अब भारतीयों के लिए समान कानून पर अंतिम निर्णय की बेला

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अब भारतीयों के लिए समान कानून पर अंतिम निर्णय की बेला

अब भारतीयों के लिए समान कानून पर अंतिम निर्णय की बेला

पिछले  लोकसभा चुनाव ( 2019 ) से पहले  भाजपा  ने अपने घोषणापत्र में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने का वायदा किया था | प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी चुनावी वायदों और जन समर्थन मिलने के बाद बड़े से बड़े निर्णय लेने के खतरे उठाने में कभी संकोच और देरी नहीं करते हैं | इसलिए आगामी चुनाव से पहले उन्होंने इस वायदे पर संसद से ऐतिहासिक निर्णय करवाने के लिए तैयारी कर ली है | पिछले दिनों भोपाल में  प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने  समान नागरिक संहिता (यूसीसी) लाने  का आह्वान किया और अल्पसंख्यक समुदायों को सुधार के खिलाफ भड़काने के लिए विपक्षी दलों की आलोचना की। इसके बाद, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने कहा कि वे यूसीसी का विरोध करेंगे , जबकि राजनीतिक दलों ने भाजपा पर “ध्यान भटकाने” और “वास्तविक मुद्दों से ध्यान हटाने” की कोशिश करने का आरोप लगाया।

इसमें कोई शक नहीं कि   पिछले कई महीनों से लगातार देश में समान नागरिक संहिता यानी यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने की मांग उठ रही है | बीजेपी शासित उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, गुजरात और कर्नाटक जैसे राज्यों ने पहले से ही यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने की प्रक्रिया शुरू करने की बात करते रहे  हैं  | समस्या यह है कि  शादी, तलाक़, उत्तराधिकार और गोद लेने के मामलों में भारत में विभिन्न समुदायों में उनके धर्म, आस्था और विश्वास के आधार पर अलग-अलग क़ानून हैं | गोवा में 1867 का समान नागरिक क़ानून है जो कि उसके सभी समुदायों पर लागू होता है लेकिन कैथोलिक ईसाइयों और दूसरे समुदायों के लिए अलग नियम हैं. जैसे कि केवल गोवा में ही हिंदू दो शादियां कर सकते हैं |समान नागरिक संहिता केंद्र  और राज्य सरकारों की  चर्चा  का मुद्दा रहा है |  1970 से राज्य अपने ख़ुद के क़ानून बना रहे हैं | कई सालों के बाद साल 2005 में एक संशोधन किया गया जिसके बाद मौजूदा केंद्रीय हिंदू व्यक्तिगत कानून में बेटियों को पूर्वजों की संपत्ति में बेटों के बराबर हक़ दिया गया. कम से कम पांच राज्यों ने इसे सक्षम करने के लिए अपने क़ानूनों में पहले ही बदलाव कर दिया था |

अब भारतीयों के लिए समान कानून पर अंतिम निर्णय की बेला

अब देखिये कि किस तरह से पर्सनल लॉ अलग-अलग मामलों में अलग-अलग दिखते हैं| गोद लेने का मामला देखें तो हिंदू परंपरा के मुताबिक़ धर्मनिरपेक्ष और धार्मिक दोनों उद्देश्यों के लिए किसी को गोद लिया जा सकता है क्योंकि दूसरी ओर इस्लामी क़ानून में गोद लेने को मान्यता नहीं दी जाती है लेकिन भारत में एक धर्मनिरपेक्ष ‘जुवेनाइल संपत्ति का वारिस एक पुरुष हो सकता है और परिजनों का अंतिम संस्कार पुरुष ही कर सकता है |कानून  है जो नागरिकों को धर्म की परवाह किए बग़ैर नागरिकों को गोद लेने की अनुमति देता है |सुप्रीम कोर्ट भी सामान कानूनों पर अस्पष्ट नज़र आता है | बीते चार दशकों में अलग-अलग फ़ैसलों में इसने ‘राष्ट्र की अखंडता’ के लिए सरकार को एक समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए प्रेरित किया है | इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी पिछले साल एक याचिका पर      टिप्पणी करते हुए समान नागरिक संहिता का समर्थन किया और केंद्र से इसे लागू करने की दिशा में काम करने के लिए भी कहा. अदालत ने कहा, ‘यह राज्य की जिम्मेदारी है वह देश के नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता हासिल लागू करे और नि:स्संदेह, उसके पास ऐसा करने की विधायी क्षमता है |

