

अब राजा भभूत सिंह के नाम से जाना जाएगा पचमढ़ी…
कौशल किशोर चतुर्वेदी
तीन जून 2025 की तारीख पचमढ़ी के लिए बहुत खास होने वाली है। ‘विरासत के साथ विकास’ की कड़ी में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव इस कैबिनेट बैठक को नर्मदांचल के शिवाजी यानि राजा भभूत सिंह को समर्पित करने वाले हैं। मध्यप्रदेश की विभूतियों को समर्पित कैबिनेट बैठकों की लंबी श्रंखला हो गई है। रानी दुर्गावती हों, देवी अहिल्या हों या फिर मध्यप्रदेश का नाम रोशन करने वाले दूसरे महान व्यक्तित्व और विरासत को संजोए शहर, नगर…अब इसी कड़ी में राजा भभूत सिंह को पूरा प्रदेश, देश और दुनिया जान सकेगी। पचमढ़ी में होने वाली कैबिनेट बैठक बहुत बड़ा संदेश देकर तीन जून को कुछ खास बनाएगी। जिससे पचमढ़ी के साथ पर्यटक राजा भभूत सिंह को भी याद रखेंगे और पचमढ़ी खाली हिल स्टेशन नहीं बल्कि राजा भभूत सिंह के नाम से भी पहचाना जाएगा।
आइए थोड़ा सा जानते हैं कि राजा भभूत सिंह कौन थे? नर्मदांचल के शिवाजी, पहाड़ी रास्तों के हर कोने से वाकिफ, अंग्रेजों के लिए एक पहेली थे राजा भभूत सिंह। देनवा घाटी में जब अंग्रेजी मिलिट्री और मद्रास इन्फेंट्री की टुकड़ियों से युद्ध हुआ, तो अंग्रेजी सेना को बुरी तरह हार का स्वाद चखाने वाले थे राजा भभूत सिंह। नर्मदांचल में 1857 की क्रान्ति का सूत्रपात करने वाले थे राजा भभूत सिंह की। इसीलिए उनके सम्मान में मध्यप्रदेश कैबिनेट की बैठक पचमढ़ी में आयोजित होने जा रही है। उनके किस्से पचमढ़ी और नर्मदांचल में काफी मशहूर हैं।
सतपुड़ा की घनी वादियों में हर्राकोट राईखेड़ी वंश के वीर राजा भभूत सिंह का जन्म हुआ था। उनके रक्त में उनके दादा, ठाकुर मोहन सिंह की वीरता की धरोहर बसी थी, जिन्होंने 1819-20 में नागपुर के पराक्रमी पेशवा अप्पा साहेब भोंसले के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेजों का डटकर मुकाबला किया था। उनके दादा ठाकुर मोहन सिंह ने सीताबर्डी के युद्ध में पेशवा अप्पा साहेब का साथ दिया। अंग्रेजों ने अपनी चालाकी और ताकत से पेशवा को अपमानजनक संधि के लिए मजबूर किया, लेकिन अप्पा साहेब चुप बैठने वालों में से न थे। वे भेस बदलकर नर्मदांचल की ओर निकल पड़े, शक्ति जुटाने के लिए। महादेव की पहाड़ियों में छिपकर उन्होंने गुप्त रूप से आदिवासी समुदाय को संगठित किया, अंग्रेजों के खिलाफ एक चिंगारी सुलगाने की तैयारी में। इसी दौरान ठाकुर मोहन सिंह ने अप्पा साहेब का साथ दिया, और उनकी वीरता की प्रेरणा से युवा भभूत सिंह ने 1857 की सशस्त्र क्रांति का बीड़ा उठाया। सतपुड़ा की गोद में, स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी तात्या टोपे के आह्वान पर, भभूत सिंह आजादी की मशाल लेकर निकल पड़े। अक्टूबर 1858 के अंतिम सप्ताह में, तात्या टोपे ने अंग्रेजों की आंखों में धूल झोंकते हुए, ऋषि शांडिल्य की तपोभूमि सांडिया के पास नर्मदा नदी पार की। वहां, महुआखेड़ा फतेहपुर के राजगौंड राजा ठाकुर किशोर सिंह ने अंग्रेजों की परवाह न करते हुए तात्या का भव्य स्वागत किया। पचमढ़ी की सुरम्य वादियों में, भभूत सिंह और तात्या टोपे ने मिलकर आजादी के आंदोलन की योजना बनाई। आठ दिनों तक उन्होंने सतपुड़ा की गोद में डेरा डाला, आगे की रणनीति तैयार की।
