अपनी भाषा अपना विज्ञान: मनुष्य की सबसे लम्बी यात्रा (The Longest Journey of Man)

अपनी भाषा अपना विज्ञान: मनुष्य की सबसे लम्बी यात्रा (The Longest Journey of Man)

पूर्वजों के बारे में जानने की चाह मनुष्य के मन में शुरू से रही है। हम अपने पुरखों को आदर देते हैं,स्मरण करते हैं, अर्ध्य चढ़ाते हैं, श्राद्ध में पूजते हैं। वंशावली का लेखा-जोखा रखना चाहते हैं। प्रायः हमारे साधन सीमित होते हैं। बहुत कम परिवारों में विस्तृत जानकारी सहेजने की परम्परा होती है। गंगा पंडित होते हैं जो पुरातन किस्म के बही खातों नुमा पुलिंदों में समय-समय पर जानकारी को अद्यतन करने का आधा-सूदा, गलत-सलत प्रयास करते रहते हैं। यूरोप व अमेरिका में गिरिजाघरों में बप्तिस्मा रिकार्ड द्वारा बेहतर तरीके से अनेक पीढि़यों की श्रंखला की जानकारी रखी जाती है। 1970 के दशक में अमेरिकी अश्वेत लेखक एलेक्स हैली का उपन्यास – रूट्स – लोकप्रिय हुआ था जिसमें उसने पश्चिम अफ्रीका से गुलाम बनाकर अमेरिका लाये गये अपने परदादाओं की लम्बी वंशावली पर शोध आधारित कहानियां गूंथ डाली थी। श्री हरिवंशराय बच्चन ने अपनी आत्मकथा के प्रथम खण्ड – ‘क्या भूलूं-क्या याद करूं’ में स्वयं के खानदान का चार सौ वर्षों का इतिहास प्रस्तुत किया है। राजाओं का वंशवृक्ष वर्णन करने के लिये दरबारी इतिहासकार होते थे, परन्तु आमजनों के लिये यह कठिन है। इस सारी उठापटक की एक सीमा है। 5-10 पीढ़ी के पीछे जाना सम्भव नहीं।

यदि हम अपना दायरा व्यक्तिगत से बढ़ाकर जातिगत, नस्लगत या समुदायगत कर लें तो और भी अधिक पुरानी पीढ़ियों के बारे में जानने की दूसरी विधियां हैं। बृहत्तर परिप्रेक्ष्य में समस्त मानव जाति के पुरातन इतिहास को जानने के लिये हमारे उपाय हैं – जनश्रुतियां या किंवदन्तियां, पुराना साहित्य, महाकाव्य, धर्मशास्त्र, भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन, पुरातत्व ‘आर्कियोलाजी’ और नृविज्ञान ‘एन्थ्रोपोलाजी’। इन सब की भी अपनी सीमाएँ हैं। हालांकि एक से अधिक विधियों से प्राप्त प्रमाणों का तुलनात्मक मिलान कर के विश्वसनीयता बढ़ाई जा सकती है। अनुमान लगाया जाता है कि हमारी अपनी स्पीशीज होमो सेपियन्स का आविर्भाव लगभग दो लाख वर्ष पूर्व अफ्रीका में हुआ था। मानव जैसी दिखने वाली अन्य प्रजातियां भी थीं जिन्हें होमोनिड कहते हैं।

एक उदाहरण था नीएण्डरथाल। होमोनिड् की कहानी और भी पुरानी है। लगभग साठ लाख साल पहले ओरोरियन नामक होमोनिड ने चार पैरों के बजाय पिछले दो पैरों पर खड़े होकर चलना सीखा। इसी श्रंखला में पहले से नाना प्रकार के बन्दर, चिम्पाजी, ओरांग उटांग, गोरिल्ला, आदि आते थे जिन्हें प्रायमेट्स व एप्स की जाति में रखा जाता है। एक स्पीशीज से दूसरी स्पीशीज में बदलने की प्रक्रिया में हजारों लाखों वर्ष लगते हैं।

स्पीशीज या प्रजाति की परिभाषा है, एक जैसे गुण वाले वे प्राणी जो आपस में संसर्ग करके नई सन्तान को जन्म देते हैं। उदाहरण के लिये कुत्तों के बहुत सारे आकार व रूप होते हैं परन्तु आपस में ब्रीडिंग करवा कर नई पीढ़ी बन सकती है। सारे कुत्ते एक स्पीशीज के हुए। कुत्ते और बिल्ली को आपस में नहीं मिलाया जा सकता क्योंकि उनकी स्पीशीज अलग है।

हमारे वर्तमान स्वरूप होमोसेपियन्स के सबसे पुराना कंकाल ‘फासिल्स’ जो दो लाख वर्ष पूर्व से मिलना शुरू होते हैं – केवल अफ्रीका में पाये गये। अन्य महाद्वीपों में वे बाद में पहुंचे। अफ्रीका के बाहर वे पहली बार लगभग साठ हजार वर्ष पूर्व पाये गये। बाद के पचास हजार सालों में, अर्थात् आज से दस हजार साल पहले तक मनुष्य धरती के समस्त कोनों में तक पहुंच चुका था क्योंकि इतने पुराने उसके कंकाल/जीवाश्म सब जगह मिलते हैं। साठ हजार वर्ष साल से पुराने फासिल्स केवल अफ्रीका में मिले। यह गाथा जो पूर्वी अफ्रीका की पहाड़ियों से शुरू हुई, पिछले एक दशक से गहन शोध का विषय बनी है। अनेक सफलताऐं मिली हैं, ढेर सारी जानकारी प्राप्त हुई हैं, कहानी के अंश जुड़ते गये हैं और खाका भरता गया है।

