अब जरूरत तो मीडिया (Media) को आत्मावलोकन की है…!

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अब जरूरत तो मीडिया (Media) को आत्मावलोकन की है…!

अमूमन कोर्ट और खासकर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों पर प्रतिक्रिया देने और उनकी मीमांसा करने वाले मीडिया ने हाल में देश के प्रधान न्यायाधीश एन.वी.रमणा द्वारा मीडिया और विशेष रूप से इलेक्ट्राॅनिक मीडिया पर की गई तल्ख टिप्पणी पर कोई खास प्रतिक्रिया नहीं आई। ऐसा क्यों?

क्या इसलिए कि सीजेआई रमणा ने जो कहा वो हकीकत है या फिर मीडिया इस टिप्पणी पर आत्म चिंतन करने की बजाए एजेंडा चलाने में ही अपना बहुआयामी हित देख रहा है? अथवा मीडिया जगत में हालात अब उस मुकाम तक पहुंच चुके हैं, जहां से विश्वसनीयता के उस बिंदु तक पहुंचने की कोशिश बेमानी है, जो कभी प‍त्रकारिता की साख का आधार होती थी?

जस्टिस रमणा ने हाल में रांची में नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ स्टडी एंड रिसर्च इन लॉ के एक कार्यक्रम में कहा कि आज देश में कई मीडिया संगठन ‘कंगारू कोर्ट’ चला रहे हैं… वो भी ऐसे मुद्दों पर, जिन पर फैसला करने में अनुभवी जजों को भी कठिनाई होती है।

उन्होंने कहा कि न्याय देने से जुड़े मुद्दों पर ग़लत जानकारी और एजेंडा-संचालित बहसें लोकतंत्र के लिए हानिकारक साबित हो रही हैं। इसी के साथ उन्होंने यह भी कहा कि प्रिंट मीडिया तो अब भी कुछ हद तक जवाबदेह है, जबकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की कोई जवाबदेही नहीं है, वह जो दिखाता है वो हवाहवाई है।

अगर इस वक्तव्य को थोड़ा और विस्तारित करें तो मामला उस सोशल मीडिया तक भी पहुंचता है, जिसका भगवान ही मालिक है और जो समाज में कनफ्‍यूजन फैलाने में आज निर्णायक भूमिका रहा है। अफसोस की बात यह है कि कोई भी इसे प्रभावी ढंग से नियमित करने की बात नहीं करता।

जस्टिस रमणा ने जो कहा उसका आशय है कि आज न्याय देने वाली संस्था के समक्ष यह सबसे बड़ी चुनौती है कि बिना पुख्ता सबूतों और न्याय प्रक्रिया का पालन किए बगैर मनमाने ढंग से इलेक्ट्राॅनिक मीडिया किसी को भी आरोपी के कटघरे में खड़ा कर देता है और एक खास परसेप्शन बनाते हुए उसे दोषी भी सिद्ध कर देता है।

इस कथित ‘दोषसिद्धि’ में भले ही कोई शारीरिक दंड न दिया जाता हो, लेकिन मानसिक प्रताड़ना किसी शारीरिक दंड की तुलना में कई गुना ज्यादा घातक होती है।

कई बार तो मीडिया आरोपित की स्थिति ऐसी कर देता है कि वो कहीं का नहीं रहता। बाज दफा उसका पक्ष भी उपेक्षित कर दिया जाता है। अलबत्ता इस ‘कंगारू कोर्ट’ के तथाकथित फैसलों से उन तत्वों के हित जरूर सधते हैं, जो समाज को शांति और सुकून से नहीं रहने देना चाहते।

टीवी न्यूज चैनलो पर आए दिन होने वाली भड़काऊ बहसें हो या फिर स्पेशल स्टोरी के नाम पर किसी व्यक्ति, संस्था या विचार को टारगेट करने की बात हो, जिस ढंग से इनकी प्रस्तुति होती है, उससे लगता है कि फैसला पहले ही हो चुका है, केवल उसका औचित्य आपके गले उतारने की चैनलों के माध्यम से कोशिश की जा रही है।