देश के लिए समान नागरिक संहिता का जोरदार समर्थन करते हुए  संविधान सभा में डॉक्टर भीमराव आंबडेकर ने कहा था “मुझे लगता है कि मेरे अधिकांश मित्र जिन्होंने इस संशोधन पर बात की है, वे यह भूल गए हैं कि 1935 तक उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत शरीयत कानून के अधीन नहीं था| इसने उत्तराधिकार के मामले में और अन्य मामलों में हिंदू कानून का पालन किया, यह पालन इतना व्यापक और मजबूत था कि अंतत: 1939 में केंद्रीय विधानमंडल को मैदान में आना पड़ा और उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रांत के मुसलमानों के लिए हिंदू कानून को निरस्त कर उन पर शरीयत कानून लागू किया गया |उन्होंने आगे कहा, ‘मुझे इस मामले में उनकी भावनाओं का एहसास है, लेकिन मुझे लगता है कि वे अनुच्छेद 35 को लेकर कुछ ज्यादा ही आशंकित हो रहे हैं. यह अनुच्छेद केवल यही प्रस्तावित करता है कि राज्य, देश के नागरिकों के लिए नागरिक संहिता को सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा.’

केएम मुंशी ने इस बहस में हिस्सा लेते हुए बहुत ही दिलचस्प बात कही, ‘… उन नुकसानों को देखें जिनमें नागरिक संहिता नहीं होने पर वृद्धि होगी. उदाहरण के लिए हिंदुओं को लें. हमारे पास भारत के कुछ हिस्सों में ‘मयूख’ कानून लागू है; हमारे पास दूसरे कुछ हिस्सों में ‘मीताक्षरा’ कानून; और हमारे पास बंगाल में ‘दयाबाघ’ नामक कानून है. इस प्रकार स्वयं हिन्दुओं के भी अलग-अलग कानून हैं और हमारे अधिकांश प्रांतों ने अपने लिए अलग-अलग हिन्दू कानून बनाना शुरू कर दिया है. क्या हम इन टुकड़े-टुकड़े कानूनों को इस आधार पर अनुमति देने जा रहे हैं कि यह देश के पर्सनल लॉ को प्रभावित करता है? इसलिए यह केवल अल्पसंख्यकों का सवाल नहीं है बल्कि बहुसंख्यकों को भी प्रभावित करता है |”खुद इस्लामी शासकों में से एक का उदाहरण लेते हुए उन्होंने आगे कहा, ‘ब्रिटिश शासन के तहत मन का यह रवैया कि पर्सनल लॉ मत/पंथ का हिस्सा है, को अंग्रेजों और ब्रिटिश अदालतों द्वारा बढ़ावा दिया गया है. इसलिए हमें इससे आगे बढ़ कर इसे छोड़ देना चाहिए. अगर मैं माननीय सदस्य को याद दिला दूं … तो अलाउद्दीन खिलजी ने कई बदलाव किए, जो शरीयत के खिलाफ थे, हालांकि वह यहां मुस्लिम सल्तनत की स्थापना करने वाले पहले शासक थे |”

