अपनी भाषा अपना विज्ञान – चेहरा ये खो जाएगा


अपनी भाषा अपना विज्ञान – चेहरा ये खो जाएगा

 अपनी भाषा अपना विज्ञान - चेहरा ये खो जाएगा

जाने पहचाने अजनबी

मेरा डॉक्टर्स की मीटिंग में सैंकड़ों लोगों से मिलना हो रहा है ।
“नमस्ते सर ! आप कैसे हैं” एक युवक ने मुझसे पूछा ।
“बहुत अच्छा, तुम कैसे हो?”
“फाइन सर”
मेरे चेहरे का भाव उसने पढ़ा ।
“सर, आपने पहचाना नहीं मुझे ?”
“हाँ..हाँ..पहचान तो रहा हूँ…”

इतने में तीसरे ने आकर उस युवक को कहा “अरे! उस लीवर वाले केस का क्या हुआ जिसे कल तुमने अपोलो में ऑपरेट किया था ?”

मेरी जान में जान आई । यह डॉ. मंजुल भागवत हैं, पेट रोग विशेषज्ञ ।
“अरे मंजुल! मैं तुम्हें क्यों न जानूँगा? तुम्हारे बेटे ने कौन-सा आई.आई.टी चुना, कानपुर या जादवपुरा ? वह तो एस्ट्रोफिजिक्स में जाना चाहता था न ?
“वाह सर! क्या याददाश्त है आपकी ।”

……..

70 के दशक में रेसीडेन्सी के दिनों में बनारस, एक कांफ्रेंस में गया था। मेरे काका के यहाँ रुका था । उन दिनों होटल की क्षमता और रिवाज नहीं था । शाम को काका उनके एक मित्र के यहाँ भोजन पर ले गए । खूब बातें हुईं । उन मित्र का जूतों का बड़ा शो रूम था। उन्होंने एक महँगा जोड़ा मुझे भेंट किया। दो दिन बाद काका मुझे रेलवे स्टेशन पर छोड़ने आए। उन दिनों हवाई यात्रा कल्पना से परे होती थी और रिश्तेदार स्टेशन पर लेने और छोड़ने आते थे। तभी एक दम्पत्ति ने प्लेटफार्म पर, काका से नमस्ते की और मुझसे बातें करने लगे। कैसी रही मीटिंग, बनारस में और कहाँ घूमे, अगली बार आए तो फिर मिलिएगा। मेरा चेहरा भाव शून्य था। काका भाँप गए| वे मेरी कमजोरी मेंरे बचपन से जानते थे। उन्होंने पूछा – “क्यों बच्चू | तुम्हें नए जूते पाँव में ठीक से फिट हुए या नहीं ?” मेरी ट्यूबलाईट जल गई। मैंने कहा – “धन्यवाद श्रीवास्तव अंकल! जूते एकदम आरामदायक और फिट हैं । आंटी के हाथों का अखरोट का हलवा, कमल ककड़ी की सब्जी, पंचभेल की दाल और बनारस का मटर चिवड़ा – सारी चीजों का स्वाद नायाब था। और आपके चाईना वाले आर्डर का क्या हुआ ?”
श्रीवास्तव दंपति गदगद थे । बच्चे ने कितनी सारी बातों पर ध्यान रखा ।
…………………
रोटरी अंतर्राष्ट्रीय के सम्मेलन में मेलबोर्न गया था। हमारे समूह की मीटिंग शुरू हुई। लगभग 25 लोग होंगे। रोटरी द्वारा भारत में स्वास्थ्य सम्बन्धी प्रकल्पों पर निगरानी रखना मेरी जिम्मेदारी थी। एक दूसरे से बार-बार परिचय हुआ, बातें हुई, बहसें हुई, निष्कर्ष निकले । मैंने सोचा था कि मेरा संकोची, एकाकी, आत्मरत्‌ स्वभाव बदल कर खूब लोगों से सम्बन्ध बनाउँगा, नेटवर्किंग से बड़ा फायदा होता है। कुछ देर बाद सहम कर धीमा होना पड़ा। तीन लोगों ने कहा – हाँ, हाँ हम आपको जानते हैं, अभी थोड़ी देर पहली ही आपने अपना परिचय दिया था और विजिटिंग कार्ड भी दिया था। मैं बार-बार उन्हीं उन्हीं लोगों को पुनः पुन: इंट्रड्यूस करता था।
……………………….
मेरी क्लिनिक में भीड़ के कारण और मरीजो को विस्तार से देखने की मेरी धीमी गति के कारण, प्रतीक्षा की अवधि प्राय: लम्बी हो जाती है| दो घंटा – तीन घंटा| कभी कभी बीच-बीच में , बाहर एम्बूलेंस या कार में किसी मरीज को देखने जाना पड़ता है, जिसे अन्दर नहीं लाया जा सकता। पूरा वेटिंग हॉल पार करता हूँ। अनेक मरीज व घरवाले खड़े हो जाते हैं। नमस्ते करते हैं। कुछ आदर स्वरूप। अनेक इस आशा में कि मै उन्हें पहचान कर वी. आई.पी. का दर्जा दूँगा और जल्दी अन्दर बुला लूँगा। वे निराश होते हैं। मै नज़रें नहीं मिलाता। मेरी नज़रें लोगों के चेहरों पर से फिसल कर इधर-उधर भटकती हैं। यूँ मेरी आंखों की दृष्टि, चश्मे के साथ अच्छी है, परन्तु चेहरा-मोहरा मेरे दिमाग में पहुँचता नहीं, रजिस्टर नहीं होता, वहाँ के स्टोर में रखे हुए फोटो एल्बम से मेचिंग का काम नहीं होता।

