘ को ऊंची अदालत द्वारा बरी न  किए जाने तक किसी सार्वजनिक पद पर काम करने की अनुमति नहीं होनी चाहिए | भ्रष्टाचार या किसी अन्य अपराध के दोषी व्यक्ति को न्यायालय दुवारा उस अपराध से पूरी तरह निर्दोष घोषित होने तक भ्रष्ट और अपराधी ही माना जाना चाहिए | अदालत ने यह निर्णय एक बैंक अधिकारी के प्रकरण में दिया था | इसी तरह भारत का निर्वाचन आयोग और कई संगठन यह सिफारिश करते रहे हैं कि किसी गंभीर आरोप में  समुचित सबूतों के साथ चार्जशीट अदालत में पेश होने के बाद किसी जन प्रतिनिधि यानी विधायक , सांसद , मंत्री को पद पर रहने या चुनाव लड़ने पर रोक होनी चाहिए | निर्वाचन आयोग अदालत की तरह संवैधानिक संस्था है , लेकिन कोई सरकार और संसद ने इस सिफारिश को लागू करने के लिए कदम नहीं उठाए हैं | इसका नतीजा है कि महाराष्ट्र , बिहार , पश्चिम बंगाल  और दिल्ली  जैसे राज्यों में गंभीर अपराध के आरोपों में जेल पहुंचे नेता – मंत्री तक इस्तीफा नहीं दे रहे हैं | कुछ तो जांच एजेंसियों के साथ अदालत तक पर पूर्वाग्रह और दबाव के आरोप लगाकर सत्ता का दुरूपयोग कर रहे हैं |

 

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बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व में बने नए मंत्रिमंडल में तो सत्तर प्रतिशत से अधिक नेताओं पर गंभीर अपराधों के प्रकरण दर्ज हैं | कई मामले अदालत में चल रहे हैं | मंत्रियों ने स्वयं घोषणा पत्र में अपने विरुद्ध दर्ज मामलों को लिखित में दर्ज किया है | पराकाष्ठा यह है कि एक मामले में अदालत के समक्ष समर्पण की तारीख पर नेता प्रदेश के कानून मंत्री की शपथ ले रहे थे | सबको मालूम है कि प्रदेशों में निचली अदालतों की नियुक्तियां और सुविधाएं कानून विभाग – मंत्रालय से मिलती हैं | इस हालत में आरोपी और न्याय दिलाने की लगाम एक ही हाथ में रहेगी | एक पूर्व मंत्री और सत्तारूढ़ जनता दल ( यूनाइटेड ) की विधायक ने अपनी ही सरकार की नव नियुक्त मंत्री पर हत्या अपहरण के आरोपों के प्रमाण होने तक की बातें सार्वजनिक रूप से मीडिया में कही हैं |

बिहार , उत्तर प्रदेश , महाराष्ट्र ही नहीं तमिलनाडु , आंध्र जैसे कई प्रदेशों में विभिन्न दलों के नेताओं , मंत्रियों , विधायकों , सांसदों तक पर गंभीर आरोप रहे हैं | वे चुनावी शपथ पत्र में इनका विवरण देते हैं | इन्हें क्या चारित्रिक प्रमाण पत्र और आदर्श जन सेवक कहा जा सकता है ? प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने सत्ता में आने के बाद एक कार्यक्रम और संसद में भी कहा था कि नेताओं पर विचाराधीन मामलों के लिए विशेष अदालतों और समयबद्ध सुनवाई की व्यवस्था हो सकती हैं | लेकिन लगता है कि विधि मंत्रालय और सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रस्ताव पर अब तक कोई ठोस कार्यवाही नहीं की है |

वोटर इज किंग , ेलेक्टेड मेन इज सर्वेंट ऑफ़ पब्लिक ( मतदाता राजा है , चुने गए व्यक्ति सेवक हैं ) – यह आदर्श वाक्य एक बार फिर इस हफ्ते देश के मुख्या निर्वाचन आयुक्त सुनील अरोड़ा ने एक टी वी के सम्मेलन में कही | लेकिन अनुभव इसके विपरीत है | सत्ता में आने वाले पहले भी असलियत नहीं बताते और कुर्सी पाने के बाद तो और भी रंग बदल देते हैं | कसमे – वादे , अदालती फरमानों के बावजूद चुनाव सुधार की सिफारिशें कछुवा चाल से लागू हो रही हैं  | देश पर राज करने वालों की योग्यता का सबसे दिलचस्प उदाहरण  दिल्ली विधान सभा के चुनाव परिणाम में देखने को मिला था  | विश्व के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश भारत की राजधानी की विधान सभा के लिए चुने गए 70 में से 23 विधायकों की शैक्षणिक योग्यता पांचवी से आठवीं पास की है | सत्ता में रही केजरीवाल सरकार ने अपने कार्यकाल में शिक्षा को सफलता का बड़ा आधार बताया , लेकिन क्या तीसरी बार चुनाव की नौबत आने तक इन 23 नेताओं को स्नातक न सही दसवीं बारहवीं की परीक्षा में पास होने लायक बना सके या अधिक पढ़े लिखे लोगों को उम्मीदवार बना सके ? पडोसी हरियाणा राज्य में पंचायत चुनाव के लिए न्यूनतम योग्यता दसवीं पास है और इसका लाभ ग्रामीण विकास में मिला है | इसी तरह दिल्ली में चुनकर आये 37 विधायकों के खिलाफ बलात्कार , हत्या का प्रयास , महिला पर अत्याचार जैसे गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं और अदालती कार्रवाई चल रही है | अब इन्हे राजनीतिक आंदोलन के मामले कैसे माना जा सकता है ? आम आदमी पार्टी के विधायकों की घोषित औसतन संपत्ति 14 . 96 करोड़ है और एक विधायक की तो संपत्ति 292 करोड़ है |