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मूल रूप से इस प्रकार की पड़ताल एन्थ्रोपोएंथ्रोपोलॉजी नामक विज्ञान का हिस्सा है जिसमें मनुष्य के शारीरिक और सामाजिक पहलुओं का अध्ययन किया जाता है । विभिन्न जातियों, नस्लों और समुदायों के सदस्यों की कद-काठी, रंग रूप, चाल-ढाल, खान-पान, पहनावा, रस्म-रिवाज,भाषा-बोली, कला संस्कृति आदि अनेक पक्षों पर तुलनात्मक गौर फरमाते हैं। मनुष्य मात्र अपनी वर्तमान अवस्था तक किन-किन पायदानों पर होकर पहुंचा ? उसके विकास व परिवर्तन पर असर डालने वाले कारक कौन से थे ? इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढने की कोशिश नृविज्ञानी ‘एंथ्रोपोलॉजिस्ट’ करते हैं। उदाहरण के लिये वे अण्डमान निकोबार द्वीप में समाप्त प्रायः जरवा जाति क बचे-खुचे लोगों के रहन-सहन, वातावरण आदि का अध्ययन करके बहस करना चाहेंगे कि जरवा जाति की दीर्घकालिक कथा कैसे गढ़ी गई।

एंथ्रोपोलॉजी के कुछ सबसे शाश्वत और गुरुतर प्रश्न हैं – मनुष्य का प्रथम उद्गम कहां हुआ था ? कैसे थे वे लोग ? उनकी संख्या कैसे बढ़ी ? उनका प्रव्रजन / माईग्रेशन किन मार्गों से किन दिशाओं में हुआ ? वातावरण, मौसम, भूगोल आदि में कौन से तत्व थे जिन्होंने मनुष्य के सांस्कृतिक विकास में भूमिका निभाई ? विभिन्न नस्लें और जातियां कैसे बनीं ? कौन पहले आया, कौन बाद में ? कौन यहां का मूल निवासी, तो कौन प्रवासी ? किसी भूखण्ड में रहने वाले समस्त नागरिक क्या सचमुच वहीं के भूमि पुत्र हैं ? कौन सी नस्ल के लोग शुद्ध रक्त वाले और कौन वर्ण संकर ?

पुरातत्व दूसरा महत्वपूर्ण विज्ञान है जिसमें विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों में मनुष्य द्वारा निर्मित भवनों, वस्तुओं आदि को खोदकर निकालते हैं जैसा कि मोहनजोदड़ो या हड़प्पा में किया गया। मनुष्य के कंकाल की हड्डियों से अनुमान लगाते हैं। कार्बन-आईसोटोप पर आधारित डेटिंग से किसी वस्तु की पुरातन आयु का पता चलता है। पुरातत्व की ये विधियां न केवल मानव जाति बल्कि अन्य सभी जीव जन्तुओं और वनस्पतियों पर भी लागू होती हैं।

धरती की परतों के बीच जीवाश्म फासिल्स दब कर चपटे हो जाते हैं, अपना निशान छोड़ते हैं। फासिल्स ‘जीवाश्म’ के गहन अध्ययन से पता चला कि धरती पर कैसे जीवन का विकास हुआ। डार्विन की थ्योरी ऑफ़ इवाल्यूशन के सबूत के रूप में फासिल्स का महत्व बहुमूल्य है। मुश्किल यह है कि मानव के गढ़े गये पदार्थों और उसकी हड्डियों के गलने और नष्ट होने की एक उम्र होती है। फिर कुछ पता नहीं चलता।

विभिन्न इलाकों और समुदायों के बीच बोले जाने वाली भाषाओं/बोलियों का लिंग्विस्टिक अध्ययन हमें बताता है कि किस भाषा से कौन सी दूसरी भाषा निकली तथा एक भाषा से दूसरी भाषा में जाने वाले शब्दों की दिशा किस ओर थी। नस्लों और जातियों के अविर्भाव और भ्रमण का थोड़ा बहुत निष्कर्ष भाषा वैज्ञानिक शोध से सम्पन्न होता है। उदाहरण के लिये यूरोप में रहने वाली जिप्सी लोग राजस्थान, सिंध और पंजाब से निकल पड़े थे- शायद सन् 1200 – 1300 के आस-पास। और सब कुछ बदल गया। थोड़े से अवशेष रह गये गिने चुने भारतीय शब्द जो आज भी उनकी भाषा का अंग हैं।

पुरातत्व व दूसरी गिनाई गई विधियों के अलावा अब एक नया उपाय सूझ पड़ा है। जिनेटिक्स ‘आनुवांशिकता’