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एक कलाकार द्वारा स्वयं की मुखअंधता का चित्रण

मै बगले झाँकता हूँ| खींसे निपोरता हूँ। पतली गली से निकल भागने की जुगत लगाता हूँ। हाँ.. हाँ… हूँ.. हूँ.. ठीक है, फिर मिलेंगे जैसी खाली-पीली बातें करते हुए, दिमाग पर खूब जोर देता हूँ – कौन है ? कौन है? काश कोई थोड़ी-सी हिंट मिल जाए, कभी अंदाज़ से कोई नाम उछाल देता हूँ जो अक्सर गलत निकलता है।

उस एम्बुलेंस में मरीज़ को देखने के बाद मेरे कक्ष में तीन पेशेंट देख चुका था | आधा घंटा गुजर गया था | एक व्यक्ति ने दरवाजा धकेल कर मुझे टोकने की धृष्टता की| “सर माँ बहुत बीमार है, उनसे बैठते नहीं बन रहा | आपने समय दिया था आज दो बजे का| दो घंटे हो चुके है|” मैंने कहा “ आई.एम.सॉरी.,प्लीज़ थोड़ी प्रतीक्षा और कर लीजिये। मैं सबको नम्बर से ही देखता हूँ। शायद अब जल्दी ही आ जाएगा।” मैं सदैव ऐसे ही उत्तर देता हूँ। मेरे मित्र मुझे समझाते हैं, अपूर्व इतने सिद्धांतवादी बनने की जरूरत नहीं है। थोड़ा बहुत आगे पीछे करना पड़ता है।

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२-3 मिनिट बाद, मरीज की हिस्ट्री सुनते-सुनते, मेरा मन विचलित होने लगा। धीमी गति के समाचार बुलेटिन के समान चेहरों की स्मृति के मेरे कोश से कुछ जानकारी उभर कर ऊपर आने लगी । अरे, यह तो रतलाम का कार्डियोलॉजिस्ट डॉक्टर आशीष मल्होत्रा है, पत्नी नीरजा का बेच मेट, हमारा घनिष्ठ पारिवारिक मित्र, मैंने ही समय दिया था उसकी माताजी के लिए। मैं आत्मग्लानि और शर्म में डूब गया। तुरन्त बाहर निकलकर आशीष से माफी माँगी। अब बहाना क्या बनाऊं। तुरन्त नीरजा को अंदर सूचना दी। वह आशीष व माताजी को ड्राईंग रूम में ले गई। चायपानी दिया। मैंने जल्दी ही अन्दर पहुँचकर परीक्षण व परामर्श किया। ऐसा डेमेज कन्ट्रोल न जाने कितनी बार करना पड़ता है।

