सिर्फ गीत ही नहीं, रफ़ी को याद करने के कई बहाने!

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कुछ आवाजें ऐसी होती हैं जो कुछ बरसों के लिए इस धरती पर आती है और सदियों के लिए अमर हो जाती हैं। फिल्मी संगीत की दुनिया में मोहम्मद रफी की आवाज कुछ ऐसी ही आवाज थी, जिसे एक तरह से खुदा की आवाज का दर्जा दिया गया। अपनी मौत के चार दशक बाद भी मोहम्मद रफी अपनी फिल्म ‘पारसमणी’ के इस गीत को याद दिला रहे हैं ‘वो जब याद आए, बहुत याद आए!’ यकीन नहीं होता कि इस आवाज को इस दुनिया से रुखसत किए हुए चार दशक बीत गए!

मौजूदा कर्कशता के दौर में सुबह-शाम कहीं न कहीं से मोहम्मद रफी की आवाज सुनाई दे ही जाती है! मानो कह रही हो ‘तुम मुझे यूँ भूला न पाओगे।’ वाकई मोहम्मद रफी को भूलना बहुत मुश्किल है। ताज्जुब तो तब होता है, जब आज की पीढ़ी के ऐसे युवा जिनका जन्म मोहम्मद रफी के इंतकाल के बाद हुआ, वे भी मोहम्मद रफी के गीत गुनगुनाते देखे जाते हैं। कहते हैं कि संगीत ईश्वर की आराधना का दूसरा रूप है। वाकई मोहम्मद रफी की रूहानी आवाज को सुनकर ईश्वर के अस्तित्व पर यकीन होने लगता है। पता नहीं उनकी आवाज में क्या जादू था, कि परदे पर जिस किरदार पर गीत फिल्माया जा रहा हो, मोहम्मद रफी की आवाज हुबहू उस कलाकार की आवाज के साथ इस तरह से घुलमिल जाती थी। लगता ही नहीं था कि कोई पार्श्वगायन कर रहा है।

आवाज चाहे दिलीप कुमार, शम्मी कपूर या राजेन्द्र कुमार की हो, या फिर जॉनी वॉकर की! मोहम्मद रफी उसे अपने अंदाज से वास्तविक बना देते थे। ऐसे ही एक वाक़ये पर शम्मी कपूर ने कहा था कि मैं विदेश में था और मोहम्मद रफी शंकर जयकिशन में ‘एन इवनिंग इन पेरिस’ के गीत ‘आसमान से आया फरिश्ता’ की रिकार्डिंग कर रहे थे। उन्होंने जयकिशन से पूछा यह किस पर पिक्चराइज किया जाएगा, तब उन्हें बताया गया कि शम्मी कपूर पर, तो उन्होंने कहा कि इस अंतरे में यह ऐसी हरकत करेगा और ऐसे हाथ हिलाएगा। यह कहते हुए उन्होंने पूरा गीत गा दिया और जब शम्मी कपूर पर यह पिक्चराइज किया गया तो ऐसा लगा जैसे वह उसे अपनी ही आवाज में गा रहे हों।

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कुछ लोगों को ऐसा लगता होगा कि मोहम्मद रफी ने राजकपूर के लिए कभी गाने नहीं गाए होंगे, तो उन्हें बताना जरूरी होगा कि ऐसी कई फिल्में हैं जिसमें मोहम्मद रफी ने राजकपूर के लिए पार्श्वगायन किया था। इन फिल्मों में दो उस्ताद, अंदाज और एक दिल सौ अफसाने जैसी फिल्में शामिल हैं जिनके गाने बकायदा हिट भी हुए हैं। मजे की बात तो यह है कि मोहम्मद रफी ने किशोर कुमार जैसे पार्श्वगायक के लिए भी गाने गाए! अशोक कुमार निर्मित फिल्म ‘रागिनी’ के शास्त्रीय संगीत पर आधारित गीत ‘मन मोरा बावरा’ के लिए जब किशोर कुमार से बात की गई, तो वे अड़ गए कि जब तक इसे रफी नहीं गाएंगे वे फिल्म में काम नहीं करेंगे। इसी तरह ‘शरारत’ के गीत ‘अजब है दास्तां है यह जिंदगी के लिए’ भी उन्होंने रफी को ही याद किया। किशोर कुमार और मोहम्मद रफी के बीच गुरु-शिष्य जैसा रिश्ता था। यही कारण है कि 31 जुलाई 1980 को जब मोहम्मद रफी की मौत हुई, तो किशोर कुमार बहुत देर तक उनके पैरों से लिपटकर रोते रहे थे।