 वैसे लोक सभा में भी आपराधिक मामलों से जुड़े सांसदों की संख्या कम नहीं है |तभी तो सुप्रीम कोर्ट ने अपने ताजे निर्णय में पार्टियों से कहा है कि वे दागी उम्मीदवार खड़े करने के कारण स्पष्ट करें | वर्षों से चल रही बहस और अदालती निर्देशों के बावजूद लोक सभा में दागी यानी आपराधिक रिकॉर्ड वाले सांसदों की संख्या बढ़ती चली गई है | 2004 में दागी प्रतिनिधियों की संख्या 24 प्रतिशत थी , जो 2009 में 30 प्रतिशत , 2014 में 34 प्रतिशत और  2019 के लोक सभा चुनाव के बाद 43 प्रतिशत हो गई |सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने  ने सितम्बर 2018 को एक फैसले में निर्देश दिया था कि दागी उम्मीदवार अपने आपराधिक रिकॉर्ड को प्रमुखता से सार्वजनिक  करें , ताकि जनता को जानकारी रहे |

Long Live-in

असल में कई नेताओं को न्यायालयों और न्यायाधीशों से भी बहुत नाराजगी रहती है | इसी तरह 2005 में कुछ नेताओं द्वारा अदालतों के विरुद्ध टिप्पणी  करने पर सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति आर सी लाहोटी ने कह दिया था – ‘ यदि राज   सत्ता को बहुत कष्ट है तो अदालतें ही भंग करवा दें | ‘ बाद में सत्तारूढ़ कांग्रेसी नेताओं ने क्षमा याचना करके शिक्षा सम्बन्धी एक कानून में बदलाव का विधेयक पारित करवाया | निचली अदालतों की गड़बड़ियों को शीर्ष न्यायाधीश स्वीकारते रहे हैं और सुधार के प्रयास जारी हैं | लेकिन आपराधिक मामलों में प्रदेशों में पुलिस राज्य सरकारों यानी सत्तारूढ़ दलों के नेताओं के अधिकार में होती हैं | इसलिए मामले दर्ज होने , प्राथमिकी में कमियां रखने या सबूत नष्ट करने में भ्रष्ट अधिकारी और नेताओं का गठजोड़ हो जाता है | बिहार के चारा घोटाले में लालू यादव और अन्य साथियों को अदालत से सजा मिलने में वर्षों की देरी हुई | चारा कांड में नौ सौ करोड़ की गड़बड़ी की खबर तो 1990 में छप गई थी | लेकिन लालू तो खबर छापने वाले हम जैसे पत्रकारों और जज तक को ऊँची जाति का पर्वाग्रही बताकर अख़बारों के दफ्तरों पर समर्थकों से हमला करवा रहे थे | उत्तर प्रदेश में भी मुलायम सिंह या मायावती घोटाले के पर्दाफाश होने पर जातीय आधार की आड़ लेने में नहीं चूकते | तमिलनाडु में करूणानिधि या जय ललिता भी मीडिया को निशाना बनाती रहीं | पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के मंत्री और साथियों के घरों से करोड़ों की नगदी और संपत्ति के दस्तावेज मिल रहे हैं , लेकिन सरकार बचाव में लगी है | इससे पहले तू सी बी आई के अधिकारी को ही हिरासत में ले लिया या अपने पुलिस कर्मचारी के लिए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी खुद धरने पर बैठ गई | हाल में केंद्र में बैठे एक राज्य मंत्री के बेटे पर हत्या  गंभीर आरोप लगने के बाद उनके इस्तीफे की मांग का विवाद जारी है | इसलिए सवाल एक दल का नहीं है | आपराधिक मामलों को लेकर सबके लिए न केवल आचार संहिता बल्कि कानून की जरुरत है |

गठबंधन की राजनीति ने हाल के वर्षों में अधिक संकट पैदा किए हैं | अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह इस समस्या से सर्वाधिक परेशान हुए हैं | प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार पर आरोपों की आंच न आने का एक बड़ा कारण उनका कड़ा नियंत्रण और किसी दबाव या मज़बूरी का न होना भी है | नीतीश कुमार इस बार लालू परिवार और पार्टी के कई दागदार विवादस्पद नेताओं के कारण नई मुसीबतों में फंस सकते हैं | वे बार बार सहयोगी दल भी बदलते रहे हैं | इसलिए आगे बदलाव मुश्किल होगा | यही नहीं राष्ट्रीय स्तर पर उनके या ममता अथवा राहुल गाँधी के नेतृत्व पर भी दलों की एक राय आसान नहीं हो सकेगी | दिल्ली के बाद पंजाब की सत्ता मिलने से अरविन्द केजरीवाल और उनके करीबी लोगों को प्रधान मंत्री पद आसान दिखने लगा और वे जल्दबाजी में दौड़ रहे हैं | लेकिन सत्येंद्र जैन और मनीष सिसोदिया पर लगे गंभीर आरोपों के कारण आने वाले महीने उन्हें ब्रेक लगाने को बाध्य कर सकते हैं | राजनीति और सामाजिक  जीवन में केवल पाखंड और प्रचार से दूरगामी लाभ नहीं हो सकते हैं | वर्तमान युग में पारदर्शिता , ईमानदारी और जन हित को सर्वोपरी रखकर सही माने में जन सेवक साबित किया जा सकेगा |

( लेखक आई टी वी नेटवर्क इंडिया न्यूज़ और दैनिक आज समाज के सम्पादकीय निदेशक हैं )