स्वतंत्रता दिवस पर जयकार के साथ जरुरत जिम्मेदारियों के संकल्प की

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स्वतंत्रता दिवस पर जयकार के साथ जरुरत जिम्मेदारियों के संकल्प की

स्वतंत्रता दिवस पर एक बार फिर लाल किले के साथ सम्पूर्ण राष्ट्र में ‘ जय हिन्द ‘ और ‘ आज़ादी अमर रहे ‘ के नारे गूँजेगें | स्वतंत्रता की सबसे बड़ी उपलब्धि है – ‘ अभिव्यक्ति की आज़ादी ‘, लेकिन 78 वर्ष में स्वतंत्रता का जश्न मानते समय भारत ही नहीं , दुनिया के कई लोकतांत्रिक देशों में भी सवाल उठ रहा है कि अभिव्यक्ति और सूचना – समाचार तंत्र और नए सोशल मीडिया की स्वतंत्रता की कोई सीमा रहेगी या नहीं ? भारत में सात दशकों के बाद भी अराजक तत्वों द्वारा ‘ हमें चाहिए आज़ादी , लेकर रहेंगे आज़ादी ‘ का क्या औचित्य और छूट क्यों है ? देश में कहीं कोई विदेशी या राजा का शासन नहीं है | वहीँ खुले आम अराजकता का आव्हान या किसी भी माध्यम से सत्तारुढ़ अथवा विपक्ष के नेता , अधिकारी , सेना , व्यापारी , डॉक्टर , इंजीनियर , शिक्षाविद , संस्कृतिकर्मी इत्यादि के चरित्र हनन के अधिकार की छूट कैसे दी जा सकती है ? जब सरकारें कोई कानून बनाने की पहल करती है , तो प्रारुप से ही विरोध प्रारम्भ हो जाता है | नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक की सरकारें जब मीडिया की बात करती हैं , तो अभिव्यक्ति के सिद्धांत को लेकर सार्वजनिक विवाद खड़े हो जाते हैं | अब तो न्याय के देवता न्यायाधीश मासूम बच्चों के अश्लील पोर्न सामग्री को देखने की स्वतंत्रता के फैसले दे रहे या भारत विरोधी आतंकवादी गतिविधि , हत्या , भ्र्ष्टाचार के आरोपी को भी जमानत की अनिवार्यता समझाने लगे हैं | संसद में विरोध के नाम पर प्रतिपक्ष के नेता प्रधान मंत्री के भाषण के दौरान लगातार शोर हंगामा करने के अलावा हफ़्तों तक संसद की कार्यवाही रोकने के प्रयास कर रहे हैं | संसद में लोक सभा के अध्यक्ष अथवा राज्य सभा के सभापति द्वारा संसदीय नियमों के उल्लंघन और अनर्गल बातों को सदन की कार्यवाही से निकालने के आदेश देते हैं , लेकिन टी वी से सीधे प्रसारण के कारण वही बातें न्यूज़ चैनलों अथवा विशाल सोशल मीडिया से देश दुनिया में लगातार दिखाई सुनाई जा रही है |

यह मुद्दा गंभीर है कि प्रिंट , टी वी चैनल , सीरियल , फिल्म , सोशल मीडिया , को कितनी आज़ादी और कितना नियंत्रण हो ? सरकार , प्रतिपक्ष और समाज कभी खुश , कभी नाराज | नियम – कानून , आचार संहिताएं ,पुलिस , अदालत के सारे निर्देशों के बावजूद समस्याएं कम होने के बजाय बढ़ रही हैं | सूचना संसार कभी सुहाना , कभी भूकंप की तरह डगमगाता , कभी ज्वालामुखी की तरह फटता दिखाई देता है | आधुनिकतम टेक्नोलॉजी ने नियंत्रण कठिन कर दिया है | सत्ता व्यवस्था ही नहीं अपराधी – माफिया , आतंकवादी समूह से भी दबाव , विदेशी ताकतों का प्रलोभन और प्रभाव सम्पूर्ण देश के लिए खतरनाक बन रहा है | इन परिस्थितियों में विश्वसनीयता तथा भविष्य की चिंता स्वाभाविक है | यह भी सही है कि कश्मीर के आतंकवादी समूह और छत्तीसगढ़ , झारखण्ड , उड़ीसा के आदिवासी क्षेत्रों में हिंसा , अत्याचार और आतंक फ़ैलाने वाले नक्सली संगठनों या उनके सरगनाओं को मानव अधिकार के नाम पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से सहायता करने वालों पर कड़ी कार्रवाई होनी ही चाहिये , फिर भले ही पत्रकारिता या चिकित्सा अथवा जेबी स्वयंसेवी संस्था का चोगा पहने हुए हों |

