अब समान  नागरिक संहिता कानून लाने की तैयारी

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अब समान  नागरिक संहिता कानून लाने की तैयारी

आलोक मेहता

गुजरात चुनाव के लिए भारतीय जनता पार्टी के घोषणा पत्र  में  समान नागरिक संहिता लागू करने की बात कही थी | चुनाव परिणाम आने   के एक दिन बाद ही राज्यसभा में इस पर विचार  और लागू करने का विधेयक     पेश कर दिया गया   भाजपा सांसद किरोड़ी लाल मीणा ने इसे पेश किया |बिल को पेश करने के पक्ष में 63 वोट पड़े जबकि विपक्ष में 23 वोट डाले गए | मीणा द्वारा पेश निजी विधेयक में संपूर्ण भारत के लिए एक समान नागरिक संहिता तैयार करने और इसके क्रियान्वयन के लिए एक राष्ट्रीय निरीक्षण और जांच समिति गठित करने का प्रावधान है। साल 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले भी बीजेपी ने अपने घोषणापत्र में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने को लेकर वादा कर चुकी है | असल में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी चुनावी वायदों और जन समर्थन मिलने के बाद बड़े से बड़े निर्णय लेने के खतरे उठाने में कभी संकोच और देरी नहीं करते हैं |

इस बार राज्य सभा में भी कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, डीएमके,एनसीपी और टीएमसी समेत तमाम विपक्षी दलों ने बिल पेश करने का जोरदार विरोध किया. बिल को पेश करने का विरोध करते हुए समाजवादी पार्टी सांसद रामगोपाल यादव ने कहा कि मुसलमान अपनी चचेरी बहन से शादी करना सही मानते हैं क्या हिंदू ऐसा कर सकते हैं. इसीलिए सभी धर्मों की अलग-अलग परंपरा है. बीजू जनता दल ने वोटिंग में हिस्सा नहीं लिया और सदन से वॉकआउट किया. केंद्रीय मंत्री और राज्यसभा में सदन के नेता पीयूष गोयल ने कहा कि किसी भी सदस्य को बिल पेश करने और अपने क्षेत्र के मुद्दे उठाने का अधिकार है. उन्होंने विरोध कर रहे सभी पार्टियों से कहा कि बिल पेश होने के बाद जब इस पर चर्चा होगी तब हर पार्टी अपनी बात रख सकेगी. इसके लिए राज्यसभा में बहस होनी चाहिए है.

पिछले कई महीनों से लगातार देश में समान नागरिक संहिता यानी यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने की मांग उठ रही है. बीजेपी शासित उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, गुजरात और कर्नाटक जैसे राज्यों ने पहले से ही यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने की प्रक्रिया शुरू करने की बात कही है| ऐसे में अब संसद में  पेश हुआ बिल अहम है. हालांकि संसद में प्राइवेट मेंबर बिल को पारित करना आसान नहीं होता है |आज तक संसद के इतिहास में केवल 3 प्राइवेट मेंबर बिल ही पारित हुए हैं. आखरी बार 1971 में ऐसा कोई बिल पारित हुआ था.समस्या यह है कि  शादी, तलाक़, उत्तराधिकार और गोद लेने के मामलों में भारत में विभिन्न समुदायों में उनके धर्म, आस्था और विश्वास के आधार पर अलग-अलग क़ानून हैं.गोवा में 1867 का समान नागरिक क़ानून है जो कि उसके सभी समुदायों पर लागू होता है लेकिन कैथोलिक ईसाइयों और दूसरे समुदायों के लिए अलग नियम हैं. जैसे कि केवल गोवा में ही हिंदू दो शादियां कर सकते हैं.

भारत में समान नागरिक संहिता केंद्रीय और राज्य सरकारों की आम रुचि का मुद्दा रहा है. साल 1970 से राज्य अपने ख़ुद के क़ानून बना रहे हैं.कई सालों के बाद साल 2005 में एक संशोधन किया गया जिसके बाद मौजूदा केंद्रीय हिंदू व्यक्तिगत कानून में बेटियों को पूर्वजों की संपत्ति में बेटों के बराबर हक़ दिया गया. कम से कम पांच राज्यों ने इसे सक्षम करने के लिए अपने क़ानूनों में पहले ही बदलाव कर दिया था.