एक समान नागरिक संहिता के पक्ष में बोलते हुए और मुस्लिम सदस्यों द्वारा प्रस्तावित संशोधनों का विरोध करते हुए अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर ने कहा कि एक आपत्ति यह दर्ज की गई है कि कि समान नागरिक संहिता से समुदायों में वैमनस्य बढ़ेगा, जबकि सच्चाई इसके बिल्कुल विपरीत है. समान नागरिक संहिता के पीछे विचार यह है कि  आपसी   मतभेदों को बढ़ावा देने वाले कारकों को समाप्त किया जाए | ” संविधान सभा के सदस्यों ने समान नागरिक संहिता के संविधान का हिस्सा होने के पक्ष में भारी मतदान KI संविधान के अनुच्छेद 44 में समान नागरिक संहिता की चर्चा की गई है। राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्व से संबंधित इस अनुच्छेद में कहा गया है कि ‘राज्य, भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा’।समान नागरिक संहिता में देश के प्रत्येक नागरिक के लिए एक समान कानून होता है, चाहे वह किसी भी धर्म या जाति का क्यों न हो।समान नागरिक संहिता में शादी, तलाक तथा जमीन-जायदाद के बँटवारे आदि में सभी धर्मों के लिए एक ही कानून लागू होता है। अभी देश में जो स्थिति है उसमें सभी धर्मों के लिए अलग-अलग नियम हैं। संपत्ति, विवाह और तलाक के नियम हिंदुओं, मुस्लिमों और ईसाइयों के लिए अलग-अलग हैं।इस समय देश में कई धर्म के लोग विवाह, संपत्ति और गोद लेने आदि में अपने पर्सनल लॉ का पालन करते हैं। मुस्लिम, ईसाई और पारसी समुदाय का अपना-अपना पर्सनल लॉ है जबकि हिंदू सिविल लॉ के तहत हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध आते हैं।

                हालांकि, देश की आज़ादी के बाद से समान नागरिक संहिता या यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड  की मांग चलती रही है | इसके तहत इकलौता क़ानून होगा जिसमें किसी धर्म, लिंग और लैंगिक झुकाव की परवाह नहीं की जाएगी | यहां तक कि संविधान कहता है कि राष्ट्र को अपने नागरिकों को ऐसे क़ानून मुहैया कराने के ‘प्रयास’ करने चाहिए | भाजपा सहित कई  संगठन समान नागरिक संहिता की मांग मुस्लिम पर्सनल लॉ के कथित ‘पिछड़े’ क़ानूनों का हवाला देकर उठाते रहे हैं | मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत तीन तलाक़ वैध था जिसके तहत मुसलमान तुरंत तलाक़ दे सकते थे लेकिन मोदी सरकार ने  2019 में इसे आपराधिक बना दिया | बीजेपी का चुनावी घोषणा पत्र कहता है कि ‘जब तक भारत समान नागरिक संहिता नहीं अपना लेता है तब तक लैंगिक समानता नहीं हो सकती है | ‘

विपक्ष कहता है कि भारत जैसे बेहद विविध और विशाल देश में समान नागरिक क़ानून को एकीकृत करना बेहद मुश्किल है | उदाहरण के तौर पर देखें तो हिंदू भले ही व्यक्तिगत क़ानूनों का पालन करते हैं लेकिन वो विभिन्न राज्यों में विभिन्न समुदायों की प्रथाओं और रीति-रिवाजों को भी मानते हैं |दूसरी ओर मुस्लिम पर्सनल लॉ भी पूरी तरह सभी मुसलमानों के लिए समान नहीं हैं| उदाहरण के तौर पर देखें तो कुछ बोहरा मुसलमान उत्तराधिकार के मामले में हिंदू क़ानूनों के सिद्धांतों का पालन करते हैं| |वहीं संपत्ति और उत्तराधिकार के मामलों में अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग क़ानून हैं. पूर्वोत्तर भारत के ईसाई बहुल राज्यों जैसे कि नागालैंड और मिज़ोरम में अपने पर्सनल लॉ हैं और वहां पर अपनी प्रथाओं का पालन होता है न कि धर्म का |

