OBC Reservation: मध्य प्रदेश सरकार द्वारा कोटा बढ़ाने का बचाव

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OBC Reservation: मध्य प्रदेश सरकार द्वारा कोटा बढ़ाने का बचाव

– विनय झैलावत

हाल ही में उच्चतम न्यायालय में एक याचिका के द्वारा शिवम गौतम ने यह मुद्दा उठाया है कि किसी भी स्थिति में कोई भी आरक्षण का कुल गुणा भाग पचास प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकता। यह उच्चतम न्यायालय द्वारा इंदिरा साहनी के मुकदमे में यही ठहराया गया था।

OBC Reservation: मध्य प्रदेश सरकार ने अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए आरक्षण 14 प्रतिशत से बढ़ाकर 27 प्रतिशत करने के अपने फैसले का पुरजोर बचाव किया। सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को बताया कि पिछड़े समुदाय सामूहिक रूप से राज्य की आबादी का 85 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा बनाता हैं। अपनी व्यापक जनसांख्यिकीय उपस्थिति के बावजूद यह वर्ग अपने अधिकारों से गंभीर रूप से वंचित हैं। अपने हलफनामे में राज्य ने 2011 की जनगणना का हवाला दिया। इसमें अनुसूचित जाति (एससी) 15.6 प्रतिषत, अनुसूचित जनजाति (एसटी) 21.1 प्रतिशत और ओबीसी 51 प्रतिशत से ज्यादा आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं। ओबीसी आयोग की 2022 की एक रिपोर्ट ने इस बात की पुष्टि की है कि अकेले ओबीसी राज्य की आधी से ज्यादा आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस प्रकार, राज्य के अनुसार, वंचित समूह मिलकर मध्य प्रदेश की आबादी का 87 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा बनाते हैं।

OBC Reservation: सरकार ने कहा कि ओबीसी को पहले केवल 14 प्रतिशत आरक्षण तक सीमित रखा गया था। यह उनके जनसांख्यिकीय हिस्से के साथ-साथ उनके सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन के लिए ‘‘पूरी तरह से अनुपातहीन‘‘ था। सरकार की ओर से तर्क दिया गया कि 27 प्रतिशत तक की वृद्धि न केवल उचित है, बल्कि एक ‘‘संवैधानिक रूप से अनिवार्य सुधारात्मक कदम‘‘ भी है। यह हलफनामा मध्य प्रदेश लोक सेवा (अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण) अधिनियम, 1994 की धारा 4 की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं के जवाब में दायर किया गया। इसे 2019 के संशोधन अधिनियम द्वारा संशोधित किया गया। इसके द्वारा राज्य की सेवाओं में सभी पदों पर ओबीसी के लिए आरक्षण 14 प्रतिषत से बढ़ाकर 27 प्रतिषत कर दिया गया।

OBC Reservation: सन् 2022 में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने अंतरिम आदेश पारित कर राज्य को 14 प्रतिशत से अधिक ओबीसी आरक्षण प्रदान करने से रोक दिया था। दिसंबर 2019 के नियमों पर रोक भी लगाई थी। 2024 में याचिकाओं को सर्वोच्च न्यायालय में ट्रांसफर कर दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय का आदेश रद्द नहीं किया और मामले की अंतिम सुनवाई अक्टूबर, 2025 के लिए स्थगित की है। चूंकि मध्य प्रदेश में अनुसूचित जातियों को 16 प्रतिषत और अनुसूचित जनजातियों को 20 प्रतिशत आरक्षण प्राप्त है। इसलिए ओबीसी आरक्षण को बढ़ाकर 27 प्रतिशत करने से आरक्षण 50 प्रतिशत की सीमा से अधिक हो जाएगा। 10 प्रतिशत आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों (ईडब्‍ल्‍युएस) कोटे के साथ, कुल आरक्षण 73 प्रतिशत हो जाएगा। मध्य प्रदेश में 2011 की जनगणना के अनुसार, अनुसूचित जातियां 15.6 प्रतिशत, अनुसूचित जनजातियां 21.1 प्रतिशत और अन्य पिछड़ा वर्ग कुल जनसंख्या का 51 प्रतिशत से अधिक हैं। मध्य प्रदेश के ओबीसी आयोग की वर्ष 2022 की एक अन्य रिपोर्ट इस बात की पुष्टि करती है कि राज्य में अन्य पिछड़ा वर्ग की जनसंख्या 50 प्रतिशत से अधिक है। इस प्रकार, वंचित समुदाय सामूहिक रूप से राज्य की जनसंख्या का 87 प्रतिशत से अधिक हिस्सा बनाते हैं। फिर भी ओबीसी को पहले केवल 14 प्रतिशत आरक्षण तक ही सीमित रखा गया, जो उनके जनसांख्यिकीय हिस्से और उनके वास्तविक शैक्षिक एवं सामाजिक पिछड़ेपन के अनुपात से पूरी तरह से असंगत है। इसलिए 27 प्रतिशत तक की वृद्धि संवैधानिक रूप से अनिवार्य सुधारात्मक कदम है। इसी आधार पर मध्य प्रदेश सरकार ने उक्त शपथ पत्र दिया है। इस हलफनामे में इस बात पर जोर दिया गया कि इंदिरा साहनी निर्णय (1992) ‘‘असाधारण परिस्थितियों‘‘ में 50 प्रतिशत की सीमा को पार करने की अनुमति देता है। इसमें अत्यधिक पिछड़ापन और क्षेत्रीय असंतुलन शामिल हैं।