अब देखिये कि किस तरह से पर्सनल लॉ अलग-अलग मामलों में अलग-अलग दिखते हैं| गोद लेने का मामला देखें तो हिंदू परंपरा के मुताबिक़ धर्मनिरपेक्ष और धार्मिक दोनों उद्देश्यों के लिए किसी को गोद लिया जा सकता है क्योंकि दूसरी ओर इस्लामी क़ानून में गोद लेने को मान्यता नहीं दी जाती है लेकिन भारत में एक धर्मनिरपेक्ष ‘जुवेनाइल संपत्ति का वारिस एक पुरुष हो सकता है और परिजनों का अंतिम संस्कार पुरुष ही कर सकता है |कानून  है जो नागरिकों को धर्म की परवाह किए बग़ैर नागरिकों को गोद लेने की अनुमति देता है.

सुप्रीम कोर्ट भी सामान कानूनों पर अस्पष्ट नज़र आता है | बीते चार दशकों में अलग-अलग फ़ैसलों में इसने ‘राष्ट्र की अखंडता’ के लिए सरकार को एक समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए प्रेरित किया है.इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी पिछले साल एक याचिका पर      टिप्पणी करते हुए समान नागरिक संहिता का समर्थन किया और केंद्र से इसे लागू करने की दिशा में काम करने के लिए भी कहा. अदालत ने कहा, ‘यह राज्य की जिम्मेदारी है वह देश के नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता हासिल लागू करे और नि:स्संदेह, उसके पास ऐसा करने की विधायी क्षमता है.

देश के लिए समान नागरिक संहिता का जोरदार समर्थन करते हुए  संविधान सभा में डॉक्टर भीमराव आंबडेकर ने कहा था “मुझे लगता है कि मेरे अधिकांश मित्र जिन्होंने इस संशोधन पर बात की है, वे यह भूल गए हैं कि 1935 तक उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत शरीयत कानून के अधीन नहीं था| इसने उत्तराधिकार के मामले में और अन्य मामलों में हिंदू कानून का पालन किया, यह पालन इतना व्यापक और मजबूत था कि अंतत: 1939 में केंद्रीय विधानमंडल को मैदान में आना पड़ा और उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रांत के मुसलमानों के लिए हिंदू कानून को निरस्त कर उन पर शरीयत कानून लागू किया गया |उन्होंने आगे कहा, ‘मुझे इस मामले में उनकी भावनाओं का एहसास है, लेकिन मुझे लगता है कि वे अनुच्छेद 35 को लेकर कुछ ज्यादा ही आशंकित हो रहे हैं. यह अनुच्छेद केवल यही प्रस्तावित करता है कि राज्य, देश के नागरिकों के लिए नागरिक संहिता को सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा.’

केएम मुंशी ने इस बहस में हिस्सा लेते हुए बहुत ही दिलचस्प बात कही, ‘… उन नुकसानों को देखें जिनमें नागरिक संहिता नहीं होने पर वृद्धि होगी. उदाहरण के लिए हिंदुओं को लें. हमारे पास भारत के कुछ हिस्सों में ‘मयूख’ कानून लागू है; हमारे पास दूसरे कुछ हिस्सों में ‘मीताक्षरा’ कानून; और हमारे पास बंगाल में ‘दयाबाघ’ नामक कानून है. इस प्रकार स्वयं हिन्दुओं के भी अलग-अलग कानून हैं और हमारे अधिकांश प्रांतों ने अपने लिए अलग-अलग हिन्दू कानून बनाना शुरू कर दिया है. क्या हम इन टुकड़े-टुकड़े कानूनों को इस आधार पर अनुमति देने जा रहे हैं कि यह देश के पर्सनल लॉ को प्रभावित करता है? इसलिए यह केवल अल्पसंख्यकों का सवाल नहीं है बल्कि बहुसंख्यकों को भी प्रभावित करता है |”खुद इस्लामी शासकों में से एक का उदाहरण लेते हुए उन्होंने आगे कहा, ‘ब्रिटिश शासन के तहत मन का यह रवैया कि पर्सनल लॉ मत/पंथ का हिस्सा है, को अंग्रेजों और ब्रिटिश अदालतों द्वारा बढ़ावा दिया गया है. इसलिए हमें इससे आगे बढ़ कर इसे छोड़ देना चाहिए. अगर मैं माननीय सदस्य को याद दिला दूं … तो अलाउद्दीन खिलजी ने कई बदलाव किए, जो शरीयत के खिलाफ थे, हालांकि वह यहां मुस्लिम सल्तनत की स्थापना करने वाले पहले शासक थे |”