यहां सवाल यह है ऐसी ‘स्वघोषित’ अदालतों का विचार आया कहां से? सवाल यह भी है कि ऐसी नकली अदालतों को ‘कंगारू कोर्ट’ ही क्यों कहा गया? कंगारू नामक स्तनधारी प्राणी ऑस्ट्रेलिया में पाया जाता है और जो उछल-उछल कर चलता है। यूं दुनिया में राजा तानाशाह बन जाए तो उसके द्वारा किए फैसलों पर कोई सवाल नहीं उठा सकता। राजा की सनक या समझ ही ऐसे फैसलों के औचित्य का अकाट्य तर्क है।

ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी के अनुसार ‘कंगारू कोर्ट’ (कंगारू अदालतें) शब्द संभवत: 18 वीं सदी में ऑस्ट्रेलिया में बसाई गई पीनल काॅलोनीज (दांडिक बसाहटें) से निकला है। इन काॅलोनियों में इग्लैंड के सजायाफ्ता खूंखार अपराधी जहाजों में भरकर आॅस्ट्रेलिया निर्वासित कर दिए जाते थे। रास्ते में भी इनके साथ जानवरों जैसा ही सलूक होता था।

इनमें कई ऐसे भी होते थे, जिन्हें मृत्युदंड देने की जगह सुदूर ऑस्ट्रेलिया भेज दिया जाता था, जहां से लौटना उनके लिए लगभग असंभव था। हालांकि अब ये पीनल काॅलोनियां समाप्त कर दी गई है।

ऑस्ट्रेलिया में ऐसी पहली पीनल काॅलोनी के रहवासी जो दंडित अपराधी थे, का पहला जत्था ब्रिटिश कैप्टन ऑर्थर फिलिप के नेतृत्व में एक जहाज से ऑस्ट्रेलिया ने न्यू साउथ वेल्स पहुंचा था। हालांकि कुछ लोग बोटान बे को पहली पीनल काॅलोनी मानते हैं। इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया के बीच 22 हजार किमी से ज्यादा की समुद्री दूरी है।

अमेरिकी स्रोतों के अनुसार ‘कंगारू कोर्ट’ शब्द का पहली दफा इस्तेमाल 1841 में अमेरिका के न्यू ओर्लियंस से प्रकाशित अखबार ‘द डेली पिकायुन’ में छपे एक लेख से हुई। इस लेख में किसी अन्य प्रकाशित लेख का हवाला देते हुए कहा गया था कि ‘कंगारू कोर्ट’ द्वारा लगाए गए आरोपों के आधार पर कुछ लोगों की ‘हत्याएं’ कर दी गईं।

हालांकि कुछ लोग यह भी मानते हैं कि ‘कंगारू कोर्ट’ शब्द 1849 में अमेरिका के कैलीफोर्निया में सोने की खोज के दौरान झुंड के रूप में लाए गए उन ऑस्ट्रेलियाई लोगों के लिए किया गया, जिनका उपयोग दूसरे खदानों पर कब्जे के लिए किया जाता था। यह एक तरह से एक से दूसरी खदान पर छलांग लगाना था, जो कंगारू की उछाल की तरह था। इसमें कोई नियम कायदा नहीं था।

बेसबाल के खेल में तो अभी भी किसी खिलाड़ी को गलती करने पर सजा देने को ‘कंगारू कोर्ट’ का फैसला ही कहा जाता है। नाजी जर्मनो की फाॅक्सजेरिष्टशोफ (यानी जन अदालत) इसी का परिणाम थी तो कंबोडिया की बदनाम पोल पोट सरकार की ‘जन क्रांतिकारी अदालतें’ भी ऐसी ही थीं। नक्सली और तालिबानी अदालतें भी इसी प्रकार की हैं। इनमें एकतरफा आरोप लगाकर व्यक्ति को मनमाना दंड दे दिया जाता है।