न्यूरोलॉजी पढ़ते-पढ़ते मुझे लग आ गया था मुझे प्रोसेपोग्रोसिया के लक्षण हैं। प्रोसेपो अर्थात्‌ चेहरा। एग्रोसिया अर्थात न जानना | फेस ब्लाइण्डनेस (मुखज्ञानता)  । लगभग 2% लोगों में शुरू से होता है। किसी में कम किसी में ज्यादा ।

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कार्यात्मक न्यूरो इमेजिंग द्वारा मस्तिष्क वे हिस्से जो चेहरा देखते और पहचानते समय सक्रिय होते हैं

मस्तिष्क के दोनों गोलार्ध्दों की निचली पेंदी वे भाग में टेम्पोरल और आस्सीपिटल खण्ड के मिलन स्थल पर एक उभार होता है जिसे फ्यूजीफार्म गायरस कहते हैं | इस रचना के जन्मजात विकास में या फिर बाद की उम्र में अनेक प्रकार के रोगों में यदि यहां पेथालॉजी हो तो, बाकी सब काम तेज तर्राट होते हुए भी चेहरा देखना, याद रखना, मिलान करना, तुलना करना, पहचानना, नाम के साथ उसे जोड़ना आदि काम गड़बड़ा जाते हैं।

मुखान्धता यदि किसी परवर्ती बीमारी के कारण हुई तो ठीक होने की आंशिक सम्भावना रहती है – जैसे कि ब्रेंन अटैक (पक्षाघात), सिर की चोटें, मस्तिष्क ज्वर आदि। अपवाद है दिमाग की क्षयकारी, गलनकारी (डीजनरेटिव) बीमारियों के लक्षण धीरे-धीरे बिगड़ते जाते हैं।

मेरे प्रिय प्रसिद्ध न्यूरोलॉजिस्ट लेखक डॉ. आलीवर सेक्स को भी स्वयं यह अवस्था थी और मरीज कथाओं की उनकी पहली लोकप्रिय पुस्तक का शीर्षक जिन मिस्टर पी की कहानी पर आधारित है – द मेन हू मिस्टुक हिस वाईफ फॉर हेट – (आदमी जो अपनी पत्नी को गलती से टोप समझ बैठा), उन मिस्टर पी को एल्ज़ीमर डिमेन्शिया के एक असामान्य स्वरूप के कारण प्रोसेपोम्रोसिया की अत्यन्त गम्भीर अवस्था पैदा हो गई थी। मेरे मामले में यह समस्या मद्धिम दर्जे की है। मैं अभी सैंकड़ों चेहरों को आसानी से पहचान लेता हूँ। कौन सा भूल जाऊंगा, कौन सा याद आ जायेगा, इसे जानने की कोई तरकीब नहीं है। एक बार मेरे मन में स्थानीय मेडिकल असोसिएशन के अध्यक्ष का चुनाव लड़ने की इच्छा जाग्रत हो गई थी। मेरे दो घनिष्ठ मित्रों ने बैठा दिया । बोले तुझे चेहरे तो याद रहते नहीं, केनवार्सिग कैसे करेगा ?