‘‘आनुवंशिकता का अर्थ है मातापिता न अन्य पूर्वजों से सन्तान को प्राप्त होने वाली जीन्स तथा उन जीन्स द्वारा निर्धारित और प्रभावित होने वाले गुण। गुण हजारों प्रकार के । नाक का सुतंवा होना, आँख का नीला होना, बालों का घुंघरालु होना। दुबलापन, मोटापन, गंजापन, गोरा होना। आधे गुण मां से, आधे पिता से। बीमारी होना या न होना भी आनुवंशिकता पर निर्भर करता है।

हमारे शरीर की एक बूंद खून या गाल से रगड़ कर निकाली गई कोशिकाऐं पर्याप्त हैं जिनेटिक्स अध्ययन के लिये। इस सम्भावना को सबसे पहले पहचाना और परखा इटली के पुरावेत्ता और नृविज्ञानी ‘लुगाती’ ने। 1970 के दशक में उन्होंने अफ्रीका के कुछ कबीलों का जिनेटिक शोध प्रारम्भ किया। तब साधन कम थे। आनुवंशिकी विज्ञान का पर्याप्त विकास नहीं हुआ था। बड़े परिवर्तन 1990 के दशक में आये। मानव जीनोम प्रोजेक्ट शुरू हुआ और अनुमान से अधिक तेजी से पूर्ण हुआ। मनुष्य और उसके बाद अनेक जीव जन्तुओं, पौधों के जीनोम की सम्पूर्ण संरचना को जानने का काम होता चला गया। बड़ी प्रयोगशालाओं में स्वचलित, रोबोटिक्स मशीनों द्वारा जटिल रासायनिक परीक्षणों को द्रुतगति से निरन्तर किये जाने की विधियां विकसित हुई। एक साथ हजारों सेम्पल्स पर हजारों परीक्षण सम्भव हुए। वर्षों का काम सप्ताहों में होने लगा

स्पेन्सर वेल्स नामक जीव विज्ञानी व जिनेटिसिस्ट ने महसूस किया दुनिया के कोनों-कोनों में रह रहे लोगों का इस बात का इतिहास कि उनके पुरखे कहां से किस मार्ग से किस काल में भ्रमण या प्रव्रजन करते हुए आये अब जीन्स के माध्यम से अधिक सटीक तरीके से जाना जा सकता है। उन्हें मदद मिली नेशनल जियोग्राफिक सोसायटी से जो इसी नाम की पत्रिका आरम्भ 1888 के लिये विख्यात है। टेलीविजन चेनल बाद में आया। यह सोसायटी भूगोल, पर्यावरण, विज्ञान आदि क्षेत्रों में शोध को मदद देती है। इसके साथ प्रसिद्ध कम्प्यूटर कम्पनी आई.बी.एम. और एक निजी ट्रस्ट वाईट फेमिली फाउण्डेशन ने सहयोग का बीड़ा उठाया। विश्व भर में दस वैज्ञानिक दल बने। समान वैज्ञानिक और नीतिगत कार्यविधि अपनाई गई। इस प्रकल्प का नाम रखा गया जीनोग्राफिक प्रोजेक्ट।

जीनोग्राफिक प्रकल्प के तहत दुनिया भर में अनेक शोध केंद्र स्थापित किये गये हैं जो स्थानीय विशेषताओं के आधार पर प्रश्नों का उत्तर खोजने की कोशिश कर रहे हैं

हमारे शरीर की प्रत्येक कोशिका के नाभिक में गुणसूत्रों ‘क्रोमोसोम’ पर अवस्थित डी.एन.ए. का अणु हर व्यक्ति का अपना अनूठा, अद्वितीय होता है क्योंकि प्रत्येक शिशु के बनते समय मां व पिता की ओर से आने वाली हजारों जीन्स में से कौन सी आधी जीन्स शुक्राणु में आयेंगी और कौन सी आधी अण्डकोशिका में, यह जुआ है, पासा है, ताश के फेंटे गये पत्ते हैं। ‘हमशक्ल, जुड़वा बच्चों को छोड़कर, जिनका डी.एन.ए. समान होता है। डी.एन.ए. अणु हमारी हजारों जीन्स की संरचनात्मक इकाई है। वाय क्रोमोसोम अपवाद है। यह पिता से पुत्र को मिलता है, बिना परिवर्तन के, बिना मिश्रण या आदान-प्रदान के। सतत् एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी। एक जैसा अवतरित होता जाता है – सिवाय फिर एक अपवाद के। कोई म्यूटेशन ‘व्युत्क्रम’ न हो गया हो।

म्यूटेशन या व्युत्क्रम-प्रजनन कोशिकाओं और नये डिम्ब की कोशिकाओं में विभाजन के समय क्रोमोसोम ‘गुणसूत्रों’ पर अवस्थित जीन्स की जब दुहरी कापी या प्रतिलिपि बनती है तो कभी-कभी नकल में खलल पड़ जाता है। प्रुफ रीडिंग में गलती हो जाती है। हर पीढ़ी में नहीं। हर विभाजन में नहीं। हजारों जीन्स में नहीं, केवल कुछ गिनीचुनी में। इस गलती को म्यूटेशन कहते हैं।