पूर्व में रोमानिया में क्रांति के बाद कम्युनिस्ट पार्टी के अध्यक्ष‍ निकोली चाउसेस्कू और उनकी पत्नी को ऐसी एक कंगारू कोर्ट ने मौत की सजा दे दी थी। कंगारू कोर्ट में कोई वकील, दलील या अपील नहीं होती। अगर किसी को दोषी मान लिया गया है तो वह दोषी है। इसकी सजा उसे मिलेगी ही। न्याय प्रणाली से इतर हत्याएं, न्यायिक कदाचार, लिंचिंग, फर्जी मुकदमे, नकली अदालतें आदि कंगारू कोर्ट ही कहलाते हैं। इसमें किसी का कोई संवैधानिक दायित्व नहीं होता।

सीजेआई रमणा ने जो कहा, वो इस बात की ओर इशारा करता है कि हमारे देश में मानो मीडिया ने कंगारू कोर्ट का काम संभाल लिया है। किसी भी व्यक्ति खासकर सेलेब्रिटी को लेकर टीवी चैनल पिल पड़ते हैं। पूरे मामले का प्रस्तुतिकरण इस अंदाज में किया जाता है कि मानो लक्षित व्यक्ति पहले ही दोषी है।

इन कथित अदालतों में कानूनी धाराओं का प्रयोग भले न होता हो, लेकिन परसेप्शन और धारणा बनाने का काम पूरे जोर- शोर से और सुविचारित ढंग से होता है और ऐसा करने का किसी को मलाल भी नहीं होता। उल्टे इनसे कुछ लोगों के राजनीतिक हित जरूर सधते हैं।

ऐसे कई संवदेनशील मामलो में ‘कंगारू कोर्ट’ की तरह मीडिया का व्यवहार देश और समाज के लिए विभाजक सिद्ध हो रहा है। टीवी पर ऐसी बहसें चलाई जा रही हैं, जिससे लोगों की भावनाएं भड़कें। चाहे क्रिया के रूप में हो या प्रतिक्रिया के रूप में हो। अब इसमें टीआरपी का खेल भी शामिल हो गया है।

सीधा समीकरण है कि जो चैनल जितनी गाली-गलौज करेगा, जो जितना ज्यादा बवाल खड़ा करने की कोशिश करेगा, उसकी टीआरपी सबसे ज्यादा। और टीआरपी ज्यादा का मतलब ज्यादा विज्ञापन। इस विज्ञापनों के लिए भी पैसा भी परोक्ष रूप से हम ही देते हैं, विज्ञापित वस्तुओं को खरीदकर यानी ऐसे कंगारू कोर्टों के दर्शक बनकर भी हम इस ‘पाप’ में अप्रत्यक्ष रूप से भागीदार बनते हैं।

इससे संवैधानिक न्याय प्रणाली के तहत वैधानिक फैसले देने वाले न्यायाधीशों के सामने मुसीबत होती है कि जिन संवेदनशील मामलों में न्यायिक प्रक्रिया का पालन किए बगैर ही कंगारू कोर्ट का ‘फैसला’ आ जाए, उन में न्यायाधीशों के फैसलों पर लोक मानस में सवाल उठ सकते हैं या सु‍नियोजित तरीके से उठाए जा सकते हैं। जबकि न्यायिक फैसले परसेप्शन पर नहीं, तथ्यों, तकों और सबूतों के आधार पर होते हैं।

महज जज्बात के आधार पर कोर्ट के फैसले नहीं होते। कंगारू कोर्ट में इन सब की आवश्यकता नहीं होती। वहां हमने ‘कह दिया सो कह दिया’ वाला सामंती भाव होता है, जोकि नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत के भी खिलाफ है।

