नगरीय-पंचायत चुनावों में एक बार फिर पंद्रह साल बनाम पंद्रह माह …

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नगरीय-पंचायत चुनावों में एक बार फिर पंद्रह साल बनाम पंद्रह माह ...
पंचायत और नगरीय निकाय चुनावों की सरगर्मियां जैसे-जैसे तेज हो रही हैं। वैसे-वैसे भाजपा और कांग्रेस आमने-सामने आकर अपनी-अपनी जीत के दावे कर रहे हैं। बात अंत में वहीं पर आकर टिक जाती है कि किसका काम बेहतर। जब काम की बात होती है तो फिर वही जुमले कि भाजपा ने 17 साल जिसमें शिवराज के 15 साल और कमलनाथ के 15 महीने के हिसाब में कौन बेहतर है? यह ऐसा सवाल है कि जिसके जवाब में हर दल अपनी सुंदरता और प्रतिद्वंदी दल की कुरूपता का जितना बढ़-चढ़कर बखान कर सकता है, उससे भी ज्यादा करने में कोई गुरेज नहीं करता है। पर जनता है, जो अपने अनुभवों को ही तवज्जो देती है और उसी के मुताबिक फैसला भी सुनाती है।
Once again fifteen years versus fifteen months in urban-panchayat elections.
पंचायत चुनाव वैसे गैर दलीय हैं, लेकिन पंच-सरपंच, जनपद-जिला पंचायत और सदस्यों के लिए जो भी दावेदारी करते हैं, उनकी निष्ठा तो दल विशेष के साथ होती ही है। पंच-सरपंच के चुनावों में जहां चौपट्टों पर बूढ़े और घने पेड़ों की छांव में राजनैतिक बिसात बिछेगी,तो हर तरह के पांसे फेंके जाएंगे। कोई शकुनि बनकर छल करेगा, तो कोई युधिष्ठर-पांडव बनकर छला जाएगा। और फिर गांव-गांव की हवा में राजनीति घुल जाएगी। किसी को यह फिजां ऊर्जा से भरेगी, तो कोई घुटन महसूस करेगा। इसमें युवा हों या बुजुर्ग, सभी का नजरिया राजनैतिक हो जाता है।
व्यक्तिगत तौर पर गढ़े मुर्दे उखाड़े जाते हैं, तो मान-मनुहार का दौर चलता है। बाहरी दबाव-प्रभाव समझौतों को अंजाम देकर स्थितियों को साधने की भरसक कोशिश करता है। चुनाव चिन्ह भले ही दलीय न हों, लेकिन चुनावी चेहरे तो सीधे तौर पर दलों में बंटकर अपने-अपने समर्थित दलों का ही बिगुल फूंकते हैं। और इससे भी ज्यादा लॉबिंग होती है जिला पंचायत और जनपद पंचायत अध्यक्षों के अप्रत्यक्ष चुनावों में, जहां परदे के पीछे सभी तरह की चालें बड़े-बड़े नेता चलते हैं। और समर्थित प्रत्याशी को जिताने में साम, दाम, दंड और भेद जैसी सभी चालें चली जाती हैं।


तो पंचायत चुनाव ही बिना दलीय चुनाव चिन्ह के लड़े जाने वाले सबसे ज्यादा राजनीति से भरे चुनाव हैं। जिसकी आहट शुरु हो चुकी है। तो नगरीय निकाय चुनावों में तो दलों का सीधा हस्तक्षेप है ही, सो कहना ही क्या है? यहां तो हर चाल ही शह-मात से भरी होती है। राजनैतिक दल अपना सर्वस्व झौंककर जीत का दामन थामने की होड़ में रहते हैं। कुछ महापौरों के प्रत्याशियों की घोषणा कर कांग्रेस ने बढ़त हासिल कर ली है। तो भाजपा भारी भरकम जीत के भरोसे से भरी है, जबकि कांग्रेस को भरोसा है कि जनता न्याय कर उसे ही बढ़त दिलाएगी।
मुद्दे वही हैं, जो विधानसभा और लोकसभा चुनाव में होते हैं। फिर वही बिजली, पानी, सड़क, रोटी, कपड़ा और मकान की चर्चा होगी और फिर विकास के दावे होंगे, तो विकास की दरकार पर बात होगी। तो इन चुनावों सबसे बड़ा मुद्दा पिछड़ा वर्ग के आरक्षण का है और बिना आरक्षण पंचायत चुनाव न कराने के संकल्प का है। तो पिछड़ों को कितना आरक्षण मिला और किसने बेईमानी की, यह बात बड़े जोर-शोर से होगी। जुलाई में प्रदेश के मतदाताओं के फैसलों का विश्लेषण अपने-अपने नजरिए से होगा और फिर आरोप-प्रत्यारोप के साथ मिशन-2023 की तैयारियों में सब दल जुट जाएंगे। मध्यप्रदेश शांति का टापू है, जिसमें बड़े चुनाव भी निर्विघ्न संपन्न हो जाते हैं।
Once again fifteen years versus fifteen months in urban-panchayat elections.
पंचायत चुनाव और नगरीय निकाय चुनाव भी दिलों में वह मैल न लाएं, जिससे किसी की जान पर बने। हमारा प्रदेश दिल की बात सुनता रहे और मानता भी रहे…। सत्रह साल की भाजपा सरकार, जिसमें पंद्रह साल के शिवराज सरकार के काम और पंद्रह महीने के कमलनाथ सरकार के काम आपस में टकराते रहें और चुनावी प्रक्रिया लोकतांत्रिक भावना के साथ संपन्न होकर अमन-चैन कायम रखे। शायद आम मतदाता के दिल की आवाज यही है। और हां एक और बड़ी बात कि चुनावी ड्यूटी में लगा हर कर्मचारी-अधिकारी चुनाव संपन्न कराकर सकुशल अपने घर लौट आए। पंचायत और नगरीय निकाय चुनाव की ड्यूटी कर्मचारियों-अधिकारियों के परिवारों को जीवन भर का तनाव न दे। आम मतदाता की सोच यही है।