हमारे जैसे लोगों को अनेक प्रकार की तरकीबें आजमाना पड़ती हैं। किसी तरह से सामने वाले को बातों में उलझाओ, उसके चेहरे को गौर से देखते रहो, यदि वह खुद का नाम पूछे तो बातचीत में घुमा दो, यदि आपकी पत्नी या कोई मित्र साथ में हो तो गुमनाम व्यक्ति का परिचय अपनी पत्नी से करवाओ, इस उम्मीद में कि वह खुद अपना परिचय देने लग जाए | ‘कुछ लोग अपनी खास आवाज से पहचाने जा सकते हैं, या फिर उनकी प्रिय विशिष्ट वेष भूषा, मूंछे, आभूषण, केश विन्यास आदि।

जिन लोगों को भूल गए और जिनसे पुन: मिलने पर भूलने का डर हो उनका छोटा एलबम अपने मोबाईल में रखो और दुहराओ, चेहरे की किसी खासियत (तिल, दाग आदि) का उस व्यक्ति के नाम से जोड़कर यादगिरी का कोई फार्मूला बनाओ।

ये समस्त उपाय एक सीमा तक ही काम आते हैं। कभी-कभी तो सोचता हूँ कि अपनी शर्ट या कोट पर एक बिल्ला (बेज) चिपका कर चला करूँ जिस पर लिखा हो- मुझे प्रोसेपोम्रोसिया (मुखान्धता) है, बाकी सब ठीक हूँ। हमारे बारे में लोग क्या-क्या नहीं सोचते – डॉक्टर साहब खोए-खोए से रहते हैं | मेरी तरफ देखते ही नहीं | नज़रें चुरा लेते हैं | घमण्डी हैं | अपनी धुन में रहते हैं | भुलक्कड़ हैं | दिमाग जा रहा है |सठिया गये हैं।

जन्मजात पी.पी में एम. आर. आई. में मस्तिष्क का फ्युजिफार्म गायरस हिस्सा थोड़ा अधिक मोटा पाया जाता है। यदि एल्जीमर्स जैसे डिमेन्शिया (बुद्धिक्षय) रोग में पी.पी. हो रहा हो तो वही उभार पतला पाया जाता है। मोटा होना तो अच्छा होना चाहिए न ? लेकिन वह भी पेथालाजिकल है। गर्भ में तथा जन्म के बाद के कुछ वर्षों में मस्तिष्क में कार्टेक्स (प्रांत्स्था – भूरा पदार्थ ग्रे मैटर) के अनेक हिस्से मोटेपन से पतलेपन की दिशा में अग्रसर होते हैं। वहाँ स्थित लाखों न्यूरॉन कोशिकाओं की छँटाई जरूरी होती है। मानों कि कोई माली गुलाब के पौधों की प्रूनिंग कर रहा हो । विकासात्मक (डेब्हलपमेंटल) पी.पी. में यह छँटाई का काम अटक जाता है । फंक्शनल न्यूरोइमेजिंग, (जिसमें मस्तिष्क की रचना के बजाय उसके चप्पे की फिजियोलॉजी के सक्रिय चित्र प्राप्त किए जाते हैं,) से ज्ञात हुआ है कि चेहरों को पहचानने के परीक्षण के दौरान उनके दिमाग की कार्यविधि, सामान्य लोगों की तुलना में अलग प्रकार से चलती हैं।

जन्मजात मुखान्धता में आनुवंशिकी (जिनेटिंक्स) का भी उमर है। क्लीनिकल डायग्रोसिस तथा पी.पी. की तीव्रता मापने के लिए न्यूरोसायकोलॉजिस्टस्‌ द्वारा अनेक परीक्षण विधियाँ की गई हैं – फेमस फेसेस टेस्ट, प्रसिद्ध और जान पहचाने चित्रों का एलबम जिसमें फोटोशॉप द्वार चेहरा ऐसे क्रॉप कर दिया जाता है कि बाल, कान, गला आदि कट जाए और एक अण्डाकार खिड़की से केवल मध्यभाग दिखे | मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं और जिन्दा रहने के लिए डार्विनियन विकास यात्रा में जरूर वही जिनेटिक वेरियेशन सफल रहा होगा जिसने चेहरे पहचानने की क्षमता को बढ़ाया होगा। हमारा फेस हमारी व्यक्तिगत पहचान होता है वरना फेस-लेस इन्सान का क्या काम?