 अमेरिका ही नहीं कट्टरपंथी पाकिस्तान ,  इंडोनेशिया , तुर्की , मिश्र जैसे देशों में समान नागरिक कानून व्यवस्था है | विश्व में ऐसा कौनसा समाज होगा , जिसके नाम पर ठेकेदारी करने वाले मुट्ठी भर लोग बच्चों की अच्छी पढाई का विरोध करते हों , बाल विवाह को श्रेष्ठ मानते हों , किसी भी कानून – अदालत – सरकार से ऊपर मानते हों ? सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस संविधान के आधार पर सब शपथ लेते हैं , जिसके बल पर रोजी – रोटी – कपड़ा – मकान लेते हैं , उस संविधान के भाग 4 के अनुच्छेद 44 में लिखे प्रावधान का पालन अब तक नहीं कर रहे हैं | इसमें स्पष्ट लिखा है समान नागरिक कानून लागू करना हमारा लक्ष्य है | अब उत्तराखंड सरकार ने समान नागरिक आचार संहिता का प्रारुप तैयार करने के लिए पूर्व न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया है | लेकिन तत्काल कुछ नेताओं और संगठनों ने विरोध में आवाज उठा दी है |

निश्चित रूप से आज़ादी से पहले संविधान निर्माता और बाद के प्रारम्भिक वर्षों में भी शीर्ष नेताओं ने यही माना होगा कि कुछ वर्ष बाद संविधान के सभी प्रावधानों को लागू  कर दिया जाएगा | उनके इस विश्वास को निहित स्वार्थी नेताओं , संगठनों और कुछ विध्वसकारी तत्वों ने तोड़ा है | नाम महात्मा गाँधी का लेते रहे , लेकिन धर्म और जाति के नाम पर जन सामान्य को भ्रमित कर अँधेरे की गुफाओं में ठेलते रहे | सत्तर वर्षों में दो पीढ़ियां निकल चुकी | आबादी के साथ साधन सुविधाएं बढ़ती गई | वसुधेव    कुटुंबकम  की बात सही माने में सार्थक हो रही है | विश्व समुदाय ही नहीं ग्लोबल विलेज की बात हो रही है | केवल जर्मनी का एकीकरण नहीं हुआ , सोवियत रूस , चीन , अफ्रीका तक बहुत बदल चुके | उन देशों में नाम भले ही कम्युनिस्ट पार्टी रह गए हों , लेकिन नियम कानून व्यवस्था और जन जीवन पूरी तरह उदार और पूंजीवादियों से भी एक कदम आगे रहने वाली व्यवस्था लागू हो गई |भारत ने परमाणु शक्ति सहित हर क्षेत्र में क्रन्तिकारी बदलाव कर लिया | भारत में  राष्ट्रपति , सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश , सेनाध्यक्ष से बड़ा कोई पद है , जो अल्पसंख्यक समाज के सबसे गरीब कहे जा सकने वाले परिवार के व्यक्ति को नहीं मिला ?  लेकिन कुछ कट्टरपंथी संगठन , राजनीतिक दल और उनके नेता अल्पसंख्यक समुदाय के साथ सम्पूर्ण देश को अठारहवीं शताब्दी में धकेलने की कोशिश करते रहते हैं |

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड

अब मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को ही लीजिये | यह कोई संवैधानिक संस्था नहीं है | देश के हजारों असली या नकली एन जी ओ यानी गैर सरकारी संगठन है | वह उन नियमों – कानूनों को समाज पर लादने में लगा रहता है , जो ईरान , पाकिस्तान , सऊदी अरब देशों तक में नहीं लागू हैं | फिर भी ऐसे संगठन को राहुल गाँधी की पार्टी के कागजी नेता तरजीह देते हैं | दाक्षिण भारत के ओवेसी और मुस्लिम लीगी नेताओं को चुनाव में कितने वोट और सीटें मिलती हैं ? मनमोहन सिंह और सलमान खुर्शीद के सत्ता काल में अल्प संख्यक मंत्रालय के लिए कागज पर  सैकड़ों करोड़ के बजट का प्रावधान किया जाता गया  , लेकिन उसका बीस – तीस प्रतिशत भी उन गरीब लोगों पर खर्च नहीं किया गया | ऐसी हालत में यदि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार  सम्पूर्ण समाज के विकास के लक्ष्य को पूरा करने के लिए करोड़ों अल्प  संख्यको  को भी मुफ्त अनाज , शौचालय , मकान , रसोई गैस , शिक्षा , चिकित्सा , कौशल विकास की सुविधाएं देने की कोशिश कर रही है , तो विरोध क्यों होना चाहिए ?

