अरे बाप रे…40 हजार रुपए में एक किलो सब्जी !!

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अरे बाप रे…40 हजार रुपए में एक किलो सब्जी !!

-संजीव शर्मा

यह हिमालय की राजकुमारी है.. नाज़ुक, दुर्लभतम एवं इतनी शर्मीली की लाख तलाशने पर भी नज़र नहीं आती..और कीमती इतनी की इसके सामने सोना चांदी भी शरमा जाएं। यह कोई धातु नहीं है फिर भी इसे पहाड़ों का सोना कहा जाता है..इंसान नहीं है फिर भी राजकुमारी है और दवा नहीं है फिर भी दुनिया के किसी भी बेशकीमती नुस्खे से कम नहीं है। बर्फीली चोटियों पर पूरी शान-ओ-शौकत से रहने वाली यह नाजुक सी राजकुमारी दरअसल सब्जियों की दुनिया की ‘रॉयल प्रिंसेस’ है और इसका नाम भी कुछ अलग सा है – गुच्छी।

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मधुमक्खी के छत्ते (honeycomb) सा स्पंजी क्राउन पहने यह प्रिंसेस आमतौर पर जंगलों में छिपकर रहती है। जैसे ही हिमालय की बर्फ पिघलती है तो यह हौले से लजाते हुए बाहर झांकती है, जैसे शाही परिवार का कोई चश्म-ओ-चिराग अपने महल से निकल रहा हो। लेकिन राजकुमारी गुच्छी इतनी नखरेबाज है कि आसानी से नहीं मिलती बल्कि जंगलों में घंटों भटककर एवं जोखिम उठाकर ही इसे मनाना और लाना पड़ता है। अब रही कीमत की बात तो यह सब्जियों की सरताज है क्योंकि एक किलो सूखी गुच्छी की कीमत 30,000 से 40,000 रुपये है। इतनी कीमती कि, फाइव स्टार होटल में इसे डिश में डालते वक्त शेफ भी सोचते हैं कि गलती से ज्यादा न डल जाए..आखिर यह सोने से कम कीमती थोड़ी है। वैसे भी, सोना तो दुनिया भर में दाम चुकाकर मनचाही मात्रा में ले सकते हैं लेकिन हमारी गुच्छी प्रकृति में अवतरित ही इतनी कम मात्रा में होती हैं कि आप पैसा देकर भी ज्यादा नहीं खरीद सकते।

स्वाद में जादू, सेहत का खजाना, और रुतबे में सब्जियों की क्वीन— गुच्छी वास्तव में हिमाचल प्रदेश में पैदा होने वाल एक खास किस्म का मशरूम है। यह हिमाचल की बर्फीली ऊंचाइयों में छिपा एक ऐसा खजाना है जो प्रकृति का दुर्लभ उपहार है। हिमाचल प्रदेश के साथ साथ इसने धरती पर जन्नत यानि कश्मीर और उत्तराखंड में भी अपना घर बनाया है।

हिमाचल प्रदेश में मुख्य रूप से कुल्लू, शिमला, मंडी और चंबा जैसे जिलों के घने जंगलों में बर्फ पिघलने के बाद यह मशरूम रहस्यमयी तरीके से उगता है। इसकी स्पंज जैसी आकृति, मिट्टी का स्वाद और औषधीय गुण इसे राजसी व्यंजनों का सरताज बनाते हैं।

यही वजह है कि पुलाव से लेकर ग्रेवी तक, हर डिश में यह जादू बिखेरता है लेकिन इसकी यह कीमत सिर्फ स्वाद के कारण नहीं है बल्कि इसलिए भी है क्योंकि इसे खेती करके सामान्य रूप से खेत में नहीं उगाया जा सकता। यह मशरूम मनमर्जी का मालिक है और इसे जंगलों में खोजना पड़ता है। इतना ही नहीं, कभी-कभी तो जान जोखिम में डालकर भी यह पकड़ में नहीं आता। यही वजह है कि गुच्छी को ‘पहाड़ों का सोना’ कहा जाता है।

गुच्छी बाहर से रफ-टफ, अंदर से रसीली और स्वाद में इतनी लज़ीज़ है कि एक बार चखो तो पुलाव, बिरयानी या ग्रेवी इसके बिना अधूरी लगने लगते हैं। खास बात यह है कि ये सिर्फ स्वाद नहीं, सेहत का खजाना भी है। गुच्छी एंटीऑक्सीडेंट से भरपूर और गठिया,एनीमिया और ट्यूमर से लड़ने वाला सुपरफूड है। ये पोटेशियम, कॉपर, फास्फोरस, कैल्शियम,जिंक, कई विटामिन और आयरन से समृद्ध हैं। कई बी-विटामिनों के अलावा विटामिन डी का बड़ा स्रोत है जो शरीर को कई बीमारियों से बचा सकता है। यह हृदय रोगों और मधुमेह के उपचार में उपयोगी है। यह मूड स्विंग्स और क्रेविंग को भी नियंत्रित कर सकता है।

