अब 2 जून की नहीं, डिजिटल रोटी कहिए जनाब!!

223

अब 2 जून की नहीं, डिजिटल रोटी कहिए जनाब!!

संजीव शर्मा की खास प्रस्तुति 

वक्त बदल गया है और उसके साथ बदल गई है हमारी 2 जून की रोटी। कभी वह गोल, मुलायम, माँ के हाथ की थी, जिसकी खुशबू से पेट के साथ-साथ तन मन भी भर जाता था। लेकिन अब तो रोटी भी स्टार्टअप हो गई है।

पहले रोटी केवल रोटी थी, अब वह ग्लूटेन-फ्री, कीटो-फ्रेंडली, ऑर्गेनिक, मल्टीग्रेन, प्रोटीन-लोडेड हो गई है। बाजार में अब एक रोटी के साथ इतने टैग लगे होते हैं कि लगता है, ये खाने की चीज कम, इंस्टाग्राम की रील ज्यादा है। पहले माँ प्यार से पुचकारती थी कि रोटी खा लो, ठंडी हो जाएगी लेकिन अब रोटी खुद बताती है कि मुझे माइक्रोवेव में गरम करो, वरना मज़ा नहीं आएगा।

और अब रोटी 2 जून वाली नहीं रही बल्कि कीमती हो गई है। अब 2 जून की रोटी कमाने के लिए अब चार पहर काम करना पड़ता है। पहले रोटी गेहूँ खेत से आए घर के गेहूं से बनती थी, अब रोटी सुपरमार्केट से आती है, और उसका दाम सुनकर लगता है जैसे रोटी गेहूँ की नहीं, सोने से बनी है । एक रोटी की कीमत में पहले पूरी थाली आ जाती थी मतलब दाल, चावल, सब्जी, और ऊपर से पापड़ अचार और सलाद फ्री। अब भरपेट रोटी ही मिल जाए तो बहुत है।

अब समय खाली पेट भरने का नहीं है बल्कि हेल्थ कॉन्शस भोजन का है इसलिए रोटी को अब कैलोरी काउंटर के साथ परोसा जाता है। पहले परिवार के बुजुर्ग कहते थे भरपेट रोटी खाने से ताकत मिलती है और अब नए जमाने के फिटनेस ट्रेनर कहते है कि रोटी खाओगे तो फैट बढ़ जाएगा। पहले रोटी हाजमा दुरुस्त रखती थी लेकिन अब पाचन तंत्र की दुश्मन बन गई है। बेचारी रोटी, जो कभी परिवार के प्यार का प्रतीक थी, अब विलेन बन गई। अब गेहूं की रोटी ज्वार, बाजरा, रागी के साथ नए नए अवतार ले रही है। लेकिन इसके लिए स्वाद भूलना होगा क्योंकि वो तो जैसे गेहूं की रोटी के साथ ही छुट्टी पर चला गया है।

अब रोटी भी डिजिटल हो गई है। ऑनलाइन ऑर्डर करो, मिनटों में डिलीवरी। लेकिन 8 मिनट में डिलीवरी की जल्दबाजी में रोटी गोल नहीं, त्रिकोण भी हो जाती है। कभी-कभी तो लगता है, रोटी नहीं, नक्शा डिलीवर हुआ है। और ऊपर से टैक्स अलग। जीएसटी, सर्विस चार्ज, डिलीवरी फी, प्लेटफार्म फीस, रेन चार्ज और टिप वगैरह मतलब रोटी खाने से पहले जेब खाली।

अब दो जून की रोटी सिर्फ पेट की भूख नहीं मिटाती, वो जेब, दिमाग और धैर्य की भी परीक्षा लेती है। पहले रोटी बनाना कला थी, अब रोटी खाना कमाना और खाना कला है। पता नहीं, माँ की वो गोल, गरम और मनुहार वाली स्वादिष्ट रोटी फिर कब लौट कर आएगी से लौट कर आएगी तब तक ये नए जमाने की डिजिटल और मिलावटी रोटी हमें दो जून में नहीं महीने भर की कमाई में ही नसीब होती रहेगी।