ब्रिटैन , अमेरिका , फ़्रांस , जर्मनी , ऑस्ट्रेलिया , कनाडा जैसे लोकतंत्रक देशों में अल्पसंख्यक समुदाय की अच्छी खासी आबादी है , सरकारों में मंत्री , लंदन में मेयर  ब्रिटिश पाकिस्तानी मूल के मुस्लिम नेता सादिक अमन खान  हैं , लेकिन वहां तो शरीअत के नियम कानून लागू नहीं कराये जा रहे हैं | दुनिया में मुस्लिम महिलाऐं डॉक्टर , इंजीनियर , पॉयलट तक बन रही हैं और भारत के कठमुल्ला लड़कियों की शिक्षा को हिजाब बुर्के में  प्रतिबंधित करने में जुटे हैं | वे  क्या समाज और धर्म के नाम पर धोखा और कुठाराघात नहीं कर रहे हैं ? मुस्लिम . सिख ,ईसाई अपनी धार्मिक आस्था के अनुसार प्रार्थना – अर्चना करते ही हैं ,उनके दैनंदिन जीवन पर किसी नेता या संगठन का अधिकार कैसे हो सकता है ? | एक दशक पहले संविधान संशोधन आयोग भी बना था | लेकिन वोट की राजनीति ने बड़े बदलाव नहीं होने दिए |     विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के लिए समयबद्ध कार्यक्रम बन सकता है , सड़क या अन्य निर्माण कार्यों पर अनुबंध की समय सीमा के अनुसार  काम न होने पर जुर्माना हो सकता है , तो देश के हर नागरिक के लिए समान कानून का वायदा या जिम्मेदारी सँभालने वालों के लिए भी समय सीमा का प्रावधान क्यों नहीं होना चाहिए ?

 सरकार द्वारा  पूरे देश के लिए एक कानून बनाने का प्रस्ताव है , जो विवाह, तलाक, विरासत, उत्तराधिकार, हिरासत और गोद लेने जैसे व्यक्तिगत मामलों में सभी धार्मिक समुदायों पर लागू होगा। यूसीसी के कार्यान्वयन से देश में व्यक्तिगत कानूनों के समाहित होने की संभावना है।विवाह, तलाक, भरण-पोषण, संरक्षकता, गोद लेना, विरासत और उत्तराधिकार ऐसे सभी मुद्दे हैं जो ‘नागरिक संहिता’ की परिभाषा में आते हैं। वर्तमान में, भारतीय कानून के तहत, ये सभी मुद्दे भारत में प्रत्येक धर्म से संबंधित धार्मिक प्रथागत कानूनों या संहिताबद्ध कानूनों के तहत अलग-अलग प्रावधानों द्वारा शासित होते हैं।इसका मतलब यह है कि एक बार जब भारत सरकार एक संहिताबद्ध समान नागरिक संहिता बनाने की दिशा में  आगे बढ़ेगी  तो दर्जनों कानूनों और प्रावधानों में बदलाव होंगे । इसके अतिरिक्त, राज्य-विशिष्ट समुदायों, जातियों और जनजातियों की प्रथाओं सहित क्षेत्रीय मतभेदों पर भी विचार करना होगा।इसका असर आयकर कानूनों, बाल संरक्षण कानूनों और कई अन्य कानूनों पर भी पड़ सकता है। यूरोपीय कानून के समान, नागरिक कानून के तहत लिंग और धर्म-तटस्थ प्रावधानों को लाने की कई मांगें की गई हैं।