ब्रिटेन में केबल टी वी एक्ट का प्राधिकरण है | भारत में जब तक ऐसी नियामक संस्था नहीं हो तब तक भारतीय प्रेस परिषद् द्वारा निर्धारित नियमों , आचार संहिता का पालन टी वी – डिजिटल मीडिया में भी किया जाए | फिलहाल प्रिंट मीडिया का प्रभावशालिओ वर्ग ही प्रेस परिषद् के नियम – संहिता की परवाह नहीं कर रहा है , क्योकि उसके पास दंड देने का कोई अधिकार नहीं है | जबकि प्रेस परिषद् के अध्यक्ष सेवा निवृत्त वरिष्ठ न्यायाधीश ही होते हैं | अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार संविधान में हर नागरिक के लिए है | पत्रकार उसी अधिकार का उपयोग करते हैं | समाज में हर नागरिक के लिए मनुष्यता , नैतिकता , सच्चाई और ईमानदारी के साथ कर्तव्य के सामान्य सिद्धांत लागु होते हैं | पत्रकारों पर भी वह लागू होने चाहिए | सरकार से नियंत्रित व्यवस्था नहीं हों , लेकिन संसद , न्याय पालिका और पत्रकार बिरादरी द्वारा बनाई गई पंचायत यानी मीडिया परिषद् जैसी संस्था के मार्गदर्शी नियम लक्ष्मण रेखा का पालन तो हो |

न्याय पालिका के सामने एक गंभीर मुद्दा भी उठाया जाता रहा है कि मानहानि कानून का दुरूपयोग भी हो रहा है , जिससे ईमानदार मीडियाकर्मी को नेता , अधिकारी या अपराधी तंग करते हैं | अदालतों में मामले वर्षों तक लंबित रहते हैं | इसलिए जरुरत इस बात की है कि समय रहते सरकार , संसद , न्याय पालिका , मीडिया नए सिरे से मीडिया के नए नियम कानून , आचार संहिता को तैयार करे | नया मीडिया आयोग , मीडिया परिषद् बने | पुराने गोपनीयता अथवा मानहानि के कानूनों की समीक्षा हो |

सुप्रीम कोर्ट ने कुछ वर्ष पहले राजद्रोह का कठोरतम कानून सरकार की आलोचना करने वाले पत्रकारों पर लागू करने के राज्य सरकारों के प्रयासों को नितांत अनुचित ठहरा दिया था | न्याय के मंदिर से यही अपेक्षा थी | सर्वोच्च अदालत ने यह अवश्य स्पष्ट कर दिया कि हिंसा के जरिये अराजकता पैदा करने वाली उत्तेजक देशद्रोह जैसी प्रचार सामग्री पर इस कानून का प्रयोग संभव है | इस निर्णय से देश भर के पत्रकारों को बड़ी राहत महसूस हुई | लेकिन राज्य सरकारों , उनकी पुलिस को भी अपनी सीमाओं को समझकर मनमानी की प्रवृत्ति को बदलना होगा |यह फैसला देश के एक नामी पत्रकार के एक टी वी कार्यक्रम में की गई टिपण्णी पर हिमाचल प्रदेश में राजद्रोह का मुक़दमा दर्ज होने के विरुद्ध दायर याचिका पर आया है | लेकिन कुछ अन्य राज्यों में भी ऐसे मुकदमे दर्ज हुए हैं | संभवतः कुछ गंभीर हिंसा के प्रमाणित मामलों को छोड़कर अन्य प्रकरणों में निचली अदालतों से ही पत्रकार दोषमुक्त घोषित हो जायेंगें | यह विवाद एक बार फिर इस तथ्य को रेखांकित करता है कि सरकारी गोपनीयता के नाम पर ब्रिटिश राज के काले कानूनों में आवश्यक संशोधन संसद द्वारा सर्वानुमति से शीघ्र होने चाहिये |