एक समान नागरिक संहिता के पक्ष में बोलते हुए और मुस्लिम सदस्यों द्वारा प्रस्तावित संशोधनों का विरोध करते हुए अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर ने कहा कि एक आपत्ति यह दर्ज की गई है कि कि समान नागरिक संहिता से समुदायों में वैमनस्य बढ़ेगा, जबकि सच्चाई इसके बिल्कुल विपरीत है. समान नागरिक संहिता के पीछे विचार यह है कि  आपसी   मतभेदों को बढ़ावा देने वाले कारकों को समाप्त किया जाए | ” संविधान सभा के सदस्यों ने समान नागरिक संहिता के संविधान का हिस्सा होने के पक्ष में भारी मतदान KI संविधान के अनुच्छेद 44 में समान नागरिक संहिता की चर्चा की गई है। राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्व से संबंधित इस अनुच्छेद में कहा गया है कि ‘राज्य, भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा’।समान नागरिक संहिता में देश के प्रत्येक नागरिक के लिए एक समान कानून होता है, चाहे वह किसी भी धर्म या जाति का क्यों न हो।समान नागरिक संहिता में शादी, तलाक तथा जमीन-जायदाद के बँटवारे आदि में सभी धर्मों के लिए एक ही कानून लागू होता है। अभी देश में जो स्थिति है उसमें सभी धर्मों के लिए अलग-अलग नियम हैं। संपत्ति, विवाह और तलाक के नियम हिंदुओं, मुस्लिमों और ईसाइयों के लिए अलग-अलग हैं।इस समय देश में कई धर्म के लोग विवाह, संपत्ति और गोद लेने आदि में अपने पर्सनल लॉ का पालन करते हैं। मुस्लिम, ईसाई और पारसी समुदाय का अपना-अपना पर्सनल लॉ है जबकि हिंदू सिविल लॉ के तहत हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध आते हैं।

                हालांकि, देश की आज़ादी के बाद से समान नागरिक संहिता या यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड  की मांग चलती रही है | इसके तहत इकलौता क़ानून होगा जिसमें किसी धर्म, लिंग और लैंगिक झुकाव की परवाह नहीं की जाएगी | यहां तक कि संविधान कहता है कि राष्ट्र को अपने नागरिकों को ऐसे क़ानून मुहैया कराने के ‘प्रयास’ करने चाहिए | भाजपा सहित कई  संगठन समान नागरिक संहिता की मांग मुस्लिम पर्सनल लॉ के कथित ‘पिछड़े’ क़ानूनों का हवाला देकर उठाते रहे हैं | मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत तीन तलाक़ वैध था जिसके तहत मुसलमान तुरंत तलाक़ दे सकते थे लेकिन मोदी सरकार ने साल 2019 में इसे आपराधिक बना दिया |बीजेपी का चुनावी घोषणा पत्र कहता है कि ‘जब तक भारत समान नागरिक संहिता नहीं अपना लेता है तब तक लैंगिक समानता नहीं हो सकती है.’