 विधि आयोग ने भी 14 जून को इस मुद्दे पर सार्वजनिक विचार विमर्श के लिए पहल की है , जिसमें 15 जुलाई तक सुझाव और राय प्रस्तुत करने को कहा गया। यह 21वें विधि आयोग द्वारा अगस्त 2018 में दो के बाद यूसीसी पर एक श्वेत पत्र जारी करने के पांच साल बाद आया है।  इसमें कहा गया है कि, “यह तथ्य कि विशेष विवाह अधिनियम, 1954 जैसे धर्मनिरपेक्ष कानून भी खामियों से ग्रस्त हैं, यह बताता है कि संहिताबद्ध या धर्म-तटस्थ कानून भी न्याय की कोई सीधी गारंटी नहीं देते हैं।”यूसीसी पर अपनी 2018 की रिपोर्ट में भी, 21वें विधि आयोग ने कहा कि “पारिवारिक कानून के सभी मामलों के बीच सार्वजनिक बहस में विवाह और तलाक की हिस्सेदारी असंगत रही है।” यह यूसीसी पर राजनीतिक बहस का केंद्र बना हुआ है, जिस पर “लैंगिक न्याय” और तलाक में महिलाओं के अधिकारों के संदर्भ में चर्चा की जा रही है।

हालाँकि, विभिन्न संहिताबद्ध कानूनों पर एक नज़र डालने से “विवाह” को परिभाषित करने, मनाने, पंजीकृत करने और इसे समाप्त करने के तरीके में कुछ समानताएं और अंतर दिखाई देते हैं।उदाहरण के लिए, तलाक के आधार के रूप में व्यभिचार हिंदू, मुस्लिम, ईसाई और पारसी विवाह कानूनों में उपलब्ध है, लेकिन परिभाषाएं अलग-अलग हैं।ईसाई कानून के तहत, एक महिला को अपने पति से तलाक लेने के लिए क्रूरता के साथ-साथ व्यभिचार भी साबित करना पड़ता है। मुस्लिम कानून के तहत, व्यभिचार को किसी महिला द्वारा तलाक के आधार के रूप में मान्यता नहीं दी जाती है जब तक कि यह साबित न हो जाए कि पति ने “बुरी प्रतिष्ठा वाली महिलाओं के साथ व्यभिचार किया है या बदनाम जीवन जीता है।

हिंदू कानून पति को व्यभिचार के लिए तलाक लेने की अनुमति देता है, लेकिन पत्नी को नहीं, जिसे तलाक लेने के लिए व्यभिचार के साथ-साथ क्रूरता या परित्याग साबित करना होता है। दूसरी ओर, पारसी कानून दोनों पति-पत्नी को व्यभिचार के लिए तलाक लेने की अनुमति देता है।तीन तलाक या मुस्लिम पतियों द्वारा तत्काल तलाक की घोषणा का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के साथ-साथ कई जनहित याचिकाओं का विषय रहा है। इसके अतिरिक्त, मुता (अनुबंध विवाह), निकाह हलाला (तलाक के मामले में एक अलग आदमी के साथ संभोग), आदि प्रथाओं के मुद्दे सार्वजनिक और अदालती जांच के दायरे में आ गए हैं। एक अन्य उदाहरण “परित्याग” और परित्याग है। पति द्वारा अलगाव और परित्याग की अवधि, जिस पर पत्नी तलाक मांग सकती है, विभिन्न धर्मों में अलग-अलग है। हिंदुओं के लिए यह दो साल है, जबकि मुसलमानों के लिए चार साल की अनुमति है। पारसी विवाह अधिनियम और भारतीय विवाह अधिनियम के तहत तलाक प्राप्त करने के लिए सात साल का परित्याग आवश्यक है।”वैध विवाह” की परिभाषा सहमति की वैध उम्र पर भी निर्भर करती है, जिस पर देश में गर्मागर्म बहस चल रही है। भले ही भारतीय वयस्कता आयु अधिनियम, बाल विवाह निषेध अधिनियम और POCSO अधिनियम 18 वर्ष से कम उम्र के व्यक्ति के विवाह पर रोक लगाते हैं, हिंदू कानून 16 वर्षीय लड़की और 18 वर्षीय लड़के के बीच विवाह को वैध मानता है।