महात्मा गाँधी ने 1946 में अपने अख़बार ‘हरिजन में लिखा था कि पश्चिम की तरह पूर्व में भी अख़बार लोगों की बाइबल , कुरान , और भगवदगीता बनाते जा रहे हैं | अखबार में जो चपटा है , उसे लोग ईश्वरीय सत्य मां लेते हैं | लोग किसी छपी बात को देवी सत्य मान लेते हैं | इस कारण सम्पादकों और अन्य पत्रकारों का दायित्व बढ़ जाता है | गांधीजी ने उस समय पाठकों को भी चेताया था कि ” मैं स्वयं कभी अख़बारों की रिपोर्टिंग पर बहुत अधिक भरोसा नहीं करता और अखबारों के पाठकों को चेतावनी देना चाहता हूँ कि वे उनमें छपी बातों से आसानी से प्रभावित न हों |” इस दृष्टि से प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की विश्वसनीयता तथा सम्पादकों की भूमिका को लेकर आज भी बहस जारी है | इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने समाचार माध्यमों का नक्शा ही बदल दिया है | अपनी पत्रकारिता के प्राम्भिक वर्ष 1970 में मैंने अपने पहले संपादक राजेंद्र माथुर से पूछा था – ‘ पत्रकारिता के नियम कानून क्या होते हैं और कहाँ मिल सकते हैं ? ‘ माथुरजी ने मुस्कुराते हुए समझाया था – ” पत्रकारिता के नियम कानून किसी किताब में नहीं मिलेंगे | वह तो खुद बनाने होंगे | लक्ष्मण रेखा घर के लोग ही खींच सकते हैं | बाहर वाला या तो रेखा गलत खींच देगा या फिर अपहरण करके ले जाएगा | ” यह सलाह सूत्र आज तक मेरे जैसे पत्रकारों के लिए काम आ रहा है | यों बाद के दशकों में प्रेस परिषद् , एडिटर्स गिल्ड ने पत्रकारों की आचार संहिता बनाई है | लेकिन उनका पालन कोई थोप नहीं सकता | संपादक या सहयोगी पत्रकार स्वयं अपनी सीमाएं बनाते या नहीं स्वीकारते हैं |