इस पूरे मामले में न्यायपालिका की भूमिका और कार्यशैली भी सवालों से परे है, ऐसा नहीं है।

लेकिन मीडिया को यह अधिकार किसने दिया कि वह खुद ही घटना की प्रस्तुति के साथ न्याय दंड भी अपने हाथ में ले ले। मीडिया का काम केवल तथ्य पेश करना है, वो तथ्य जो शायद अदालत के संज्ञान में नहीं लाए गए या अनदेखे रहे। वह जनमत को भी दिखा सकता है।

लेकिन हकीकत में जिस तरह की टैग लाइन और स्क्रोल हम टीवी चैनलों पर देखते हैं, वो किसी युद्धघोष की तरह ज्यादा लगते हैं।

इस मामले में इलेक्ट्राॅनिक मीडिया की फिर भी अपनी सीमा है, लेकिन सोशल मीडिया तो पूरी तरह बेलगाम है। उसका इस्तेमाल केवल कोई एजेंडा या प्रति एजेंडा चलाने के लिए हो रहा है। इसमें खुद न्याय व्यवस्था की ट्रोलिंग शामिल है। भाव यह कि अगर हमारी मर्जी के मुताबिक फैसला न दिया तो ऐसी न्याय व्यवस्था किस काम की।

यह बहुत गलत सोच है और लोकतंत्र के लिए खतरनाक भी। न्याय पालिका सवालों से परे भले न हो, लेकिन वहां भी फैसलों के पुनर्विचार और पुनरावलोकन के कई स्तर हैं।

मकसद यही है कि किसी के साथ अन्याय न हो। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं कि व्यक्तिगत या लोकमत को ही ‘फैसले’ के रूप में अधोरेखित कर दिया जाए। माॅब लिंचिंग या किसी सोशल मीडिया पोस्ट के आधार पर किसी की सरेआम हत्या इसी मानसिकता के निकृष्ट और बेहद चिंताजनक उदाहरण हैं।

जस्टिस रमणा ने कहा उससे तात्पर्य यही है कि न्याय प्रक्रिया पूरी किए बगैर कोई भी धारणा बना लेना या बनाने में अहम भूमिका निभाने की इलेक्ट्राॅनिक मीडिया की प्रवृत्ति लोकतंत्र के लिए घातक है। पक्षपात पूर्ण विचार का प्रसार हमेशा हानिकारक ही होता है। इससे न्यायदान की प्रक्रिया पर प्रतिकूल असर पड़ता है।

हालांकि न्यायदान की समूची प्रक्रिया बहुत लंबी होने और कई बार इसके ‘न्याय न देने’ की स्थिति में बदलने के उदाहरण भी हैं। लेकिन अदालतें कानून से बंधी होती हैं, कानून के अनुसार ही चलती हैं। उन्हें अपने फैसलों का तार्किक आधार भी देना होता है और मीडिया इसी तार्किक आधार को पलीता लगाने पर तुला है।

बेशक मीडिया और खासकर इलेक्ट्राॅनिक मीडिया की अपनी व्यावसायिक मजबूरियां हो सकती हैं। लेकिन वो इस देश में लोकतंत्र का अघोषित चौथा खंभा भी है, इसे कैसे भुलाया जा सकता है।

मीडिया का काम लोगों को सही और वास्तविक स्थिति से अवगत कराना है न कि किसी रेवड़ को हांकने में मदद करना। कई बार मीडिया कुछ मामलों को इस ढंग से पेश करता है कि जजो को उन मामलों को प्राथमिकता पर रखना पड़ता है।

यह स्थिति कभी सकारात्मक भी हो सकती है और कभी नकारात्मक भी। इसका अर्थ यह नहीं कि मीडिया आंख मूंद कर काम करे, लेकिन ये आंखें जिम्मेदारी का अंजन डालकर खुली रहनी चाहिए। जस्टिस रमणा ने तो अपनी बात कह दी, इस पर सोचना तो खुद मीडिया को है।