हयवदन की कथा में दो युवकों के सिर कट कर धड़ से अलग हो गए हैं । विलाप कराती हुई नायिका शिवजी से कहती है  “आपने वर तो दे दिया कि दोनों को जोड़ने से वे पुनर्जीवित हो जाएँगे, हड़बड़ी में मैंने उल्टा-पुल्टा जोड़ दिया अब मेरे पति को कैसे जानूँ”| स्पष्ट उत्तर था – “धड़ को मत देखो चेहरा देखो।”

पी.पी. के तीव्रतम स्वरूप में ऐसे भी लोग होते हैं जो काँच में आपना खुद का चेहरा भी पहचान नहीं पाते | एक व्यक्ति रेस्तोरेंट में बैठा आश्चर्य कर रहा था कि पास की टेबलवाला कस्टमर लगातार उसकी नकल क्यों उतार रहा है। जैसी गतियाँ वह स्वयं कर रहा है हूबहू वही क्यों कर रहा है। पत्नी ने समझाया कोई दूसरा व्यक्ति नहीं है, काँच में आप की छाया है।

पी.पी. की विपरीत दिशा में कुछ लोगों में चेहरा  पहचानने की योग्यता आम औसत से अनेक दर्ज बेहतर होती है। दूर से, हल्की-सी क्षणिक झलक पाकर, साईड पोज़ में, अनेक दशकों के अन्तराल के बाद, अत्यन्त छोटी -सी मुलाकात कभी हुई तो भी, मेरी पत्नी नीरजा उन्हें पहचानती हैं गोकि उसकी नामों की स्मृति अच्छी नहीं है और मेरी अच्छी है। कितना शुभंकर है कि हमें सदैव साथ-साथ रहने का एक और कारण मिला हुआ है।

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सिंडरेल्ला का चेहरा भूल गए तो सब युवतियों के पैरों में चप्पल पहना पहना के परखों

स्रोत

Rossion B. Twenty years of investigation with the case of prosopagnosia PS to understand human face identity recognition. Part I: Function. Neuropsychologia. 2022 Aug 13;173:108278.

Author profile
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डॉ अपूर्व पौराणिक

Qualifications : M.D., DM (Neurology)

 

Speciality : Senior Neurologist Aphasiology

 

Position :  Director, Pauranik Academy of Medical Education, Indore

Ex-Professor of Neurology, M.G.M. Medical College, Indore

 

Some Achievements :

  • Parke Davis Award for Epilepsy Services, 1994 (US $ 1000)
  • International League Against Epilepsy Grant for Epilepsy Education, 1994-1996 (US $ 6000)
  • Rotary International Grant for Epilepsy, 1995 (US $ 10,000)
  • Member Public Education Commission International Bureau of Epilepsy, 1994-1997
  • Visiting Teacher, Neurolinguistics, Osmania University, Hyderabad, 1997
  • Advisor, Palatucci Advocacy & Leadership Forum, American Academy of Neurology, 2006
  • Recognized as ‘Entrepreneur Neurologist’, World Federation of Neurology, Newsletter
  • Publications (50) & presentations (200) in national & international forums
  • Charak Award: Indian Medical Association

 

Main Passions and Missions

  • Teaching Neurology from Grass-root to post-doctoral levels : 48 years.
  • Public Health Education and Patient Education in Hindi about Neurology and other medical conditions
  • Advocacy for patients, caregivers and the subject of neurology
  • Rehabilitation of persons disabled due to neurological diseases.
  • Initiation and Nurturing of Self Help Groups (Patient Support Group) dedicated to different neurological diseases.
  • Promotion of inclusion of Humanities in Medical Education.
  • Avid reader and popular public speaker on wide range of subjects.
  • Hindi Author – Clinical Tales, Travelogues, Essays.
  • Fitness Enthusiast – Regular Runner 10 km in Marathon
  • Medical Research – Aphasia (Disorders of Speech and Language due to brain stroke).