

Next Step of Modi Govt: पहले कश्मीर,फिर पाकिस्तान से निपटें
रमण रावल
बात थोड़ी अटपटी लग सकती है, लेकिन अब सच्चाई को समझना और स्वीकार करना ही होगा। कहीं पर भी आतंकवादी गतिविधियों में स्थानीय मदद की भूमिका रहती ही है। यह कम-ज्यादा या दबाव-प्रभाव-विवशता की वजह से हो सकती है, किंतु रहती है। कश्मीर में यह बहुतायत से होता रहा था और बीते एक दशक में इसमें आश्चर्यजनक कमी भी हुई थी। फिर भी पहलगाम हमले ने इस चिंगारी को फिर से हवा दी है।
प्राथमिक तौर पर यह बात सामने भी आई है कि पाक समर्थित आतंकवादियों के साथ स्थानीय लोग भी शामिल थे। ये किस स्तर पर थे,यह अलग बात है। भारत सरकार के सामने ज्यादा बड़ी और प्राथमिक चुनौती यही है। इसीलिये किसी ठोस कार्रवाई के लिये दुगनी तैयारी करने में सरकार कोई चूक नही करना चाहती। यह जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन,सीमित आपातकाल जैसा कुछ और एक बार फिर से चप्पे-चप्पे पर सेना की तैनाती प्रमुख हो सकती है।
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Pahalgam Terror Attack:कड़ा सबक सिखाया जाएगा, लेकिन अभी युद्ध की संभावना नहीं
इतना तो पक्का है कि कश्मीर के हालात 2014 से पहले की तरह हो गये हैं। तब पर्यटक डर-डर कर आता था। परिवार के साथ कम आता था। दूर एकांत वाली जगह पर नहीं जाता था। सेना या पुलिस के साये में रहता था। घूमने के दौरान भी सांसत में रहता था। 3 जुलाई से 9 अगस्त तक अमरनाथ यात्रा होना है,उस पर कैसा असर रहेगा। हाल-फिलहाल तो संशय जारी रहेगा। इस बीच भारत सरकार आतंकवाद से निपटने और उनके प्रश्रयदाता पाकिस्तान के साथ किस सरह से पेश आता है,इस पर दुनिया की नजरें लगी हैं। भारत निश्चित ही वैसा कुछ तो करेगा ही, जो बड़ा सबक हो, लेकिन क्या? यह अभी सात परदों में है।
इस बीच हमें कश्मीर में 1988 से 2014 तक के हालात के मद्देनजर ही कुछ सोचना होगा। आप इसे कह सकते हैं कि ये गढ़े मुर्दे उखाड़ने जैसा होगा तो ऐसा ही सही, लेकिन भविष्य की योजना के लिये अतीत में झांकना अनिवार्य रहता है। तब एक बात प्रमुखता से सामने आती है कि तब भले ही पाकिस्तान से टिड्डी दल की तरह आतंकवादी,उनकी रसद-पानी याने हथियार व आर्थिक मदद आती थी, लेकिन स्थानीय लोगों का भी उन्हें भरपूर प्रश्रय मिला ही था। इसमें स्थानीय नागरिक से लेकर तो सभी राजनीतिक दल,व्यापारी,उद्योगपति,शासकीय कर्मचारी,महिला,बच्चे भी शामिल थे। यदि ऐसा नहीं होता तो कश्मीरी पंडितों का नर संहार नहीं होता। उनके घर नहीं उजाड़े-जलाये जाते। महिलाओं से बलात्कार नहीं होते। तब पूरे कश्मीर ने खड़े होकर तमाशा देखा और अपने पड़ोस के जिस पंडित परिवार के साथ जो खेलते-पढ़ते-व्यापार करते बड़े हुए, वे उन्हें भगाये जाने के बाद उनके घर,दुकान,खेत पर बलात कब्जा नहीं कर लेते।