विपक्ष कहता है कि भारत जैसे बेहद विविध और विशाल देश में समान नागरिक क़ानून को एकीकृत करना बेहद मुश्किल है| उदाहरण के तौर पर देखें तो हिंदू भले ही व्यक्तिगत क़ानूनों का पालन करते हैं लेकिन वो विभिन्न राज्यों में विभिन्न समुदायों की प्रथाओं और रीति-रिवाजों को भी मानते हैं |दूसरी ओर मुस्लिम पर्सनल लॉ भी पूरी तरह सभी मुसलमानों के लिए समान नहीं हैं| उदाहरण के तौर पर देखें तो कुछ बोहरा मुसलमान उत्तराधिकार के मामले में हिंदू क़ानूनों के सिद्धांतों का पालन करते हैं| |वहीं संपत्ति और उत्तराधिकार के मामलों में अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग क़ानून हैं. पूर्वोत्तर भारत के ईसाई बहुल राज्यों जैसे कि नागालैंड और मिज़ोरम में अपने पर्सनल लॉ हैं और वहां पर अपनी प्रथाओं का पालन होता है न कि धर्म का |

 अमेरिका ही नहीं कट्टरपंथी पाकिस्तान ,  इंडोनेशिया , तुर्की , मिश्र जैसे देशों में समान नागरिक कानून व्यवस्था है | लेकिन भारत में आज़ादी के 75  साल बाद भी इस मुद्दे पर बहस , विधि आयोग , सरकार , संसद केवल विचार विमर्श कर रही है क़ि समान नागरिक संहिता को क़ानूनी रूप कैसे दिया जाए |  विश्व में ऐसा कौनसा समाज होगा , जिसके नाम पर ठेकेदारी करने वाले मुट्ठी भर लोग बच्चों की अच्छी पढाई का विरोध करते हों , बाल विवाह को श्रेष्ठ मानते हों , किसी भी कानून – अदालत – सरकार से ऊपर मानते हों ? सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस संविधान के आधार पर सब शपथ लेते हैं , जिसके बल पर रोजी – रोटी – कपड़ा – मकान लेते हैं , उस संविधान के भाग 4 के अनुच्छेद 44 में लिखे प्रावधान का पालन अब तक नहीं कर रहे हैं | इसमें स्पष्ट लिखा है समान नागरिक कानून लागू करना हमारा लक्ष्य है | अब उत्तराखंड सरकार ने समान नागरिक आचार संहिता का प्रारुप तैयार करने के लिए पूर्व न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया है | लेकिन तत्काल कुछ नेताओं और संगठनों ने विरोध में आवाज उठा दी है |

निश्चित रूप से आज़ादी से पहले संविधान निर्माता और बाद के प्रारम्भिक वर्षों में भी शीर्ष नेताओं ने यही माना होगा कि कुछ वर्ष बाद संविधान के सभी प्रावधानों को लागू  कर दिया जाएगा | उनके इस विश्वास को निहित स्वार्थी नेताओं , संगठनों और कुछ विध्वसकारी तत्वों ने तोड़ा है | नाम महात्मा गाँधी का लेते रहे , लेकिन धर्म और जाति के नाम पर जन सामान्य को भ्रमित कर अँधेरे की गुफाओं में ठेलते रहे | सत्तर वर्षों में दो पीढ़ियां निकल चुकी | आबादी के साथ साधन सुविधाएं बढ़ती गई | वसुधेव    कुटुंबकम  की बात सही माने में सार्थक हो रही है | विश्व समुदाय ही नहीं ग्लोबल विलेज की बात हो रही है | केवल जर्मनी का एकीकरण नहीं हुआ , सोवियत रूस , चीन , अफ्रीका तक बहुत बदल चुके | उन देशों में नाम भले ही कम्युनिस्ट पार्टी रह गए हों , लेकिन नियम कानून व्यवस्था और जन जीवन पूरी तरह उदार और पूंजीवादियों से भी एक कदम आगे रहने वाली व्यवस्था लागू हो गई |भारत ने परमाणु शक्ति सहित हर क्षेत्र में क्रन्तिकारी बदलाव कर लिया | भारत में  राष्ट्रपति , सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश , सेनाध्यक्ष से बड़ा कोई पद है , जो अल्पसंख्यक समाज के सबसे गरीब कहे जा सकने वाले परिवार के व्यक्ति को नहीं मिला ?  लेकिन कुछ कट्टरपंथी संगठन , राजनीतिक दल और उनके नेता अल्पसंख्यक समुदाय के साथ सम्पूर्ण देश को अठारहवीं शताब्दी में धकेलने की कोशिश करते रहते हैं |