भारत में मुस्लिम कानून यौवन प्राप्त कर चुके नाबालिग के विवाह को वैध मानता है। हालाँकि, मुसलमानों में भी, जबकि शिया एक लड़के को 15 वर्ष की आयु में और एक लड़की को नौ या 10 वर्ष की आयु में यौवन प्राप्त करने के लिए मानते हैं, हनफ़ी सुन्नी इसे दोनों लिंगों के लिए 15 वर्ष की आयु मानते हैं।सभी धर्मों में तलाक के कुछ आधार भी हैं, जो केवल पति या पत्नी को ही उपलब्ध हैं। इन्हें भी यूसीसी द्वारा स्पष्ट करने और समाधान करने की आवश्यकता होगी।हिंदू विवाह अधिनियम (एचएमए) स्वयं “विवाह” को पूर्ण मानने के लिए विभिन्न पारंपरिक प्रथाओं को मान्यता देने की अनुमति देता है। मुस्लिम और ईसाई कानून के तहत, विवाह अनुबंध पर हस्ताक्षर करना या पंजीकरण अनिवार्य है, जबकि पारसियों के लिए, मंदिर में विवाह का पंजीकरण अनिवार्य है।

भारत में विवाह के अनिवार्य पंजीकरण के लिए कोई केंद्रीय कानून नहीं है, हालांकि 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश जारी किए थे कि सभी विवाहों का अनिवार्य पंजीकरण होना चाहिए। इस मुद्दे को विभिन्न राज्यों पर छोड़ दिया गया , जिसके कारण कानून की तारीख से पहले मौजूद विवाहों के पंजीकरण और कानून के बाद होने वाले विवाहों के प्रावधानों और प्रक्रिया से संबंधित कई प्रावधान देखे गए हैं।उदाहरण के लिए, दिल्ली में, सरकार ने 2014 में विवाह का अनिवार्य पंजीकरण अधिनियम पारित किया। पंजीकरण प्रक्रिया को ही उच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गई है क्योंकि यह एचएमए या विशेष विवाह अधिनियम के तहत विवाह के पंजीकरण की अनुमति देता है क्योंकि अन्य व्यक्तिगत कानून ऐसा नहीं करते हैं। ऐसा कोई प्रावधान नहीं है |सीआरपीसी की धारा 125 कानूनी अलगाव या तलाक की स्थिति में पत्नी को गुजारा भत्ता दिए जाने का प्रावधान करती है। एक पति अपनी आय का एक हिस्सा अपनी पत्नी और बच्चों को “भरण-पोषण” के रूप में देने के लिए बाध्य है।हालाँकि यह प्रावधान कानूनी रूप से सभी धर्मों पर लागू है, लेकिन मुस्लिम समुदाय की ओर से इस मुद्दे पर मुकदमेबाजी और विरोध प्रदर्शन हुए हैं। 1986 के शाह बानो फैसले के बाद, जहां सुप्रीम कोर्ट ने माना कि मुस्लिम महिलाएं भी भरण-पोषण की हकदार हैं, सरकार ने मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 पेश किया। इस अधिनियम में कहा गया कि भरण-पोषण केवल ‘के दौरान ही देय है। इद्दत अवधि’ |हालाँकि, डैनियल लतीफी मामले, इकबाल बानो मामले और शबाना बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के बाद के फैसलों ने स्पष्ट कर दिया है कि सीआरपीसी की धारा 125 के तहत पत्नी का अधिकार तभी समाप्त हो जाता है जब उसे धारा 3 के तहत “निष्पक्ष या उचित” समझौता प्राप्त होता है। पत्नी सीआरपीसी की धारा 125 के तहत तब तक गुजारा भत्ता पाने की हकदार होगी जब तक कि पति मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 की धारा 3 के तहत अपने दायित्व को पूरा नहीं कर लेता। इसके अतिरिक्त, सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि एक मुस्लिम महिला गुजारा भत्ता जारी रखेगी। जब तक वह पुनर्विवाह नहीं करती तब तक भरण-पोषण राशि प्राप्त करने की हकदार होगी।हालाँकि, भरण-पोषण अलग हो चुकी पत्नियों तक ही सीमित नहीं है। भरण-पोषण के प्रावधान बुजुर्ग माता-पिता और नाबालिग बच्चों पर भी लागू होते हैं।इसका मतलब यह है कि इस क्षेत्र में किसी भी सुधार के लिए बेटे/बेटी की अपने बुजुर्ग माता-पिता के भरण-पोषण की जिम्मेदारी के संबंध में माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों के भरण-पोषण और कल्याण अधिनियम, 2007 के प्रावधानों पर भी विचार करना होगा।

