हेलमेट नहीं तो पेट्रोल नहीं: ज़मीनी हकीकत और चुनौती

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हेलमेट नहीं तो पेट्रोल नहीं: ज़मीनी हकीकत और चुनौती

 

BHOPAL: प्रदेश में सड़क सुरक्षा को लेकर सरकार और प्रशासन लगातार नए-नए कदम उठा रहे हैं। इन्हीं कोशिशों में “हेलमेट नहीं तो पेट्रोल नहीं” का आदेश समय-समय पर ज़ोर-शोर से लागू किया जाता रहा है, लेकिन इस बार मामला हाई कोर्ट तक पहुंच गया है। इस आदेश को लेकर एक जनहित याचिका दायर की गई है। इस याचिका पर अगली सुनवाई सोमवार को होनी है, जिससे इस पूरे अभियान की कानूनी वैधता और भविष्य को लेकर सबकी नजरें अदालत पर टिकी हैं।

 

इस मुहिम का उद्देश्य साफ है: दोपहिया वाहन चालक बिना हेलमेट के सड़कों पर न दिखाई दें, ताकि दुर्घटनाओं में सिर की चोट के कारण होने वाली मौतें कम हो सकें। लेकिन जब इस अभियान की जमीनी हकीकत देखी जाती है और अब अदालतों में इसकी चुनौती देखी जाती है, तो कई सवाल और पेच सामने आ जाते हैं।

 

शहरों और कस्बों में पेट्रोल पंप पर ‘हेलमेट चेकिंग’ अक्सर खानापूर्ति साबित हुई है। कई जगह पंप संचालक खुद ही फॉर्मलिटी के लिए हेलमेट दे देते हैं, सवारी कुछ देर पहनकर पेट्रोल भरवा लेती है, बाद में हेलमेट वहीं सौंप देती है। अनेक जगहों पर किराए का हेलमेट भी उपलब्ध रहता है- 10-20 रुपये देकर पहन लो, पेट्रोल डा्लवाओ, फिर लौटा दो। अभियान की सिर्फ रस्म-रिवाज निभाई जाती है, मगर असली सुरक्षा नदारद रहती है।

 

इसी “हेलमेट नहीं तो पेट्रोल नहीं” नीति के खिलाफ हाई कोर्ट में जनहित याचिका में तर्क दिए गए हैं-

1-पेट्रोल पंप संचालकों को कानून लागू करने की जिम्मेदारी देना, उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर है।

2-यह आदेश आम नागरिकों के उपभोग के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है।

3-सड़क सुरक्षा लागू करना प्रशासन और पुलिस की जिम्मेदारी है, न कि निजी संचालकों की।

 

प्रशासनिक स्तर पर सवाल वही है- क्या केवल हेलमेट का पालन ही सड़क सुरक्षा की गारंटी है…?

टूटी-फूटी सड़कें, गड्ढे, बेढंगा ट्रैफिक और शहरों में अतिक्रमण भी तो हर दिन दुर्घटनाओं का कारण बनते हैं। असली समस्या को नजरअंदाज करके महज हेलमेट की मजबूरी दवा बनाने जैसी कोशिश है।

 

अब अदालत में सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या यह आदेश तार्किक, व्यावहारिक और संविधान सम्मत है..?

सोमवार की सुनवाई में कोर्ट नियम की वैधता, तर्क, मौलिक अधिकार और जमीन पर इसके लागू होने की सच्चाई के आधार पर संतुलित निर्णय दे सकता है। यदि आदेश अत्यधिक कठोर या अव्यावहारिक पाया जाता है, तो संभव है कि अदालत बदलाव या नया तरीका सुझाए; हो सकता है कोर्ट पुलिस या ट्रैफिक प्रशासन को कानून के क्रियान्वयन का जिम्मेदार बनाए।

 

“वैकल्पिक उपाय-

– सड़क और ट्रैफिक ढांचे का उन्नयन

– हेलमेट चेकिंग पुलिस की निगरानी में

– ई-चालान व जागरूकता बढ़ाने वाले अभियान

– दुर्घटनाओं की रिपोर्टिंग और कड़ी मॉनीटरिंग

निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि नीति का मकसद सराहनीय है, मगर व्यावहारिकता, संवेदनशीलता और कानूनी संतुलन बेहद ज़रूरी है। अब देखना यह है कि सोमवार को हाई कोर्ट में क्या दिशा मिलती है और आम जनता की सुरक्षा का अगला ट्रैक क्या होगा।