‘‘मध्य प्रदेश सरकार के अनुसार यह मामला पूरी तरह से इन असाधारण परिस्थितियों में आता है।‘‘ विभिन्न आंकड़ों का हवाला देते हुए राज्य ने दावा किया कि मध्य प्रदेश में ओबीसी वर्ग सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से ‘‘गहरी जड़ें जमाए हुए और बहुआयामी पिछड़ेपन‘‘ से जूझ रहा है। यह विशेषाधिकार प्राप्त समूहों के साथ प्रतिस्पर्धा करने की उनकी क्षमता को गंभीर रूप से प्रभावित करता है। सरकार ने कहा कि यह व्यवस्थागत बहिष्कार, भेदभाव और वंचना में तब्दील हो जाता है। आयोग के निष्कर्षों से पता चला है कि लगभग आधी आबादी होने के बावजूद, उच्च सरकारी सेवाओं में ओबीसी का प्रतिनिधित्व नगण्य है। उन्हें व्यापक जातिगत भेदभाव, सार्वजनिक स्थानों तक पहुंच से वंचित रखने और भोजन के आधार पर बहिष्कार का भी सामना करना पड़ रहा है। इस बात पर जोर देते हुए कि ये स्थितियां गहरे संरचनात्मक बहिष्कार को दर्शाती हैं, राज्य ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि ओबीसी वर्ग ‘‘राष्ट्रीय जीवन की मुख्यधारा से बाहर‘‘ बना हुआ है। उसे और अधिक सुरक्षात्मक उपायों की आवश्यकता है।

आयोग की रिपोर्टों के अनुसार, आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के सदस्य औद्योगीकरण के कारण पारंपरिक व्यवसायों पर प्रतिकूल प्रभाव, ऋण बंधन के कारण शोषित श्रम स्थितियों और मध्यम या बड़े पैमाने के व्यावसायिक उद्यमों में उपस्थिति की कमी से पीड़ित हैं। सार्थक आर्थिक उन्नति का अभाव संरचनात्मक बाधाओं को दर्शाता है, जो पारंपरिक सीमाओं से परे सकारात्मक कार्रवाई को उचित ठहराता है। हलफनामे में राज्य सरकार द्वारा 1980 में गठित महाजन आयोग के निष्कर्षों का भी व्यापक रूप से सहारा लिया गया। सर्वेक्षण के बाद आयोग ने निष्कर्ष निकाला कि राज्य सेवाओं और शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश दोनों में ओबीसी के लिए 35 प्रतिषत आरक्षण दिया जाना चाहिए।

हलफनामे में अदालतों के अंतरिम आदेशों से उत्पन्न प्रशासनिक गतिरोध की ओर भी ध्यान आकर्षित किया गया। इसमें कहा गया कि 2022 से कई विभागों में भर्ती प्रक्रिया ठप हो गई। इससे लोक सेवा आयोग और कर्मचारी चयन बोर्ड में 4,700 से अधिक पद खाली हैं। रुके हुए चयनों के परिणामस्वरूप राज्य को ‘‘अपूरणीय क्षति‘‘ हो रही है। सर्वोच्च न्यायालय से मामले के अंतिम निर्णय के अधीन, बढ़े हुए कोटे के तहत नियुक्तियों की अनुमति देने का आग्रह किया गया।