हर्राकोट के जागीरदार भभूत सिंह का आदिवासी समाज पर गहरा प्रभाव था। एक बार सोहागपुर से आए थानेदार ने उनसे मुर्गियों की मांग की, जिसे भभूत सिंह ने अपमानजनक माना। बस, यहीं से उनके दिल में विद्रोह की चिंगारी भड़क उठी। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का बिगुल बजा दिया और इस क्षेत्र में अंग्रेजों को चैन से बैठने न दिया। फतेहपुर और शोभापुर के राजाओं का साथ मिलने से भभूत सिंह की ताकत और बढ़ गई। उनकी रणकुशलता शिवाजी जैसी थी। पहाड़ी रास्तों के हर कोने से वाकिफ भभूत सिंह, अंग्रेजों के लिए एक पहेली बन गए, जो इस क्षेत्र की भौगोलिक परिस्थितियों से अनजान थे। देनवा घाटी में जब अंग्रेजी मिलिट्री और मद्रास इन्फेंट्री की टुकड़ियों से भभूत सिंह का युद्ध हुआ, तो अंग्रेजी सेना बुरी तरह परास्त हुई। 1865 की सेटलमेंट रिपोर्ट में अंग्रेज अधिकारी एलियट ने भभूत सिंह के इस विद्रोह का जिक्र किया, जिसमें उनकी पूरी ताकत से अंग्रेजों को चुनौती दी गई थी।
अपनी छापामार युद्ध नीति के कारण भभूत सिंह को नर्मदांचल का शिवाजी कहा जाता था। एलियट ने लिखा कि उन्हें पकड़ने के लिए मद्रास इन्फेंट्री को बुलाना पड़ा था। 1860 तक भभूत सिंह अपनी सेना के साथ अंग्रेजों से लगातार जूझते रहे, और अंग्रेज बार-बार हारते रहे। आखिरकार, दो साल की अथक कोशिशों के बाद, अंग्रेजों ने भभूत सिंह को गिरफ्तार कर लिया। 1860 में जबलपुर में उन्हें मौत की सजा सुनाई गई। कुछ कहानियाँ कहती हैं कि उन्हें फाँसी दी गई, तो कुछ का मानना है कि गोलियों से छलनी कर दिया गया।
सतपुड़ा के घने जंगलों में मधुमक्खियों के छत्तों का भी भभूत सिंह ने युद्ध में इस्तेमाल किया था। पिपरिया से पचमढ़ी रोड पर सिमारा गाँव में उनकी ड्योढ़ी थी। आदिवासी जागीरदार के रूप में विख्यात, भभूत सिंह को नर्मदा क्षेत्र का वीर सपूत माना जाता है। 1857 के विद्रोह में उन्होंने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया। तात्या टोपे के सहयोगी के रूप में, और आज के बोरी क्षेत्र के जागीरदार के तौर पर, उनकी वीरता की गाथाएं आज भी लोकमानस में जीवंत हैं, जैसे सतपुड़ा की हवाएं जो उनकी कहानी को गुनगुनाती हैं।
तो जिस तरह महाराज शिवाजी ने अपने शौर्य, साहस और पराक्रम के साथ छापामारी युद्ध से मुगलों को नाकों चने चबवाए थे, उसी तरह राजा भभूत सिंह ने आजादी की पहली लड़ाई में पचमढ़ी के आसपास अंग्रेजों को छापामार युद्ध से कई बार धूल चटाई थी। पर समय के साथ-साथ हमारे यर गौरव सीमित क्षेत्र में सिमट गए। डॉ. मोहन यादव के विरासत संग विकास की कड़ी में पचमढ़ी का यह गौरवशाली व्यक्तित्व अब जन-जन की जुबान पर आकर गौरवान्वित करेगा…यही उम्मीद है…।