पत्रकारिता को नोबेल शांति पुरस्कार और ‘स्वदेश’ का आईना…!

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नोबेल पुरस्कार के 120 साल के इतिहास में
ऐसे मौके कम ही आए हैं, जब पत्रकारों को
दुनिया के इस सबसे बड़े पुरस्कार से
सम्मानित किया गया हो। जिन पत्रकारों को
यह सम्मान मिला है, वो बहुमुखी प्रतिभा के
धनी रहे हैं। उनके कई रचनात्मक कामो में से
एक पत्रकारिता भी रही है। 21 वीं सदी में यह
तीसरा मौका है, जब पत्रकारों को नोबेल
शांति पुरस्कार ने नवाजा जा रहा है। इस साल
सम्मानित फिलीपिनो अमेरिकी महिला पत्रकार

मारिया रेसो और रूसी पत्रकार दिमित्री
मुराकोव की कहानी भी अभिव्यक्ति की
आजादी को सहेजने और अन्याय व निरंकुशता
के खिलाफ खुलकर लोहा लेने की संघर्ष गाथा
है। हालांकि पत्रकारिता के लिए कोई अलग से
नोबेल पुरस्कार का प्रावधान नहीं है, जिस
तरह खेल के लिए भी कोई नोबेल नहीं दिया
जाता। लेकिन इसमें संदेह नहीं कि विश्व शांति
और मनुष्यता को बचाने में पूरी दु‍िनया में
पत्रकारिता की अपनी साहसिक और
सकारात्मक भूमिका रही है। ध्येयनिष्ठ पत्रकार
अपने समय से निर्भीकता से मुठभेड़ करते रहे
हैं। शायद इसीलिए जुझारू पत्रकारों अथवा
पत्रकारिता से जुड़ी हस्तियों को शांति का
नोबेल पुरस्कार दिया जाता रहा है। क्योंकि

दुनिया भर के सत्ताधीशो की तमाम कोशिशों
के बाद भी पत्रकारों का मुंह और आंखें बंद
नहीं की जा सकी हैं। हालांकि ऐसा करने के
लए ‘देशद्रोही, गैरजिम्मेदार, बिकाऊ
बुद्धिजीवी’ जैसे जुमले सत्ता संस्थानों द्वारा
गढ़े जाते रहे हैं। पत्रकारिता को ‘पालतू’ बनाने
के लिए भी कई तरह के हथकंडे अपनाए जाते
रहे हैं। ताकि वो सत्ता के खिलाफ न तो कुछ
बोले और न ही कुछ दिखाए। उल्टे अपने हाथ
में झांझ मंजीरा और मुंह में लालीपाॅप थामे
दिखाई दे। लेकिन कुछ प्राणियों की तरह
‘पालतू’ बनकर रहना मनुष्य का मूल स्वभाव
नहीं है। थोड़ी ही सही, अन्याय, अतिवाद और
अत्याचार के खिलाफ आवाजें किसी न किसी
रूप में मुखर होती ही हैं और यह मुखरता ही

मानव सभ्यता और संस्कृति को बचाए रखने
की जमानत है। और इसे कायम रखने का
पहला दायित्व साहित्य और पत्रकारिता का है।
यह मानने में हर्ज नहीं कि ये दोनो अपना
काम तमाम चुनौतियों के बाद भी निष्ठा से
कए जा रहे हैं।
फिर भी पत्रकारिता और पत्रकारों को नोबेल के
काबिल कम ही समझा गया है। हालांकि 20
वीं सदी के पूर्वार्द्ध में कई ‘योद्धा’ और
शांतिदूत पत्रकारों को नोबेल शांति पुरस्कार से
नवाजा गया। नोबेल पुरस्कार की शुरूआत
1901 में महान स्वीडिश आविष्कारक,
रसायनशास्त्री, व्यवसायी और परोपकारी
अल्फ्रेड नोबेल द्वारा छोड़ी गई 3.1 करोड़

स्वीडिश क्रोना ( आज के हिसाब से 1498
करोड़ रू.) की सम्पत्ति से हुई थी। नोबेल ने
अपनी मृत्यु के पूर्व इच्छा जताई थी कि इस
राशि का उपयोग रचनात्मक कामों के लिए
पुरस्कार देने में कया जाए। 1901 में ये
पुरस्कार शुरू हुए। इस पुरस्कार के लिए
नामित होने और चयनित होने की जटिल
प्रक्रिया है। अब तक 941 हस्तियों तथा 25
संगठनों को यह पुरस्कार मिल चुका है। इनमें
10 भारतीय अथवा भारतवंशी हैं। तीन
वैज्ञानिक ऐसे भी हैं, जिन्हें यह पुरस्कार
जीवन में दो बार मिला। नोबेल विजेता को दी
जाने वाली पुरस्कार राशि में घट-बढ़ होती
रहती है। वर्तमान में यह पुरस्कार राशि करीब
8.2 करोड़ रू. के बराबर है।

