ऐसे “नाटो” से बेहतर था “नोटा” का चुनाव …

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यह यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की की मूर्खता है या अहंकार, लेकिन तबाही का मंजर देखकर यूक्रेन की पग-पग जमीन रूदन करने को मजबूर है। जन-जन का कलेजा मुंह को आ रहा है। सैकड़ों साल का सृजन विनाश की भेंट चढ़ चुका है। जेलेंस्की का “नाटो” प्रेम बर्बादी, बदकिस्मती, अपनों के प्रति बेरहमी के लिए हजारों साल तक याद किया जाएगा। लग तो ऐसा रहा है कि जैसे हनुमान ने सोने की पूरी लंका को जलाकर राख कर दिया हो और तब भी अहंकार के आवरण में लिपटी रावण की मूर्खता यह मानने को तैयार नहीं कि सीता को सम्मान के साथ लौटाकर खुद को महाविनाश से बचा लिया जाए।
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यूक्रेन का हाल भी वैसा ही हो रहा है कि मानो विभीषण की कुटिया की तरह ही कोई इमारत खाक होने से बची हो। पर जेलेंस्की हैं कि नाटो-यूरोपियन प्रेम में ऐसे अंधे हो गए हैं जैसे अंधे धृतराष्ट्र ने पुत्र प्रेम में पूरे कुल का ही विनाश करवा दिया था। न ही रावण को वाहवाही मिली थी और न ही धृतराष्ट्र को। दोनों ही अंधे हो गए थे, अहंकार के मद में मूर्खता नजर नहीं आ रही थी। यहां हम बात राम-कृष्ण की नहीं करना चाहते। यहां हम बात स्वर्ग-नरक की नहीं करना चाहते। यहां हम बात न्याय-अन्याय की नहीं करना चाहते। यहां हमारा मुद्दा परिस्थितियों पर विचार करने का है। यहां हमारा मुद्दा राजा के उस कर्तव्य का है, जिसमें वह प्रजा का पालक है।
राज्य के संसाधनों का रक्षक है। तब भी नाटो प्रेम में अंधे होकर राष्ट्र के संसाधनों की तबाही और नागरिकों को अनाथ कर रोने-बिलखने के लिए मजबूर कर यह वाहवाही लूटना कि मैं यूक्रेन छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगा या अब यूक्रेन रक्षात्मक की जगह आक्रामक होकर युद्ध का सामना कर रहा है…आखिर कितना समझदारी और उपलब्धि भरा फैसला है? “नाटो” के सदस्य जब साफ कर चुके हैं कि वह यूक्रेन के साथ रण में कूदने को तैयार नहीं हैं, तब क्या आर्थिक और सैन्य मदद से यूक्रेन हकीकत पर पर्दा डालने में सफल हो सकेगा? बेहतर तो यही था कि यूक्रेन ऐसे “नाटो” को काला सागर में डुबाकर मार देता और तीस नाटो (नार्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन) सदस्यों और यूरोपियन यूनियन को नकारने के लिए “नोटा” (नन ऑफ द एबव) के विकल्प को चुनकर अपने देश की बर्बादी को बचा लेता।
अपने नागरिकों को शांति से जीने का अवसर देता। पड़ोसी उस भाई की तरह होता है, जो सुख-दुःख में हमेशा ही सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। विभीषण बने तो अपने ही कुल का नाश करवा सकता है और लक्ष्मण हो तो भाई को बड़े से बड़े संकट से उबार सकता है। यूक्रेन की मूर्खता यही है कि वह “विभीषण” बनकर पड़ोसी भाई रूस के महाविनाश की साजिश में ताल ठोककर शामिल हो गया। और रूस को इस महाविनाश का आमंत्रण दे दिया।
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बेहतर तो यही था कि युद्ध न होता। युद्ध हो गया था, तो तबाही होने से बचा ली जाती और बातचीत के जरिए समस्या का हल तलाशने का रास्ता जेलेंस्की चुन लेते। बर्बाद हो गए शहर और सभी महत्वपूर्ण ठिकाने, तब भी यूक्रेन के आभारी रहते। दुर्भाग्य तो यह है कि यूक्रेन अब भी नाटो-यूरोपियन यूनियन की मृगमारीचिका में उलझा है। आखिर कौन होगा इन मौतों का जिम्मेदार, शहरों की बर्बादी का उत्तरदायित्व कौन लेगा? युद्ध के साथ-साथ अब बात तेल के खेल की आ गई। अगर तेल यानि पेट्रोल-डीजल के दाम ने आग लगाई, तब पूरी दुनिया ही झुलसेगी।
रूस के उप प्रधान मंत्री अलेक्जेंडर नोवाक ने चेतावनी देते हुए कहा कि रूसी तेल आयात पर प्रतिबंध के विनाशकारी परिणाम देखने को मिलेंगे, क्योंकि पश्चिमी देश यूक्रेन से जंग के बीच मास्को पर और ज्यादा प्रतिबंधों पर विचार कर रहे हैं। रूसी तेल पर प्रतिबंध से वैश्विक बाजारों में हाहाकार मचेगा और कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में अप्रत्याशित वृद्धि होगी। कच्चे तेल की कीमत 300 डॉलर प्रति बैरल के पार भी पहुंच सकती है। ऐसे में क्या होगा पूरी दुनिया का? क्या अब ब्रिटेन के हथियार दुनिया को तीसरे विश्व युद्ध की विभीषिका में झौंकेगे?
या फिर कीव पर कब्जा कर रूस जेलेंस्की और उसके सहयोगियों को बंदी बनाकर या मौत के घाट उतारकर यूक्रेन का विलय कर लेगा? और तब अमेरिका, ब्रिटेन और नाटो सदस्य उस उचित समय की प्रतीक्षा करेंगे, जब रूस को नेस्तनाबूत कर यूक्रेन की तबाही का बदला लेकर हिसाब-किताब बराबर किया जाएगा। यह सब महाविनाश के समीकरण हैं, जिसमें कोई नहीं जीतेगा और सब हारेंगे। जैसे यूक्रेन अब जीतकर भी तबाही पर शोक मनाने के अलावा कुछ हासिल नहीं कर सकता, तो रूस भी जीतकर कुछ भी हासिल नहीं कर पाएगा। बेहतर तो यही होता यूक्रेन “नाटो” की जगह “नोटा” को चुनकर अपने राष्ट्र को तबाही से बचा लेता। रूस को अपना दोस्त बना लेता।