निस्तेज होता नरेंद्र-प्रहलाद-ज्योति का आभा मंडल!….

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 निस्तेज होता नरेंद्र-प्रहलाद-ज्योति का आभा मंडल!….

– ग्वालियर, मुरैना और दमोह के नतीजों से दों केंद्रीय मंत्रियों नरेंद्र सिंह तोमर एवं प्रहलाद पटेल की क्षमता पर सवाल उठने लगे हैं। तीसरे केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया की साख भी कसौटी पर है। ग्वालियर, मुरैना में महापौर पद पर हार के बाद नगर निगम अध्यक्ष के चुनाव से सोचा जाने लगा है कि तोमर और सिंधिया का आभा मंडल निस्तेज तो नहीं होने लगा? तोमर की साख दांव पर इसलिए ज्यादा है क्योंकि जिस मुरैना से वे सांसद हैं, वहां महापौर के बाद निगम अध्यक्ष भी कांग्रेस का जीत गया। कहा जाने लगा है कि नरेंद्र सिंह अब सिर्फ क्षत्रियों के नेता बचे हैं। तोमर और सिंधिया मिलकर भी ग्वालियर का किला नहीं बचा पा रहे हैं। ग्वालियर नगर निगम के अध्यक्ष पद पर एक वोट से जीत से किसी तरह इज्जत बची है।

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लगभग यही स्थित तीसरे कद्दावर केंद्रीय मंत्री प्रहलाद पटेल की है। प्रहलाद दमोह से सांसद हैं। सागर का हिस्सा तीन मंत्री गोविंद सिंह राजपूत, भूपेंद्र सिंह और गोपाल भार्गव मिलकर जिता ले गए, लेकिन दमोह में प्रहलाद कुछ नहीं कर सके। अकेले जयंत मलैया के बेटे सिद्धार्थ उन्हें मात दे रहे हैं। दमोह, के बाद पथरिया और हिंडोरिया नगर पालिका में भी भाजपा पराजित हो गई। तो क्या प्रहलाद सिर्फ लोधी मतदाताओं के नेता बचे हैं?

ग्वालियर, मुरैना, दमोह से फिर खतरे की घंटी….

– पंचायत और निकाय चुनावों की तरह निकाय अध्यक्ष के पदों पर भी अधिकांश स्थानों पर भाजपा के प्रत्याशी जीते हैं, लेकिन ग्वालियर, मुरैना और दमोह सहित कुछ ऐसे शहर भी हैं, जो उसके लिए खतरे की घंटी बजा रहे हैं। पहले बात ग्वालियर की। महापौर पद पर हार के बाद भाजपा ने यहां निगम परिषद अध्यक्ष में जीत के लिए पूरी ताकत झोंकी।

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भाजपा के 34 और कांग्रेस के 25 पार्षद ही चुनाव जीते थे, इस नाते भाजपा की जीत पक्की थी। फिर भी पहले से घेराबंदी कर पार्षदों को बाहर ले जाया गया। 7 अन्य पार्षद जीते थे। दावा किया जा रहा था कि 4 अन्य भी भाजपा के साथ हैं। चुनाव हुआ तो भाजपा ने जीत दर्ज की लेकिन नतीजों ने भाजपा के नीचे से जमीन खिसका दी। उसे 34 वोट ही मिले जबकि कांग्रेस 33 वोट लेने में सफल रही। अर्थात कांग्रेस की तुलना में 9 वोट ज्यादा होने के बावजूद भाजपा महज एक वोट के अंतर से जीत सकी। इसी प्रकार महापौर के बाद मुरैना में कांग्रेस का सभापति भी जीत गया। दमोह में जयंत मलैया को किनारे करने का नुकसान जारी है। जिला पंचायत अध्यक्ष के बाद दमोह नगर पालिका अध्यक्ष पद पर भी कांग्रेस का कब्जा हो गया। जिले की पथरिया में भी कांग्रेस जीत गई। भाजपा के लिए यह खतरे की घंटी ही तो है।

कमलनाथ के साथ शिवराज के लिए भी सबक….