जहां तक पत्रकारों की बात है तो नोबेल
पुरस्कार शुरू होने के दूसरे ही साल यानी
1902 में शांति का नोबेल पुरस्कार एक स्विस
पत्रकार ऐली ड्यूकोमुन के हिस्से में अाया
था। उन्होंने एक राजनीतिक पत्र रिव्यू द
जिनेवे’सहित कई पत्रों का संपादन किया।
इसी के साथ ऐली ने शांति के लिए काम
करने वाले ‘बर्न पीस ब्यूरो’ के निदेशक के
रूप में अनथक काम किया। वो राजनेता भी
थे। इटली के अर्नेस्तो तियोडोरो मोनेता ऐसे
दूसरे पत्रकार थे, जिन्हें 1907 में शांति का
नोबेल पुरस्कार मिला। ऐली ने फ्रांस और
इटली के बीच आपसी समझ पैदा करने के
लिए भी काफी काम किया। वो लंबे समय तक
इतालवी पत्र ‘इल सेकोलो’ के संपादक भी रहे।

फौजी पृष्ठभूमि रखने वाले अर्नेस्तो अपने
निर्भीक संपादकीय के लिए जाने जाते थे।
अखबार ही उनका ‘शस्त्र’ था।
नोबेल का शांति पुरस्कार पाने वाले अल्फ्रेड
हर्मन फ्रीड तीसरे प‍त्रकार थे। अल्फ्रेड
आॅस्ट्रिया में जन्मे और जर्मनी में रहते थे।
उन्हें शांति का नोबेल पुरस्कार 1911 में
मला था। उन्होंने अपनी पत्रकारिता के माध्यम
से ‘अंतरराष्ट्रीय अराजकता’ को उजागर किया
था। वो समय प्रथम विश्वयुद्ध के पहले का
था। बाद में भी उन्होंने विश्व शांति के लिए
काफी काम किया। ब्रिटिश पत्रकार नाॅर्मन
एंजेल चौथे ऐसे पत्रकार, लेखक और
अर्थशास्थी थे, जिन्हें 1933 में नोबेल शांति

पुरस्कार से नवाजा गया। बाद में वो अमेरिका
में भी रहे और कई पत्रों का संपादन किया।
एंजेल ने कई किताबें लिखीं। दुनिया में उनका
‘नाॅर्मन एंजेलवाद’ प्रसिद्ध है। जिसमें एंजेल ने
कहा था कि ‘ सैनिक और राजनीतिक शक्ति
किसी भी देश को वाणिज्यिक लाभ नहीं पहुंचा
सकती। आर्थिक संभावनाएं तभी फलीभूत होती
हैं, जब या तो कोई देश किसी दूसरे देश की
सम्पत्ति को नष्ट करे या फिर कोई देश किसी
दूसरे देश को दास बनाकर खुद अमीर बन
जाए। एंजेल ‘लीग आॅफ नेशन्स’ की
कार्यकारी समिति के सदस्य भी रहे।
नोबेल शांति पुरस्कार पाने वाले कार्ल वाॅन
अोसित्ज्की पांचवे पत्रकार थे, जिन्हें वर्ष

1935 के लिए यह पुरस्कार दिया गया। कार्ल
जर्मन पत्रकार थे। सत्ता की आलोचना के लिए
उन्हें जेल भी जाना पड़ा। वो जर्मनी में हिटलर
का दौर था। कार्ल पर देश की गोपनीय
जानकारी लीक करने के आरोप भी लगाए
गए। उन्हे कंसट्रेशन कैम्प में भी रखा गया।
लेकिन कार्ल अपने कर्तव्य से नहीं डगे।
तमाम यातनाअों के बावजूद कार्ल ‘
लोकतांत्रिक प्रतिरोध के प्रतीक’ के रूप में
उभरे। उन्हें नोबेल पुरस्कार देने से हटलर
और चढ़ गया था। उसने सभी जर्मनो पर
नोबेल पुरस्कार स्वीकार करने पर ही प्रतिबंध
लगा दिया था।

हैरानी की बात है कि कार्ल के बाद 75 सालों
तक किसी पत्रकार को नोबेल पुरस्कार के
लायक नहीं समझा गया। 21 वीं सदी में यानी
वर्ष 2011 में नोबेल पुरस्कार पाने वाली
तवाक्कोल कार्मन छठी और पहली महिला
पत्रकार हैं। कार्मन गृहयुद्ध में फंसे देश यमन
की पत्रकार, एक्टिविस्ट और राजनेता हैं। उन्हें
दो और साथियों के साथ नोबेल पुरस्कार दिया
गया था। यह पुरस्कार उन्हें ‘महिलाअोंकी
सुरक्षा और शांति स्थापना के कार्य में पूर्ण
सहभागिता के महिलाअोंके अधिकारों की
रक्षा’ के लिए प्रदान कया गया था। कार्मन
ने कई यमनी पत्रों का संपादन किया। वो सत्ता
के निशाने पर रहीं तथा ‘अरब वसंत’
आंदोलन में भी उन्होंने सक्रिय भागीदारी की।