म्यूटेशन के कारण नई सन्तान की जिनेटिक संरचना में थोड़ा सा फर्क आ जाता है। प्रायः इस भेद में प्राणी के जीवन पर कोई असर नहीं पड़ता। परन्तु कभी-कभी पड़ता है। कभी अच्छा, कभी बुरा। समग्र रूप में व्याप्त विविधता में म्यूटेशन की प्रमुख भूमिका है। मानव जीनोम का 99.9 प्रतिशत एक जैसा है। जो बचा रहा 0.1 प्रतिशत वह जिम्मेदार है हमारी भिन्नताओं के लिये। बदलते हुए देशकाल में कुछ जीव अधिक सफल होकर अपनी संतति फैलाते हैं तो दूसरे कालकलवित हो जाते हैं। डार्विन की थ्योरी सर्वाइकल आफ फिटेस्ट ‘श्रेष्ठजन जीता है’ इन्हीं म्यूटेशन द्वारा नियंत्रित विविधता और परिवर्तन पर आधारित है।

अनेक म्यूटेशन ऐसे भी होते हैं जो कोई प्रत्यक्ष प्रभाव पैदा नहीं करते, बस गुपचुप रूप में मौजूद रहते हैं और परवर्ती पीढ़ियों में उतरते चले जाते हैं। किन्हीं दो व्यक्तियों में यदि इस प्रकार का एक जैसा म्यूटेशन मिले तो कह सकते हैं कि उनके पूर्वज कहीं न कहीं, कभी न कभी एक रहे होंगे। विभिन्न समुदायों व नस्लों में पाये जाने वाले म्यूटेशन्स की व्यापकता का तुलनात्मक ब्यौरा देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उनके मध्य कितना और किस दिशा में, किस देशकाल में कैसा सम्बन्ध, कैसा सम्पर्क, कैसा मिश्रण रहा होगा।

एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में अनवरत रूप से वहीं-वहीं म्यूटेशन या जीन के उतरते चले जाने की सम्भावना सदैव गड़बड़ हो जाती है क्योंकि माँ के गर्भ में बीज बनने के पहले पिता की ओर से कौन सी पचास प्रतिशत जीन्स का समूह शुक्राणु में तथा मां की जीन्स में से कौन सी पचास प्रतिशत का समूह अण्ड कोशिका में आयेगा – यह एक शुद्ध लाटरी है। इस कारण बहुत सारे म्यूटेशन परवर्ती पीढ़ियों में पहुंच नहीं पाते। उन्हें धारण करने वाले शरीर के साथ नष्ट हो जाते हैं। दो अपवाद हैं। पिता की ओर से प्राप्त वाय क्रोमोसाम पर अवस्थित समस्त जीन्स मय उनके व्युत्क्रम के ‘जो केवल पुत्र को मिलती है’ तथा माता की ओर से प्राप्त माईटोकांड्रियल जीन्स मय उनके व्युत्क्रम के जो पुत्र या पुत्री दोनों को मिलती है। ये दोनों प्रकार के जीन समूह नये डिम्ब को प्राप्त होने वाली जिनेटिक थाती ‘धरोहर’ की लाटरी प्रक्रिया से परे रहते हैं तथा अपरिवर्तित रूप से हस्तान्तरित होते हैं।

धरती पर बिछे हुए इन्सानों के गलीचे के तानेबाने में ये दोनों धागे – वाय क्रोमोसोम और माईटोकान्ड्रियल जीन पहचाने जा सकते हैं – और उस सुन्दर कालीन की जटिल अबूझ डिजाईन का रहस्य तोड़ने में हमारी मदद करते हैं।

यह म्यूटेशन स्वतः प्राकृतिक रूप से होते हैं, निष्क्रमिक ‘रेन्डम’ होते हैं और प्रायः हानिरहित होते हैं। इन्हें रासायनिक विधियों से पहचाना जा सकता है।

जिनेटिक शोध में इनका उपयोग मार्कर्स ‘चिन्हक’ के रूप में करते हैं। दक्षिण भारत की कुछ परम्परावादी ब्राह्मण जाति के सदस्यों को हम उनके कपाल पर लगे टीके के रूप रंग से पहचानते हैं – शैव या वैष्णव आदि । ललाट का टीका एक तरह का चिन्हक हुआ। जीन्स में पाये जाने वाले या पुराने व्युत्क्रम झण्डाबरदार की तरह है। वे हमें आगाह करते हैं ‘यदि हमारे पास ज्ञान हो तो’ कि इस चिन्हक को धारण करने वाले में फलां-फलां गुण या अवगुण हो सकते हैं, खासियतें हो सकती हैं, रोग हो सकता है या वह फलां समुदाय या कबीले का सदस्य हो सकता है

किसी एक पीढ़ी में पुरुष के वाय क्रोमोसोम में होने वाले व्युत्क्रम बाद की समस्त पीढि़यों को उसी रूप में हस्तान्तरित होताचला जाता है। अनेक पीढि़यों के बाद यदि फिर कोई नया म्यूटेशन हुआ तो बाद की सन्तानों, पोतों, पड़पोतों, पड़-पड़ पोतों की श्रंखला में अब दोनों प्रकार के म्यूटेशन मिलेंगे। पहले वाला भी और बाद वाला भी। इसके बाद तीसरा, चौथा, पाँचवां आदि म्यूटेशन यदि अलग-अलग अन्तराल पर हुए तो वे भी जुड़ते जायेंगे। सभी शाखाओं में नहीं, किसी किसी शाखा में। कल्पना कीजिये कि एक पिता के वाय क्रोमोसोम में क, ख, ग नाम के तीन म्यूटेशन थे जो उसके अपने पितृपक्ष से प्राप्त हुए थे। अब उसके दो पुत्र हुए। उनमें से एक के अण्ड कोष में शुक्राणु बनते समय नया म्यूटेशन घ पैदा हुआ। दूसरे भाई के मामले में ऐसा कुछ नहीं हुआ। प्रथम पुत्र की समस्त परवर्ती पीढि़यों के वाय क्रोमोसोम पर क, ख, ग, घ चारों व्युत्क्रम का समूह ‘हेप्लोग्रुप’ पाया जाएगा जबकि द्वितीय पुत्र की वंशावली में पाये जाने वाला हेप्लोग्रुप केवल तीन म्यूटेशन के समूह क, ख, ग द्वारा चीन्हा जाएगा। अगली किसी पीढ़ी में सम्भव है कि नया म्यूटेशन जुड़ कर वह समूह क, ख, ग, च हो जाए।