मोहम्मद रफी की न केवल आवाज ईश्वरीय थी, बल्कि उनके गुण भी कुछ ऐसे ही थे। वे हमेशा बिना शोर-शराबे के जरूरतमंदों की मदद किया करते थे। एक बार उनके एक पेंटर मित्र उनसे मिलने आए जिनका शर्ट फटा हुआ था। मोहम्मद रफी ने उसे देख लिया, लेकिन कुछ कहा नहीं! लेकिन अगले ही दिन अपने ड्राइवर के हाथों दो बड़े सूटकेस में एक दर्जन शर्ट पैंट और सूट पहुंचा दिए। ऐसे ही जितेन्द्र की फिल्म ‘दीदारे यार’ जिस समय शुरू आरंभ हुई, तो मोहम्मद रफी से एक गीत के लिए 4 हजार रुपए तय हुए। लेकिन, फिल्म को बनने में चार साल लग गए! तब दूसरे गायकों ने 20 हजार रुपए लिए तो जितेन्द्र ने उन्हें भी 20 हजार का भुगतान किया। अगले ही दिन रफी ने जितेन्द्र को फोन लगाकर कर कहा क्या तेरे पास ज्यादा पैसे आ गए हैं और 16 हजार रुपए वापस लौटा दिए।

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रफी में सादगी और सौम्यता का अनोखा संगम था। वह जितनी जल्दी रूठ जाते थे, उतनी ही जल्दी मान भी जाते थे। कई मौके तो ऐसे आए हैं जब संगीतकारों की नाराजगी के लिए वह आगे से पहल करते थे जिसे देखकर सामने वाला पानी पानी हो जाता था। एक बार ऐसा मौका आया जब उन्हें ओपी नैयर का एक गीत रिकॉर्ड करना था। ओपी नैयर बहुत अनुशासित संगीतकार थे। उनका काम घड़ी की सुईयों के साथ चलता था। उन्होंने रफी से समय निश्चित कर साजिंदों को बुला लिया। स्टूडियो बुक कर लिया और रफी का इंतजार करते रहे। उन्हें यकीन था कि रफी नियत समय पर आ जाएंगे। लेकिन, जब नियत समय से दो घंटे ज्यादा हो गए तो नैयर आग से तमतमाने लगे, तभी रफी माफी मांगते हुए वहां आए। उन्होंने बताया कि शंकर जयकिशन के एक गीत को रिकॉर्ड करने में देर हो गई। इस पर ओपी नैयर ने कहा अब तुम शंकर जयकिशन के लिए ही गाओ। आज से नैयर तुम से गाने नहीं गवाएगा। तब नैयर महेन्द्र कपूर से गवाने लगे। इसके बाद एक दौर ऐसा भी आया जब ओपी नैयर का कामकाज कम होने लगा। तब एक दिन रफी खुद उनके घर आए और कहने लगे नैयर साहब अब तो माफ कर दो। तब नैयर ने उन्हें गले लगा लिया और दोनों की जोड़ी ने फिर एक से बढ़कर एक गीत दिए।

पैसों के प्रति उनकी उदारता के चलते ही लता मंगेशकर के साथ उनका मनमुटाव हो गया। लता मंगेशकर ने अपने गीतों की रायल्टी के लिए संगीतकारों और रिकॉर्डिंग कंपनियों से लड़ाई की। तब मोहम्मद रफी ने कहा कि हमें तो गाने की रिकॉर्डिंग के समय ही पैसे मिल गए। इसलिए हमें रॉयल्टी के लिए लड़ाई नहीं करना चाहिए। यह बात लता मंगेशकर को जमी नहीं और दोनों ने कई सालों तक साथ नहीं गाया। तब उनके अधिकांश गीत सुमन कल्याणपुर और आशा के साथ रिकार्ड किए गए, जो हिट भी हुए। लेकिन, शंकर जयकिशन की पहल पर एक बार फिर दोनों साथ गाने लगे और अपने अंतिम समय तक दोनों ने फिल्म संगीत का खजाना लबालब किया। आज जब बॉलीवुड में साम्प्रदायिकता को लेकर प्रलाप किया जा रहा है, तब मोहम्मद रफी को याद किया जाना इसलिए भी प्रासंगिक हो जाता है। क्योंकि, वे ऐसे शख्स थे जिन्होंने सबसे ज्यादा भक्ति गीत गाए और बॉलीवुड को हमेशा साम्प्रदायिकता से दूर रखने में योगदान दिया था। शायद इसी कारण ऐसा लगता है जैसे रफी हमारे आसपास ही मौजूद होकर कह रहे हों, तुम मुझे यूँ भूला न पाओगे!