No Legal Recognition : काजी की अदालत, दारुल कजा या शरिया कोर्ट जैसे निकायों को कानूनी मान्यता नहीं, सुप्रीम कोर्ट का फैसला!

इनके फैसला केवल उन पक्षों के लिए मान्य, जो स्वेच्छा से उस पर अमल करने के लिए सहमत हों!

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No Legal Recognition : काजी की अदालत, दारुल कजा या शरिया कोर्ट जैसे निकायों को कानूनी मान्यता नहीं, सुप्रीम कोर्ट का फैसला!

 

New Delhi : सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में दोहराया कि काजी की अदालत, दारुल कजा या शरिया कोर्ट जैसे किसी भी निकाय को भारतीय कानून के तहत मान्यता प्राप्त नहीं है। इनके द्वारा दिया गया कोई भी निर्देश या फैसला कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं होता है। जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की युगलपीठ ने यह टिप्पणी एक महिला द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए की।

इस मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले को चुनौती दी गई थी, जिसमें फैमिली कोर्ट ने काजी की अदालत में हुए समझौते के आधार पर फैसला दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने फैमिली कोर्ट के फैसले को गलत ठहराते हुए साफ कहा कि इस तरह के निकायों का फैसला केवल उन पक्षों के लिए मान्य हो सकता है, जो स्वेच्छा से उस पर अमल करने के लिए सहमत हों, लेकिन इसे कानूनी रूप से लागू नहीं किया जा सकता है।

पीठ ने 2014 में दिए गए अपने ऐतिहासिक फैसले विश्व लोचन मदन बनाम भारत सरकार के मामले का भी हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि शरिया अदालतों और उनके फतवों को भारतीय कानून में कोई मान्यता प्राप्त नहीं है। इस फैसले में साफ कहा गया था कि कोई भी गैर सरकारी निकाय बलपूर्वक किसी पर अपने फैसले लागू नहीं कर सकता है। याचिका में बताया गया कि महिला का विवाह 24 सितंबर 2002 को इस्लामी रीति-रिवाजों के मुताबिक हुआ था। यह दोनों की दूसरी शादी थी। 2005 में काजी की अदालत मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में महिला के खिलाफ तलाक का मुकदमा दायर किया गया था, जो बाद में समझौते के आधार पर खारिज हो गया।

2008 में, पति ने दारुल कजा में फिर से तलाक के लिए मामला दायर किया और 2009 में तलाकनामा जारी किया गया। महिला ने 2008 में भरण-पोषण की मांग करते हुए फैमिली कोर्ट में याचिका दायर की थी, जिसे फैमिली कोर्ट ने खारिज कर दिया था। फैमिली कोर्ट ने यह तर्क दिया था कि महिला स्वयं घर छोड़कर गई थी और यह कि चूंकि यह दोनों की दूसरी शादी थी, इसलिए दहेज की मांग की संभावना नहीं थी।