अब मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को ही लीजिये | यह कोई संवैधानिक संस्था नहीं है | देश के हजारों असली या नकली एन जी ओ यानी गैर सरकारी संगठन है | वह उन नियमों – कानूनों को समाज पर लादने में लगा रहता है , जो ईरान , पाकिस्तान , सऊदी अरब देशों तक में नहीं लागू हैं | फिर भी ऐसे संगठन को राहुल गाँधी की पार्टी के कागजी नेता तरजीह देते हैं | दाक्षिण भारत के ओवेसी और मुस्लिम लीगी नेताओं को चुनाव में कितने वोट और सीटें मिलती हैं ? मनमोहन सिंह और सलमान खुर्शीद के सत्ता काल में अल्प संख्यक मंत्रालय के लिए कागज पर  सैकड़ों करोड़ के बजट का प्रावधान किया जाता गया  , लेकिन उसका बीस – तीस प्रतिशत भी उन गरीब लोगों पर खर्च नहीं किया गया | ऐसी हालत में यदि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार  सम्पूर्ण समाज के विकास के लक्ष्य को पूरा करने के लिए करोड़ों अल्प  संख्यको  को भी मुफ्त अनाज , शौचालय , मकान , रसोई गैस , शिक्षा , चिकित्सा , कौशल विकास की सुविधाएं देने की कोशिश कर रही है , तो विरोध क्यों होना चाहिए ?

ब्रिटैन , अमेरिका , फ़्रांस , जर्मनी , ऑस्ट्रेलिया , कनाडा जैसे लोकतंत्रक देशों में अल्पसंख्यक समुदाय की अच्छी खासी आबादी है , सरकारों में मंत्री , लंदन में मेयर  ब्रिटिश पाकिस्तानी मूल के मुस्लिम नेता सादिक अमन खान  हैं , लेकिन वहां तो शरीअत के नियम कानून लागू नहीं कराये जा रहे हैं | दुनिया में मुस्लिम महिलाऐं डॉक्टर , इंजीनियर , पॉयलट तक बन रही हैं और भारत के कठमुल्ला लड़कियों की शिक्षा को हिजाब बुर्के में  प्रतिबंधित करने में जुटे हैं | वे  क्या समाज और धर्म के नाम पर धोखा और कुठाराघात नहीं कर रहे हैं ? मुस्लिम . सिख ,ईसाई अपनी धार्मिक आस्था के अनुसार प्रार्थना – अर्चना करते ही हैं ,उनके दैनंदिन जीवन पर किसी नेता या संगठन का अधिकार कैसे हो सकता है ? आअश्चर्य की बात यह है कि भाजपा  ने भी अब तक ऐसे कट्टरपंथी तत्वों  पर कठोर कार्रवाई नहीं की |

समान नागरिक संहिता तैयार करने के लिए  विधि आयोग को जिम्मेदारी दी गई  लेकिन वर्षों तक विचार विमर्श के बावजूद उसने गोल मोल सी अंतरिम रिपोर्ट दे दी |  | पहले भीं  राज्य सभा में किरोड़ीमल मीणा ने गैर सरकारी विधयेक पेश करने की कोशिश की , लेकिन कांग्रेस सहित कुछ दलों ने उस पर चर्चा तक नहीं होने दी  | एक दशक पहले संविधान संशोधन आयोग भी बना था | लेकिन वोट की राजनीति ने बड़े बदलाव नहीं होने दिए |     विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के लिए समयबद्ध कार्यक्रम बन सकता है , सड़क या अन्य निर्माण कार्यों पर अनुबंध की समय सीमा के अनुसार  काम न होने पर जुर्माना हो सकता है , तो देश के हर नागरिक के लिए समान कानून का वायदा या जिम्मेदारी सँभालने वालों के लिए भी समय सीमा का प्रावधान क्यों नहीं होना चाहिए ?

( लेखक आई टी वी नेटवर्क इण्डिया न्यूज़ और आज समाज दैनिक के सम्पादकीय निदेशक हैं )