मानों वृक्ष की प्रत्येक शाखा का अपना हेप्लोग्रुप होता है। सबसे मोटे तने की पहचान हेतु म्यूटेशन श्रंखला छोटी होगी। जैसे-जैसे शाखाऐं बढ़ती जायेंगी उनके हेप्लोग्रुप लम्बे होते जायेंगे। आरम्भिक अक्षर वही रहेंगे, बाद वाले अक्षर बदलते जायेंगे। दुनिया भर के लोगों में पाया जाने वाला प्रत्येक मार्कर ‘चिन्हक-म्यूटेशन’, एक नई श्रंखला की शुरूआत की ओर इशारा करता है। शोधकर्ता पता लगाने की कोशिश करते हैं कि फलां म्यूटेशन किस काल में, किस भूखण्ड में, किस समुदाय में प्रथम बार पैदा हुआ होगा और फिर किस तरह उसके बाद की पीढ़ियां फैलती गईं।

किसी पुराअवशेष की गहरी खुदाई में जमी हुई परतों के समान हमारे डी.एन.ए. में म्यूटेशन एक के बाद एक जमा होते गये हैं। विश्व के विभिन्न भूखण्डों में रहने वाले विभिन्न समुदायों के व्यक्तियों के रक्त में म्यूटेशन्स के क्रम को जब दुनिया के नक्शे पर रख कर देखते हैं तोएक खाका सा तैयार होने लगता है कि मानव की आरम्भिक यात्राएँकहाँ से कहाँ की ओर रहीं होंगी। ये हमारे पूर्वज के जिनेटिक पदचिन्ह हैं, जिन्होने अफ्रीका से निकल कर बाकी धरती को आबाद किया। सीता द्वारा टपकाए गये गहनों या ग्रिम की परीकथा में हेन्सल द्वारा छोड़े गये रोटी के टुकड़ों से उनके अपहरण या भटकन का मार्ग खोजा गया था। डी.एन.ए. म्यूटेशन भी ऐसे ही छूटे हुए टुकड़े हैं।

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अभी तक की शोध के आधार पर माना जाता है कि साठ हजार वर्ष पूर्व सब के साझा पुरखे पूर्वी अफ्रीका में पहाड़ी क्षेत्र में रहते थे। केन्या, इथियोपिया, तान्जानिया आदि देशों में। उनकी संख्या कम थी, लगभग 10,000 । विलुप्ति के कगार पर थे। शायद समाप्त हो जाते । धरती पर हिमयुग था। ठण्डा मौसम था। भोजन की कमी थी। अन्य होमोनिड्स की तुलना में हमारे होमोसेपियन्स का विकास बेहतर था। मस्तिष्क बड़ा था, अधिक क्षमता वाला था। भाषा का आविर्भाव हो रहा था। एक दूसरे से संवाद करके सहयोग की योग्यता पनपी थी। भौगोलिक स्मृति को मिट्टी या रेत में नक्शा बनाकर दर्शाने, की निपुणता तब शायद जन्मी होगी। पत्थर के औजार बनाना सीखा जा चुका था। एक तरफ क्षमताएँ और संभावनाएँ थीं। दूसरी तरफ अस्तित्व को चुनौति देती परिस्थितियाँ।

फिर एक चमत्कार सा घटित होता है। न जाने कैसे और क्यों कर एक छोटा सा दल अपनी भूमि छोड़कर निकल पड़ता है। मंजिल का पता नहीं। अजीब सा जज़्बा है। कोई कल्पना आई होगी। कोई उम्मीद जागी होगी। कठिन जुआ था। पूर्वी अफ्रीका के सींग नुमा कोने से जो वर्तमान में सोमालिया है, ये लोग लाल सागर पार करके साउदी अरब पहुंचे। उस हिम युग में सागर उथले थे। कम गहरे थे। ज्यादा भूमि उजागर थी ।

लाल सागर में पानी न था, जमीन थी। उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव प्रदेशों पर बर्फ की टोपियाँ विशालकाय थीं। पानी बर्फ के रूप में कैद था इसलिये सागर थोड़े कम व धरती थोड़ी अधिक थी। एशिया महाद्वीप के दक्षिणी किनारे चलते हुए ये जत्थे ईरान, इराक, पाकिस्तान, भारत, बर्मा, थाई देश, मलाया होते हुए इण्डोनेशिया तक पहुंचे और वहीं से एक लघु सागर यात्रा से आस्ट्रेलिया। अफ्रीका के बाहर पाई जाने वाली समस्त आबादियों में वाय क्रोमोसोम का एक म्यूटेशन मिलता है जिसका नाम है एम-168 है। आस्ट्रेलिया के मूल निवासियों में यह चिन्ह 50000 वर्ष पुराने कंकाल/फासिल्स में मिलता है। इसके पहले कहीं नहीं, केवल अफ्रीका छोड़कर।