वैसे, भारतीय संस्कृति की आत्मा और रसोई की शान हमारी प्रिय रोटी सिर्फ भोजन नहीं, बल्कि इतिहास, संस्कृति और मेहनत का प्रतीक है। तभी तो दो जून की रोटी जैसे लोकप्रिय मुहावरों ने जन्म लिया। बताया जाता है कि रोटी का इतिहास उतना ही पुराना है जितना मानव सभ्यता का विकास। रोटी का इतिहास करीब 10,000 साल पुराना माना जाता है, जब मानव ने खेती शुरू की थी। सिंधु घाटी सभ्यता में भी गेहूँ और जौ की खेती के सबूत मिलते हैं। पुरातात्विक खुदाई में रोटी बनाने के लिए तवे और चूल्हे जैसे उपकरण मिले हैं। वैदिक काल में भी रोटियों का विभिन्न नामों से जिक्र मिलता है।

मध्यकाल में बदलाव के साथ साथ रोटी भी क्षेत्रीय रंग में रंगती गई । उत्तर भारत में गेहूँ की रोटी, दक्षिण में चावल की रोटी और पश्चिम में बाजरे की भाखरी ने भारतीय खान पान में अपनी अमिट जगह बना ली थी । मुगलकाल में नान और पराठे जैसे व्यंजनों ने रोटी को शाही गरिमा प्रदान कर दी । तंदूर का आविष्कार भी इस दौर की देन माना जाता है जिसने फिर नान और तंदूरी रोटी को जन्म दिया। मसाले, घी और मेवों के साथ रूमाली, शीरमाल और कुलचा जैसे परिवर्तित रूप में रोटी सिर्फ भोजन नहीं, बल्कि उत्सव का हिस्सा बनती गई।

ब्रिटिश काल में रोटी सिर्फ भोजन या पेट भरने का माध्यम नहीं, बल्कि आजादी की प्रतीक बन गई थी। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में रोटी और कमल ने गांव गांव में आजादी की अलख जगाने में अहम भूमिका निभाई। यह रोटी की सामाजिक-राजनीतिक ताकत को दर्शाता है।

अब मौजूदा दौर में रोटी ने नए-नए रूप धर लिए हैं। गेहूँ के साथ ज्वार, बाजरा, मक्का और रागी जैसी फसलों ने क्षेत्रीय स्वाद को बढ़ावा दिया। मसलन पंजाब की मक्के की रोटी, राजस्थान की बाजरे की रोटी और दक्षिण भारत की रागी रोटी ने पोषण और स्वाद का अनूठा मेल पेश किया और यह राज्यों की सीमाओं को पार कर देशव्यापी हो गईं। इसी तरह स्वतंत्र भारत में हरित क्रांति ने गेहूँ और रोटी हर घर की थाली में स्थायी जगह दे दी।

अब रोटी ने वैश्वीकरण की राह पकड़ ली है। ग्लूटेन-फ्री, कीटो और मल्टीग्रेन रोटियाँ स्वास्थ्य के प्रति जागरूक पीढ़ी की पसंद बन रही हैं लेकिन आम लोगों की हैसियत से दूर होती जा रहीं हैं। रोटी अब सिर्फ घर की रसोई तक सीमित नहीं है बल्कि यह रेस्तराँ के मेन्यू, ऑनलाइन डिलीवरी और यहाँ तक कि प्री-पैकेज्ड रूप में सुपरमार्केट में आन बान और शान से उपलब्ध है। फिर भी, माँ के हाथ की रोटी का स्वाद अब भी अतुलनीय है।

हमारे देश में रोटी सिर्फ भोजन नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति का प्रतीक है। रोटी, कपड़ा और मकान जीवन की बुनियादी जरूरतों का पर्याय है। रोटी मेहनत, सादगी और एकजुटता का भी प्रतीक है। रोटी का इतिहास उतना ही समृद्ध और विविध है जितना भारत स्वयं। खेतों से लेकर तंदूर तक, गाँव की चूल्हों से लेकर मॉडर्न किचन तक, रोटी ने हर दौर में अपनी जगह बनाई। यह सिर्फ पेट नहीं, बल्कि दिलों को भी जोड़ती है। चाहे वह सादी चपाती हो या मसालेदार पराठा, रोटी हमारी संस्कृति की थाली में हमेशा गरम रहेगी।