अब हंसोगे भी हमारी मर्जी से !

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अब हंसोगे भी हमारी मर्जी से !

अन्ना दुराई

जब से नेतागण भगवान के अवतार घोषित होने लगे हैं। ऐसा लगता है मानों सर्वव्यापी हो गए हैं। मौके बेमौके इनका घमंड और अहंकार साफ झलकता है। इसमें सबसे बड़ा हाथ उन समर्थकों का है जो सिर्फ़ तरह तरह के अपने हित साधने के लिए इनके साथ हैं। इनका देश समाज और आम जनमानस से कुछ लेना देना नहीं। आए दिन सत्ताधीश और उनके समर्थक दादागिरी और प्रपंच खड़ा करते हैं। सब जानते हैं, अधिकांश जुड़े ही इसलिए हैं कि ये अपना धंधा चमका सकें। पार्टी की तो सिर्फ आड़ होती है। नेताओं को ये साध कर रखते हैं। हालत ये हो गए हैं कि सत्ताधीशों और इनके समर्थकों का बस चले तो ये भगवान को भी दर्शन देने के लिए अपने घर बुला लें। आम जनता को ये तुच्छ समझते हैं। चुनाव के समय हाथ जोड़ने वाली नेताओं की मुद्रा चुनाव जीतने के बाद आशीर्वाद स्वरूप में आ जाती है। हाथ ऊंचे करके उनकी अभय मुद्रा यह संकेत कर देती है कि अब आप हमारे रहमो करम पर हो। कुणाल कामरा के यहाँ तोड़ फोड़ करके इन सत्ताधीशों और उनके समर्थकों ने यह बता दिया कि आप हंसोगे भी अब हमारी मर्जी से।

 

सुबह होती है, शाम होती है, जिंदगी यूँ ही तमाम होती है। वाकई इस मशहूर शेर की तरह दिन गुजर जाता है। पता ही नहीं चलता। हर आम और खास इन दिनों फोकटई में ही पड़ा हुआ है। शब्द कड़वा जरूर है लेकिन सोचने और झकझोरने के लिए मजबूर जरूर करता है। एक सामान्य व्यक्ति के जीने के मकसद क्या है। उसकी मूलभूत आवश्यकताएँ क्या है। उसे किन किन चीजों की वास्तविक जरूरत है। सब गौण हो जाते हैं। सत्ताधीश भी आम जनता को दिन रात व्यर्थ के पचड़ों और बहसों में उलझाकर रखते हैं। उसे स्वयं के लिए सोचने का वक्त ही नहीं देते। भय और आतंक का ऐसा भ्रमजाल बना रखा है कि व्यक्ति स्वयं के ज़िंदा मात्र होने से संतोष कर लेता है। कई सरकारें आई और चली गई, लेकिन असल जिंदगी में वह खुद को वहीं के वहीं खड़ा पाता है। झूठ सच के सिवाय कुछ नहीं, सपने ऐसे ऐसे दिखाए जाते हैं कि व्यक्ति आंखे खोलकर ही सारी रात गुजार देता है। उसे जबरदस्ती ऐसी बातों में खुशी ढूँढने के लिए उकसाया जाता है जिसके उसके लिए कोई मायने नहीं। चार पल का भरोसा नहीं और सपने 2047 के दिखाए जाते हैं। 25-30 साल बाद कौन कहाँ, किसे पता।

 

सबसे ज्यादा फोकटई हिंदू मुस्लिम और मंदिर मस्जिद के नाम पर हो रही है। इसका डर, उसका डर। पता नहीं किस किस का डर। कभी नाम बदलने का विवाद तो कभी मस्जिद के नीचे मंदिर का विवाद। कभी फिल्मों का विवाद तो कभी पहनावे का विवाद। इसने इसको ये कह दिया, उसने उसको ये कह दिया। नेताओं का ये साफ सोच नजर आता है कि धर्म के नाम पर जनता यदि बेवकूफ बन रही है तो बनाते रहो। सही है क्योंकि वास्तविक धर्म और आस्था से इनका दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं। यहाँ तक कि अधिकांश धर्म स्थल भी आय का जरिया बनते जा रहे हैं मानों गल्ले पर कोई दुकानदार बैठा हो। इतने धर्म के बाद भी दूध की नदियाँ नहीं नाला ही बहे तो इसके अंदरूनी मकसद को समझना होगा। इंतज़ार है उस दिन का जब भंडारे की पुड़ी खा खाकर आम आदमी का मन इससे तृप्त होगा और वह अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए खड़ा होगा। बेरोजगारी, गैर बराबरी और भ्रष्टाचार ऐसे अहम मुद्दे हैं जिन पर आज नहीं तो कल सामने आना ही होगा। ऐशो आराम में अपना जीवन गुजारने वाले नेताओं और मठाधीशों से अपने लिए भी सुख चेन हथियाना होगा। कोई यह कहकर आपको भूलावे में रखे कि पहले की सरकारों में भी ऐसा ही होता आया है तो दोनों में फर्क क्या। अपने दोष दूसरों पर मड़ने का खेल जनता को ही बंद कराना होगा। आम जन मानस के भाग्य के पट भी तभी खुलेंगे।