अजीब दास्तां है। दस हजार कि.मी. की दूरी। बीच में अथाह समुद्र। सागर किनारे लम्बी यात्रा रेत के पदचिन्ह तो चन्द मिनटों में मिट जाते हैं। इस कहानी के जिनेटिक पदचिन्ह अमर-अजर हैं, जिन्हें आज पुख्ता और विश्वसनीय माना जाता है।

क्या उस जत्थे ने अपने कुछ रक्तबीज ‘जिनेटिक मार्कर्स’ मार्ग में न छोड़े होंगे ? दक्षिण भारत में तमिलनाडु राज्य के मदुराई जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में हजारों लोगों का जिनेटिक परीक्षण करके सचमुच ये चिन्हक/मार्कर्स पाये गये। स्पेन्सर वेल्स की टीम के लिये इस तरह के परिणाम उत्तेजना के क्षण होते हैं। उनका सिद्धान्त, उनकी परिकल्पना, प्रायोगिक प्रमाणों की कसौटी पर खरे उतर रहे होते हैं। जिग-सॉ पज़ल के सैंकड़ों टुकड़ों में एक, अपनी जगह पाकर सही तरह से फिट हो जाता है।

एम-168 के अलावा प्रथम म्यूटेशन वाले समुदाय केवल अफ्रीका महाद्वीप में मिलते हैं। एम-168 की दो प्रमुख शाखाएँ बनीं। पहली एम-130 आस्ट्रेलिया पहुंची। दूसरी एम-89 लाल सागर की सूखी खाड़ी पार करके अरब देश पहुंची। आस्ट्रेलिया और अफ्रीका को छोड़कर बाकी सारे महाद्वीप एशिया, यूरोप, उत्तरी व दक्षिणी अमेरिका आदि एम-89 समुदाय की सन्तानें हैं। एक खास जत्था एम-9 था जो मध्य एशिया और युरेशिया के घास के मैदानों वाले इलाकों स्टेपीस में पहुंचता है। हजारों साल तक वे यहां पनपते रहे। दक्षिण की ओर पामीर, हिन्दकुश और हिमालय जैसे पर्वत तथा ताक्लीमान जैसे रेगिस्तान ने मार्ग रोका था। फिर भी कुछ जाबांज नये समुदाय ‘अपने नये म्यूटेशन मार्कर्स एम-20 के साथ’ इन बाधाओं को लांघ कर भारत पहुंचते हैं। एम-9 की एक दूसरी बड़ी शाखा एम-45 और भी उत्तरी एशिया में बढ़ती है। इसी दल के सदस्य अन्ततः यूरोप में और समस्त अमेरिका ‘उत्तरी और दक्षिणी’ को आबाद करते हैं।

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दोनों अमेरिकी महाद्वीपों में मनुष्य सबसे बाद में पहुंचा। केवल दस हजार वर्ष पूर्व। आज हम जिन्हें रेड इंडियन या अमेरिका के मूल निवासी कहते हैं वे इसी दल के सदस्य थे। उनके आगमन का मार्ग आश्चर्यजनक था। उत्तरी एशिया में रहने वाले एम-45 समूह की एक शाखा एम-242 पूर्व में साईबेरिया की दिशा में बढ़ती है। कड़ी सर्दी में, शून्य से 50 डिग्री सेल्सियस नीचे के तापमान में जीवित रहने वाले लोग आज भी इनके सीधे वंशज के चुजकी जाति रूप में वहां मौजूद हैं तथा अपने जीनोम में उक्त एम-242 चिन्हक धारण करते हैं। साईबेरिया का पूर्वी किनारा और अलास्का, उत्तरी अमेरिका का पश्चिमी किनारा उस हिमयुग में 10,000 वर्ष पहले बर्फ मार्ग से जुड़े हुए थे। आज वहाँ सागर है, तब नहीं था। इसी मार्ग से एम-3 नामक शाखा वर्तमान कनाडा में प्रवेश करती है और फिर लगभग एक हजार वर्ष में दक्षिणी अमेरिका के दक्षिणी छोर तक जा पहुंचती है।

क्रिस्टोफर कोलम्बस के 1490 में अटलांटिक महासागर पार करके अपनी कल्पना के भारत पहुंचने का नया पश्चिमी मार्ग खोजने के उपक्रम में अमरीका की धरती पर कदम रखा था। पिछले पाँच सौ वर्षों में यूरोपीय और अन्य देशों के लोगों ने अमेरिका को पुनः भर दिया और बहुसंख्यक हो गये। 10,000 वर्ष पूर्व पहुंचने वाले एम-3 मूलनिवासी, रेड इंडियन मारे गये, मर गये और आज मुट्ठी भर संख्या में बचे हैं। इसी प्रकार आस्ट्रेलिया में 50,000 वर्ष पहले पहुंचने वाले एबोरिज़नी एम-130 गिनती के हैं, बाकी सब वे हैं जो पिछले दो सौ सालों में ब्रिटेन व अन्य देशों में वहाँ पहुंचे।

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भारत में आर्य कहाँ से आये ?