– निकाय एवं पंचायत चुनाव के नतीजों को लेकर भाजपा-कांग्रेस दोनों अपनी पीठ थपथपा रहे हैं। सच यह है कि ये चुनाव प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ के लिए सबक हैं और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के लिए भी। पांच महापौर जीत कर कमलनाथ उत्साहित हो सकते हैं लेकिन इन्हीं नगर निगमों में छिंदवाड़ा छोड़कर कांग्रेस के पार्षद भाजपा से कम जीते।

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पार्टी को नगर पालिका, नगर परिषद, जिला पंचायत एवं जनपद पंचायत के चुनाव में कांग्रेस के पिछली बार से भी कम प्रतिनिधि जीते। इसलिए पांच महापौरों की जीत पर कांग्रेस को ज्यादा इतराना नहीं चाहिए। विधानसभा चुनाव में जीत के लिए उसे और कड़ी मेहनत करना होगी। दूसरी तरफ मुख्यमंत्री चौहान के लिए ये चुनाव इस मायने में सबक हैं कि लंबे समय बाद भाजपा के हाथ से 7 महापौर खिसक गए। भाजपा को शहरों की पार्टी ज्यादा माना जाता है, लेकिन कांग्रेस यहां सेंध लगाने में कामयाब हो रही है। ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में आने के बावजूद चंबल-ग्वालियर अंचल में अपेक्षाकृत कमजोर प्रदर्शन और विंध्य-महाकौशल में कांग्रेस की बढ़त शिवराज को चौकन्ना करने के लिए पर्याप्त है। लिहाजा, इन चुनावों के नतीजों से किसी को भी गलतफहमी नहीं पाल लेना चाहिए।

चुनावी मोड में आए मुख्यमंत्री, भाजपा और संघ…

– निकाय-पंचायत चुनावों के बाद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपनी पुरानी कार्यशैली पर लौटते दिख रहे हैं। दो दशक से भाजपा को लगभग हर वर्ग का समर्थन मिलता रहा है। इसमें मुख्यमंत्री निवास में होने वाली विभिन्न वर्गों की पंचायतों की मुख्य भूमिका रही है। दिग्विजय सिंह के नेतृत्व वाली तत्कालीन कांग्रेस सरकार को याद कर कर्मचारी वर्ग मुख्यमंत्री के साथ लामबंद रहा है। स्थानीय चुनाव में मिले-जुले नतीजे आने के बाद भाजपा, संघ और मुख्यमंत्री सभी चौकन्ने होकर चुनावी मोड में आ गए हैं। मुख्यमंत्री ने कर्मचारियों का महंगाई भत्ता केंद्रीय कर्मचारियों के समान कर दिया है। दूसरा, शिवराज ने मुख्यमंत्री निवास में फिर पंचायतों का आयोजन शुरू करने का निर्णय लिया है। पहले हाथ ठेला वालों की पंचायत बुलाई जा रही है। पंचायतों में संबंधित वर्गों से बातचीत कर उनके सुझावों के आधार पर निर्णय लिए जाते हैं। सड़कों, बिजली को लेकर लोगों की परेशानी बढ़ी है, इस ओर भी मुख्यमंत्री खास ध्यान दे रहे हैं। भाजपा के साथ संघ ने भी प्रदेश में अपनी सक्रियता बढ़ा दी है। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वीडी शर्मा लगभग 19 जिला अध्यक्षों को बदलने की बात कर रहे हैं। इस तरह पूरा ध्यान अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों पर केंद्रित है।

हीरालाल के बाद वरदमूर्ति करेंगे जोर-आजमाईश….

– हीरालाल त्रिवेदी का हश्र देखने के बावजूद रिटायर्ड आईएएस का राजनीति से मोह भंग नहीं हुआ। त्रिवेदी ने जिस तरह सपाक्स को गति दी थी, बड़ी तादाद में अफसरों का उन्हें समर्थन मिल रहा था, उसे देखकर कुछ समय के लिए लगा था कि वे कुछ करिश्मा कर सकते हैं। लेकिन नतीजा ‘ढाक के वही तीन पात’। त्रिवेदी की पार्टी राजनीति के बियाबान में गुम हो गई। अब एक और रिटायर्ड आईएएस वरदमूर्ति मिश्रा ने नए राजनीतिक दल के गठन और प्रदेश की सभी विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान किया है।

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मिश्रा ने प्रमुख दलों भाजपा, कांग्रेस की कार्यशैली की आलोचना की है। वे कोई चमत्कार कर पाते हैं, इसकी उम्मीद बहुत कम है, फिर भी उनके कदमों पर नजर रखी जा रही है। ऐसा नहीं है कि ये दो अफसर ही राजनीति में आए हैं। इससे पहले डीएस राय, वीके बाथम और अजिता पांडे वाजपेयी सेवानिवृत्ति के बाद कांग्रेस से जुड़ चुके हैं। पर अब तक कोई खास मुकाम हासिल नहीं कर सके। सुशील चंद्र वर्मा और रुस्तम सिंह ही ऐसे नौकरशाह रहे जो भाजपा में रहकर सांसद, विधायक एवं मंत्री बन सके। मध्यप्रदेश में अलग दल बनाकर जगह बनाने की उम्मीद बेमानी है। आखिर! यहां के लोगों ने अलग दल बनाने वाले अर्जुन सिंह, उमा भारती जैसे नेताओं तक को भाव नहीं दिया।