यह जानना उचित होगा कि 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण की अनुमति क्यों नहीं है ? इसी कड़ी में यह भी जानना चाहिए कि इंदिरा साहनी प्रकरण एवं आरक्षण पर उच्चतम न्यायालय की क्या टिप्पणी थी ? सर्वोच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार के मराठा आरक्षण के फैसले को गैरसंवैधानिक करार दिया है। न्यायालय ने साथ में यह भी स्पष्ट किया कि ऐतिहासिक इंदिरा साहनी निर्णय पर पुनर्विचार की जरूरत नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने इंदिरा साहनी यानी मंडल निर्णय को दोबारा परीक्षण के लिए बड़ी खण्डपीठ को भेजने से इनकार कर दिया। यह भी कहा कि इंदिरा साहनी में 50 फीसदी रिजर्वेशन का सीमा तय करने का जो फैसला हुआ था उसे बाद के कई निर्णय में मान्य करार दिया जा चुका है। ऐसे में इंदिरा साहनी निर्णय को दोबारा देखने की जरूरत नहीं है।

OBC Reservation: भारतीय राजनीति में आरक्षण का मुद्दा समय-समय पर खूब उठता है। पिछले काफी समय से मराठा आरक्षण का मुद्दा सुर्खियों में है। मराठा रिजर्वेशन के खिलाफ दाखिल याचिका पर सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने टिप्पणी करते हुए कहा था कि अगर रिजर्वेशन के लिए 50 फीसदी की लिमिट नहीं रही तो फिर समानता के अधिकार का क्या होगा ? महाराष्ट्र सरकार ने दलील दी कि इंदिरा साहनी निर्णय को दोबारा देखने की जरूरत है। हालांकि, अब न्यायालय ने अपने फैसले में स्पष्ट किया है कि इंदिरा साहनी निर्णय की समीक्षा की जरूरत नहीं है। इसमें सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत तय की थी।

इंदिरा साहनी ने याचिका प्रस्तुत की थी। इंदिरा साहनी दिल्ली की एक पत्रकार थीं। साल 1991 में पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने आर्थिक आधार पर सामान्य श्रेणी के लिए 10 फीसदी आरक्षण देने का आदेश जारी किया था, जिसे इंदिरा साहनी ने न्यायालय में चुनौती दी थी। इंदिरा साहनी केस में नौ जजों की बेंच ने कहा था कि आरक्षित स्थानों की संख्या कुल उपलब्ध स्थानों के 50 फीसदी से अधिक नहीं होना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय के इसी ऐतिहासिक फैसले के बाद से कानून बना था कि 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता। समय-समय में राजस्थान में गुर्जर, हरियाणा में जाट, महाराष्ट्र में मराठा, गुजरात में पटेल जब भी आरक्षण मांगते तो सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला आड़े आ जाता है। इसके लिए राज्य सरकारें तमाम उपाय भी निकाल लेती हैं। देश के कई राज्यों में अभी भी 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण दिया जा रहा है।

वीपी सिंह ने मंडल कमीशन की सिफारिश को ज्ञापन के जरिए लागू कर दिया था। इंदिरा साहनी इसके वैध होने को लेकर 1 अक्टूबर, 1990 को सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गईं थीं। तब तक वीपी सिंह सत्ता से जा चुके थे। चंद्रशेखर नए प्रधानमंत्री बने। उनकी सरकार ज्यादा दिन तक चली नहीं। सन् 1991 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई। प्रधनमंत्री बने पीवी नरसिम्हा राव। मंडल कमीशन ने पिछड़ा वर्ग के लिए 27 फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया था।

मराठा रिजर्वेशन के खिलाफ दाखिल याचिका पर सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने टिप्पणी करते हुए कहा कि अगर रिजर्वेशन के लिए 50 फीसदी की सीमा नहीं रही तो फिर समानता के अधिकार का क्या होगा ? इंदिरा साहनी निर्णय में 50 फीसदी रिजर्वेशन की ऊपरी सीमा तय की गई है। महाराष्ट्र सरकार की दलील है कि इंदिरा साहनी निर्णय को दोबारा देखने की जरूरत है।