भारत में आर्य कहाँ से आये ? क्या वे यहाँ के मूल निवासी थे या बाहर से आये ? किस काल में आये ? कितनी बार में, कितने समय तक आते रहे ? आर्य की परिभाषा क्या है ? क्या द्रविड़ और आर्य भिन्न थे ? क्या इन दोनों के अलावा अन्य भेद अधिक महत्वपूर्ण हैं जिनमें हम भारतीय जन समुदाय को वर्गीकृत कर सकते हैं ? ब्राह्मण और शुद्र या क्षत्रिय और वैश्य के पुरखे अलग थे या समान ? उपरोक्त समस्त प्रश्नों के उत्तर जिनेटिक शोध के आधार पर अधिक सटीक और पुख्ता तौर पर मिल पायेंगे। फिर अधिकांश बहसें समाप्त हो जाना चाहिये। वैसे देखा जावे तो जीनोग्राफिक सबूतों के बगैर भी इस तरह की सोचों का कोई मतलब नहीं है।

दक्षिण पंथी राष्ट्रवादी सोच वाले विचारक मानते रहे हैं कि यह सिद्ध होने के कि आर्य लोग, मध्य एशिया या बाहर कहीं से आये हमारी भारतीय संस्कृति की नाक नीची हो जायेगी । उनके अनुसार पश्चिमी विद्वान जानबूझ कर दुर्भावनापूर्वक, पूर्वाग्रह ग्रस्त होकर आर्यों को बाहर से आया बताना प्रतिपादित करते रहे हैं ?

स्पेन के उत्तरी भाग में बास्क संस्कृति के लोग दावा करते हैं कि उनकी भाषा और दूसरी तमाम बातें शेष स्पेन से बहुत भिन्न हैं और उन्हें अपने स्वतंत्र राष्ट्र का हक है। उनका आन्दोलन अनेक दशक पुराना और आतंकवादी गतिविधियों से भरा रहा है। जिनेटिक प्रकल्प से सुस्पष्ट उत्तर मिलने की उम्मीद है। मोहम्मद अली जिन्ना के अनुसार हिन्दू और मुसलमान दो अलग-अलग राष्ट्र रहे हैं। हमारे क्रोमोसोम इस प्रकार की धारणाओं को सदैव के लिये समाप्त करने में सहायक होंगे। इस पृष्ठभूमि के साथ यदि कमलेश्वर होते हो अपनी रचना कितने पाकिस्तान के निष्कर्षों को और भी दृढ़ता से कह पाते।

विभिन्न जातियों के मध्य अलगाव कभी भी एक सौ प्रतिशत नहीं रहा । मिश्रण सदैव हुआ। आतिगत शुद्धता की धारणा बेमानी है। हमारा खून शुद्ध, तुम्हारा खून अशुद्ध, यह बेकार की मिथ्या धारणा है। हम सब वर्ण संकर है और हमें इस बात पर गर्व होना चाहिये न कि शर्म। वर्ण संकर होना, उत्सव मनाने की, खुशी मनाने की बात है। हर देश-काल में, हर जाति में लोगों की दूसरी जाति के साथ भेंट हुई, मित्रता हुई, प्यार हुआ, रोटी-बेटी का नाता जुड़ा और नई नस्ल की नई पीढि़याँ बनीं। एक नृविज्ञानी ‘एन्थ्रोपोलाजिस्ट’ ने सही कहा कि दुनिया भर की तमाम जातियाँ, नस्लें एक रात के सम्मिश्रण में गायब हो सकती हैं।

हम सब भाई-भाई, बहन या कजिन्स हैं। एक परिवार के सदस्य हैं। वसुधैव कुटुम्बकम और सबैभूमि गोपाल की। ऐसे सन्देश कितने लोग, कितनी सदियों से देते रहे हैं। वेद, उपनिषद्, पैगम्बर, मसीहा, सन्त, विद्वान, गुरु, दार्शनिक आदि यही तो कहते रहे हैं। जीनोग्राफिक प्रकल्प के निष्कर्ष उक्त सन्देशों को और भी पुख्ता आधार प्रदान करेंगे।

जीनोग्राफिक प्रकल्प द्वारा उजागर होती सच्चाइयों के बाद इस बहस में क्या दम कि कौन भूमिपुत्र ‘सन आफ दि साईल’ कौन बहिरागत, कौन शुद्ध खून वाला और कौन वर्ण संकर ?