कार्मन 2005 में स्थापित ‘ वुमेन जर्नलिस्ट
विदाउट चेन’ संगठन की सहसंस्थापिका भी हैं।
यह संस्था महिला अधिकारों के लए लड़ती
है। खास बात यह है कि कार्मन को उम्र के
32 वे साल में ही नोबेल शांति पुरस्कार मिल
गया था।
वैसे नोबेल पुरस्कार के इतिहास में एक
दिलचस्प घटना 2015 में हुई, जब बेलारूस
की पत्रकार और पूर्व सोवियत रूस और
वर्तमान रशिया के हालात की मुखर गवाह
स्वेतलाना अलेक्सीविच को शांति के बजाए
साहित्य का नोबेल पुरस्कार से सम्मानित
किया गया। मानवीय संवदेनाअोंसे जुड़ी
समाचार कथाअोंको साहित्यिक अवदान के

रूप में देखा गया। ये कथाएं मुख्य रूप से
द्वितीय‍ विश्वयुद्ध, चेरनोबिल परमाणु संयत्र
आपदा, सोवियत रूस के अफगानिस्तान में
विनाशकारी सैनिक हस्तक्षेप के संदर्भ में हैं।
नोबेल कमेटी ने पत्रकार स्वेतलाना को
साहित्य का नोबेल देने का औचित्य बताते हुए
कहा था कि ‘उनका बहुस्वरीय लेखन क्लेश का
स्मारक और हमारे समय का साहस है।‘
अब आठवें नंबर पर दो पत्रकार रैप्लर मीडिया
ग्रुप’ की संस्थापक अमेरिकी पत्रकार मारिया
रेसा हैं और रूसी पत्रकार दिमित्री मुरातोव हैं,
जन्हें वर्ष 2021 के नोबेल शांित पुरस्कार के
लए चुना गया है। इन दोनो की तारीफ में
नोबेल कमेटी ने कहा कि इन्हें ‘अभिव्यक्ति
की आजादी की रक्षा के लिए नोबेल पुरस्कार

से सम्मानित किया जा रहा है, क्योंकि बोलने
की आजादी ही लोकतंत्र और स्थायी शांति की
पहली शर्त है। गौरतलब है कि मारिया रेसा
मूलत: फिलीपींस की हैं। उन्हें अपने देश में
सत्ता की ताकत के गलत इस्तेमाल, हिंसा और
तानाशाही के बढ़ते खतरे पर खुलासों के लिए
पहले भी सम्मानित किया जा चुका है। इसी
प्रकार दिमित्री मुरातोव रूस के स्वतंत्र अखबार
‘नोवाजा गजेटा’ के सह-संस्थापक हैं और 24
साल तक अखबार के प्रधान संपादक रहे हैं।
रेसा की दो पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। वो
अपने देश में लगातार सत्ता के निशाने पर
रही हैं। वो राष्ट्रपति रोड्रिगो दुर्तेते की
आलोचक रही हैं। उन पर कई मुकदमे लादे
गए। उन्हें जेल भी जाना पड़ा।

इसी तरह रूस में राष्ट्रपति ब्ला‍दिमीर पुतिन
से पंगा लेकर जीना आसान नहीं हैं। बावजूद
इसके दिमित्री मुरातोव सरकार की पोल खोलते
रहे हैं। शायद इसी का नतीजा था कि रूस में
मुरातोव के पत्र से जुड़े 6 पत्रकारों की हत्याएं
हो चुकी है। मुरातोव याब्लोको पार्टी के सदस्य
भी हैं। दरअसल रूस में साम्यवाद का जनाजा
तो तीस साल पहले ही उठ गया था। लेकिन
बाद में आया पुतिन राज भी असल में
लोकतंत्र के चोले में निरंकुश शासन ही है।
मुरातोव को पु‍तिन सरकार की योजनाअों
की तीखी आलोचना के लिए जाना जाता है।
नोबेल कमेटी ने उनकी प्रशस्ति में कहा कि
मुरातोव कई दशकों से रूस में अभिव्यक्ति की
आजादी की रक्षा कर रहे हैं।  नोबेल कमेटी का
पत्रकारिता के संदर्भ में यह कथन महत्वपूर्ण है कि
‘आजाद, स्वायत्त और तथ्य आधारित

पत्रकारिता सत्ता की ताकत, झूठ और युद्ध के
प्रोपेगंडा से रक्षा करने में अहम है।
अभिव्यक्ति की आजादी और प्रेस की स्वतंत्रता
के बिना देशों के बीच सौहार्द और विश्व
व्यवस्था को सफल बनाना काफी मुश्किल हो
जाएगा।‘ जहां तक भारत का सम्बन्‍ध है, दो
पत्रकारों को नोबेल शांति पुरस्कार मिलना, एक
आईने की तरह है। क्या हमारी पत्रकारिता इस
योग्य है?