ऐसे कुछ उदाहरण बताइये,याद करिये, जब कोई कश्मीरी पंडित परिवार 2014 के बाद हिम्मत जुटाकर वापस लौटा तो लुटेरे पड़ोसियों ने उनकी जमीन-जायदाद खुशी-खुशी लौटा दी हो? या पलायन के दौरान उनके माकन,दुकान का किराया या उसे खरीद लेने की रकम या उनके सेब,सूखे मेवे के खेत में आई उपज में से कुछ हिस्सा दिया हो ? सरकार ने विस्थापित परिवारों को बसाने के दौरान जरूर उनके मकान-दुकान वापस दिलाये, लेकिन नाममात्र के। ऐसे में वर्तमान हालात पर गौर करने व जड़ से इलाज करने के लिये अतीत की घटनाओं की चीर-फाड़ करनी ही होगी। कोई भी नीति तभी कारगर व स्थायी परिणामदायी हो सकती है, जब आतंकवादी-पाकिस्तानी सेना,सरकार, पाकिस्तान परस्त कश्मीरी व मूकदर्शक रहकर तमाशा देखने वाले कश्मीरियों के आचरण पर भी ध्यान देना होगा। सरकार संभवत अभी इस उलझन की वजह से और उसका निदान ढ़ूंढकर ही किसी योजना को मूर्त रूप देने में लगी हो।
कश्मीर में पर्यटन का अहम स्थान है। वह 2.65 लाख करोड़ की जीएसडीपी में 7 प्रतिशत है। पर्यटन से सालाना प्राप्ति 18 हजार से 21 हजार करोड़ रुपये है। 2020 में वहां 34 लाख पर्यटक आये थे,जबकि 2024 में 2.36 करोड़ आये थे। इसमें 65 हजार विदेशी पर्यटक थे। कश्मीर की प्रति व्यक्ति आय 1,54,703 रुपये है, जो कि भारत के औसत 1,72,000 रुपये से थोड़ी ही कम है। वहां 2019-20 में बेरोजगारी दर 6.7 प्रतिशत थी, जो 2023-24 में 6.1 प्रतिशत रह गई थी। याने पर्यटन इसे घटा रहा था। फिर लाखों करोड़ रुपये की केंद्र सरकार की योजनाओं ने भी वहां रोजगार पैदा किये। जैसे ऊधमपुर से श्रीनगर तक रेल लाइन,चिनाब पर विश्व का सबसे ऊंचा पुल,हाइ वे आदि। हाल ही में केंद्र सरकार ने औद्योगिक योजनाओं के लिये कश्मीर को 28,400 करोड़ रुपये आवंटित किये थे।
इन सब पर अब पानी फिरता नजर आ रहा है। इसके लिये आतंकवादी व पाकिस्तान की सेना-सरकार तो सीधे तौर पर जिम्मेदार है ही, लेकिन जो कश्मीरी अब भी चुप बैठे रहेंगे, वे ज्यादा बड़े जिम्मेदार होंगे। उन्हें यह सार्थक,प्रत्यक्ष पहल करना होगा कि वे घाटी में ठंडी,पावन बयार चाहते हैं, न कि सीमा पार के वहशियों की बंदूकों से बरसते गर्म थपेड़े। केवल चंद लोगों के मोमबत्ती जुलूस निकालने,एकाध दिन व्यापार बंद करने(जो कि पर्यटकों के पलायन से वैसे भी सुनसान रहना था) और बयानबाजी करने से स्थायी हल निकलने वाला नहीं है। शेष भारत एक बार फिर से कश्मीर पर्यटन के बहिष्कार का मानस बना रहा है, जो इस बार निरंतर रहा तो इसे पटरी पर आना मुश्किल होगा।
भारत सरकार की ओर से कुछ बड़ा करने की अपेक्षा लगातार बढ़ती जा रही है। विश्व समुदाय को वह भरोसे में ले ही चुका है। अब सवाल यह भी नहीं है कि इस पार या उस पार । उसकी चिंता और योजना तो यह होगी कि उस पार का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाये,ऐसा कुछ क्या किया जाये?