लोकसभा राज्य सभा तथा राज्य विधानमंडलों के प्रत्येक सदन के पीठासीन अधिकारियों को नियमों के अन्तर्गत यह अधिकार है कि असंसदीय टिप्पणियों, शब्दों, भाषण उसके हिस्से को सदन की कार्यवाही से निकाले जाने का आदेश दे सकते हैं। कार्यवाही से निकाले गए अंश पर तारा का निशान टंकित करके कार्यवाही में ‘आसन के आदेश से निकली’ टिप्पणी जोड़ दी जाती है। जिन राज्य विधान मण्डलों के सदन की नियमावली में इसका स्पष्ट प्रावधान नहीं है वहां यह सदन का अन्तर्निहित अधिकार माना जाता है जिसके अन्तर्गत पीठासीन अधिकारी कार्यवाही के असंसदीय हिस्से को कार्यवाही से निकाले जाने का आदेश दे सकता है। ब्रिटेन में संसद के किसी सदन को कार्यवाही से निकालने का अधिकार स्पष्ट तौर पर नहीं उपलब्ध है किन्तु यह सदन का विशेषाधिकार माना जाता है कि उसका पीठासीन अधिकारी कार्यवाही के उस हिस्से को सदन की कार्यवाही से निकाले जाने का आदेश दे सकता है जो उसकी राय में सदन की गरिमा के अनुरूप नहीं हो। सदन की कार्यवाही से निकाले गए अंश को सदन की कार्यवाही का हिस्सा नहीं माना जाता। इसलिए उसे किसी संचार माध्यम द्वारा प्रकाशित नहीं करने का नियम था | इस सम्बन्ध में बिहार विधान सभा में 1957 में ‘ सर्चलाइट ‘ अख़बार का एक महत्त्वपूर्ण मामला था | विशेषाधिकार समिति ने 10 अगस्त 1958 को प्रस्ताव पारित करके ‘सर्चलाइट’ अखबार के सम्पादक एम.एस.एम. शर्मा तथा मुद्रक एंव प्रकाशक को कारण बताओ नोटिस जारी किया कि क्यों न उनके विरुद्ध सदन के विशेषाधिकार हनन की कार्यवाही की जाए। इस नोटिस के खिलाफ ‘सर्चलाइट’ की ओर से संविधान के अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत सुप्रीम कोर्ट के समक्ष रिट याचिका दायर करके मांग की गई कि अखबार के खिलाफ 31 मई 1957 को प्रकाशित समाचार के सम्बन्ध में कोई कार्यवाही न करने का सदन को निर्देश दिया जाए।

‘सर्चलाइट’ मामले में सुप्रीम कोर्ट के सामने दो महत्त्वपूर्ण प्रश्न थे। पहला यह कि क्या विधानसभा को यह अधिकार है कि वह सदन की कार्यवाही से निकाले गए अंश को अखबार में प्रकाशित करने पर रोक लगा सकता है। दूसरा यह था कि यदि विधानसभा को कार्यवाही से निकाले गए अंश को प्रकाशित करने से रोकने का अधिकार हो तब भी एक नागरिक को वाणी तथा अभिव्यक्ति का अधिकार है तथा संसदीय विशेषाधिकार एंव अभिव्यक्ति के मूल अधिकार में अन्तर्विरोध होने पर उनमें से किसको तरजीह दी जानी चाहिए। विधानसभा की कार्यवाही से निकाले गए अंश को प्रकाशित करने से रोकने के विशेषाधिकार के सम्बन्ध में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विधानसभा को अपनी कार्यवाही के किसी किसी हिस्से को कार्य्र्र्रवाही से निकालने और उसे्र प्रकाशित करने से रोकने का विशेषाधिकार है तथा उसके उल्लंघन करने वालों को दण्डित करने का अधिकार है। सदन के विशेषाधिकार तथा अनुच्छेद 19(1)क के अन्तर्विरोध के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसी दशा में अभिव्यक्ति के अधिकार की तुलना में संसदीय विशेषाधिकारों को तरजीह दी जाएगी तथा नागरिकों को अभिव्यक्ति का अधिकार उस सीमा तक अप्राप्य होगा जिस सीमा तक उसका सदन के विशेषाधिकार के साथ अन्तर्विरोध हो।सदन की कार्यवाही से निकाला जाने वाला अंश सदन की कार्यवाही का हिस्सा नहीं माना जाता। अतः उन अंशों के सम्बन्ध में अनुच्छेद 361(क) के द्वारा कार्यवाही की रिपोर्ट के प्रकाशन के सम्बन्ध संचार माध्यमों को दी गई उन्मुक्ति उन्हें उपलब्ध नहीं होती। लेकिन अब किसी विधान सभा या संसद में इस तरह की कार्यवाही नहीं हो पा रही है और न ही अदालतें कोई निर्णय दे रही | इसलिए आजादी की जयकार के साथ हर क्षेत्र के लोगों को अपनी जिम्मेदारियों के संकल्प पर भी विचार करना अच्छा होगा |

स्वतंत्रता दिवस पर सबके लिए शुभकामनाएं |