इस तरह के अनेक प्रावधानों पर समान कानून बनाने का विधेयक संसद में लाए जाने को भारत की नव क्रांति के रुप में देखा जाएगा | इसलिए प्रतिपक्ष के नेता उलझन में हैं और अभी समर्थन विरोध के मुद्दे पर उनमें गहरे मतभेद हैं | प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को सफलता का विश्वास है , क्योंकि संसद में बहुमत है और प्रतिपक्ष के कुछ दल इस विधेयक का समर्थन करेंगे | जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाने और तीन  तलाक प्रथा ख़त्म करने जैसे कानून की तरह समान नागरिक संहिता बनवाकर भारत को एक नई ऊंचाई पर ले जाने का सेहरा उनके सिर पर बंधेगा |

Author profile
ALOK MEHTA
आलोक मेहता

आलोक मेहता एक भारतीय पत्रकार, टीवी प्रसारक और लेखक हैं। 2009 में, उन्हें भारत सरकार से पद्म श्री का नागरिक सम्मान मिला। मेहताजी के काम ने हमेशा सामाजिक कल्याण के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया है।

7  सितम्बर 1952  को मध्यप्रदेश के उज्जैन में जन्में आलोक मेहता का पत्रकारिता में सक्रिय रहने का यह पांचवां दशक है। नई दूनिया, हिंदुस्तान समाचार, साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिनमान में राजनितिक संवाददाता के रूप में कार्य करने के बाद  वौइस् ऑफ़ जर्मनी, कोलोन में रहे। भारत लौटकर  नवभारत टाइम्स, , दैनिक भास्कर, दैनिक हिंदुस्तान, आउटलुक साप्ताहिक व नै दुनिया में संपादक रहे ।

भारत सरकार के राष्ट्रीय एकता परिषद् के सदस्य, एडिटर गिल्ड ऑफ़ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष व महासचिव, रेडियो तथा टीवी चैनलों पर नियमित कार्यक्रमों का प्रसारण किया। लगभग 40 देशों की यात्रायें, अनेक प्रधानमंत्रियों, राष्ट्राध्यक्षों व नेताओं से भेंटवार्ताएं की ।

प्रमुख पुस्तकों में"Naman Narmada- Obeisance to Narmada [2], Social Reforms In India , कलम के सेनापति [3], "पत्रकारिता की लक्ष्मण रेखा" (2000), [4] Indian Journalism Keeping it clean [5], सफर सुहाना दुनिया का [6], चिड़िया फिर नहीं चहकी (कहानी संग्रह), Bird did not Sing Yet Again (छोटी कहानियों का संग्रह), भारत के राष्ट्रपति (राजेंद्र प्रसाद से प्रतिभा पाटिल तक), नामी चेहरे यादगार मुलाकातें ( Interviews of Prominent personalities), तब और अब, [7] स्मृतियाँ ही स्मृतियाँ (TRAVELOGUES OF INDIA AND EUROPE), [8]चरित्र और चेहरे, आस्था का आँगन, सिंहासन का न्याय, आधुनिक भारत : परम्परा और भविष्य इनकी बहुचर्चित पुस्तकें हैं | उनके पुरस्कारों में पदम श्री, विक्रम विश्वविद्यालय द्वारा डी.लिट, भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार, गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार, पत्रकारिता भूषण पुरस्कार, हल्दीघाटी सम्मान,  राष्ट्रीय सद्भावना पुरस्कार, राष्ट्रीय तुलसी पुरस्कार, इंदिरा प्रियदर्शनी पुरस्कार आदि शामिल हैं ।