हिमाचल प्रदेश की ऊंची पहाड़ियों और घने जंगलों में पाया जाने वाला गुच्छी मशरूम का वैज्ञानिक नाम Morchella esculenta (मोर्चेला एस्कुलेंटा) है, जिसे आमतौर पर मोरल मशरूम के नाम से भी जाना जाता है और यह एस्कोमाइकोटा (Ascomycota) परिवार से संबंधित है। यह देवदार, सेब के बागों और पाइन के जंगलों के नीचे प्राकृतिक रूप से विकसित होता है। आयुर्वेदिक ग्रंथ चरक संहिता में इसे सर्पच्छत्रक कहा गया है। हालांकि, अब जलवायु परिवर्तन और मानवीय हस्तक्षेप के कारण इसकी पैदावार में लगातार गिरावट आ रही है। दरअसल, बर्फ पिघलने के बाद ही मिट्टी में नमी और उचित तापमान उपलब्ध होता है इसलिए गुच्छी पहले जनवरी से अप्रैल तक उपलब्ध होती थी, लेकिन हाल के वर्षों में मौसम में बदलाव और घटती बर्फबारी के कारण इसकी पैदावार खिसककर जून तक पहुंच गई है।

हिमाचल प्रदेश में गुच्छी की पैदावार मुख्य रूप से जंगली है, और इसका कोई आधिकारिक उत्पादन रिकॉर्ड नहीं मिलता लेकिन विभिन्न अध्ययनों और रिपोर्ट में उपलब्ध आंकड़े भी इसकी गिरावट को दर्शाते हैं। मसलन शिमला जिले में 2008-2010 तक प्रति सीजन एक समूह 8 किलोग्राम तक गुच्छी मशरूम इकट्ठा कर लेता था, लेकिन अब बताते हैं कि बमुश्किल आधा किलो ही मिल पाता है।

वैसे, उत्पादन में गिरावट के बाद भी वैश्विक स्तर पर, भारत गुच्छी का प्रमुख उत्पादक है। हमारा देश हर साल तकरीबन 50 टन सूखी गुच्छी का निर्यात करता है। जानकारों के मुताबिक गुच्छी को सुखाकर रखने से इसकी सेल्फ लाइफ़ काफी बढ़ जाती है। गुच्छी की पैदावार में गिरावट का मुख्य कारण पहाड़ों पर बढ़ते तापमान और कम वर्षा से मिट्टी की नमी प्रभावित होना है। इसके अलावा, वनों की कटाई, सेब के पुराने बागों का हटना और लालच में इसका अत्यधिक संग्रहण भी अहम कारण हैं। ज्यादा मशरूम हासिल करने के लिए कई बार इसे तोड़ने के बजाए जड़ से उखाड़ लिया जाता है । इससे न केवल इसके फैलाव पर असर पड़ा है बल्कि कई इलाकों में अब यह पैदा ही नहीं हो पा रहा।

हालांकि, ‘जहां चाह वहां राह’ की तर्ज पर गुच्छी की कृत्रिम खेती में काफी प्रगति देखने को मिल रही है। शिमला के पास स्थित सोलन में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के मशरूम अनुसंधान निदेशालय ने भारत में गुच्छी की सफलतापूर्वक खेती की दिशा में उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल की है लेकिन इसके मुरीदों की नजर में यह वैसा ही है जैसे प्राकृतिक सोना और प्रयोगशाला में बना सोना। फिर भी, यह मशरूम चूंकि हिमाचल प्रदेश में न केवल स्थानीय संस्कृति का हिस्सा है, साथ ही एक अहम आर्थिक स्त्रोत भी है इसलिए, उम्मीद यही है कि सरकार और वैज्ञानिकों के प्रयास रंग लायेंगे और ‘पहाड़ों का सोना’ अपनी चमक बरकरार रख सकेगा। हम जैसे लोग भले ही इसे खरीदकर न खा पाएं लेकिन यह सोचकर गर्व तो कर ही सकते हैं कि दुनिया की सबसे महंगी यह सब्जी हमारे देश में पैदा होती है।