विभिन्न हेप्लोग्रुप्स ‘म्यूटेशन श्रंखला’ को धारण करने वाले समुदायों की संख्या छोटी बड़ी होती है। सुदूर, अगम्य, अलग थलग इलाकों में पाये जाने वाले छोटे-छोटे कबीलों के हेप्लोग्रुप अन्य कहीं न मिलेंगे। भारत या मध्य एशिया जैसे भूभाग जहाँ पर लम्बे काल तक समुदायों का आवागमन और मिश्रण होता रहा वहाँ पर करोड़ों की जन संख्या वाले हेप्लोग्रुप समुदाय मिलेंगे। अभी यह भी ज्ञात नहीं है कि दुनियाभर में कुल कितने हेप्लोग्रुप जिनेटिक समुदाय हैं। पर्याप्त मात्रा में जानकारी ‘डाटा’ उपलब्ध नहीं है। जीनोग्राफिक प्रकल्प का प्रमुख उद्देश्य है नृविज्ञान ‘एन्थ्रोपोलाजी’ की दृष्टि से और अधिक जिनेटिक डाटा जुटाया जाए। शोधकर्ताओं के दल विश्व के कोनों तक यात्रा करके, आदिवासी, वनवासियों और मूल निवासियों के लगभग एक लाख सेम्पल्स इकट्ठा कर रहे हैं। अब तक जो नक्शा बना है वह अधूरा है। बहुत सारे गेपा बाकी रह गये हैं। जंगल सा दृश्य देखा है, वृक्षों के बारे में बहुत कम मालूम है। दुनिया भर से ज्यादा देशों से, ज्यादा नस्लों के ढेर सारे सेम्पल्स की जरूरत है । विशेषकर वे कबीले जो लम्बी अवधि से अलग-थलग रहे हों, दूसरों से जिनका सम्मिश्रण न हुआ हो। उन लोगों तक पहुंचना और उन्हें इस जिनेटिक शोध में शामिल होने हेतु राजी करना, एक अर्जेन्ट चुनौति है क्योंकि ऐसे समूह तेजी से विलुप्त हो रहे हैं या मिश्रित होते जा रहे हैं।

भारत दुनिया के उन भू भागों में से है जहाँ सबसे अधिक सम्मिश्रण हुआ है। अभी बहुत कम लोगों का जिनेटिक सर्वेक्षण हुआ है और अधिक लोगों को अपना परीक्षण करवा कर जानकारी बढ़ाना और बढ़वाना चाहिये।

अच्छी कहानी सुनना सबको भाता है। यह कहानी जब पूरी लिख ली जायेगी तो सबसे महान गाथा होगी। इसकी शुरूआत दो लाख वर्ष पूर्व अफ्रीका में होती है। मानव पूर्वजों का एक छोटासा समूह। कुछ जमा कुछ सौ रहे होंगे। आज साढ़े छः अरब बाशिंदे चप्पे-चप्पे पर बसे हुए हैं। कहीं शांतिपूर्वक, कहीं लड़ते हुए, हजार किस्म के देवताओं को पूजते हुए या किसी को भी नहीं, अलग-अलग रूप व रंग के उनके चेहरों पर या तो चूल्हे की आग की रोशनी तमतमा रही है या फिर कम्प्यूटर के पर्दे की।

मानव समूहों का परिव्राजन ‘माईग्रेशन’ आहिस्ता-आहिस्ता, मंथर, धीर-गम्भीर गति से हुआ था। मानों समुद्र किनारे, बीच पर, भीड़ अधिक होने से एक छोटा समूह अगले दिन कुछ दूर जाकर, थोड़ा खुले में पहुंच जावे। दिन ब दिन, सप्ताह दर सप्ताह यह फैलाव बढ़ता जाए । अनेक सहस्त्राब्दियों में मील दर मील यह यात्रा बढ़ती रही।

यह गाथा है जिन्दा रहने की, बच निकलने की, गतिमान होने की, कभी बिछुड़कर छिटक कर अलग थलग पड़े रह जाने की, कभी कारवाओं के मेलों की, कभी हार की, कभी जीत की । इस कहानी का अधिकांश अज्ञात, अल्पज्ञात, हिस्सा प्रागैतिहासिक युग के मौन में डूबा हुआ है। जो ज्ञात है वह बहुत बात का है, हाल ही का है।

कैसे रोमांचक रही होगी यह यात्रा। अलग-अलग समूह, अलग-अलग कबीले, कोई छोटा कोई बड़ा। कोई यहाँ ठिठुका, कोई वहाँरुका, कोई चलता ही गया। भूमि के मानचित्र पर लम्बी छोटी रंगीन रेखाएँ-यहाँ से वहाँ, वहाँ से वहाँ, एक दूसरे को काटती हुईं, कुछ सीधी, कुछ घूम कर मानों वापस लौटतीं। ये सारे कारवां या तो समुद्र तटों से सटे रहते हैं या रेगिस्तानों को टालते या घास के मैदानों में विचरते और कभी तो पहाड़ों को लांघ जाते। महाकाल की दीर्घकालिक घड़ी की इकाइयों में, जो दिन, सप्ताह, माह या वर्ष में नहीं, वरन् सहस्त्राब्दियों में नापी जाती हैं। ये यात्राएँ चलती रहीं, कभी धीमी, कभी तेज परन्तु सदैव अनवरत। पीढ़ी दर पीढ़ी। शिकार करते हुए, बीनते चुनते हुए।

मानव की सबसे लम्बी यात्रा अब पूर्ण हो चुकी है। इन्सान धरती के कोने-कोने तक पहुंच चुका है । पर क्या यह यात्रा सचमुच में पूर्ण हो चुकी है ? नहीं, यात्रा तब तक अधूरी रहेगी जब तक कि हम सब बंधुत्व के अहसास को नये ज्ञान के प्रकाश में, पूरी तरह अपने मन में आत्मसात न कर लेंवें।

Author profile
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डॉ अपूर्व पौराणिक

Qualifications : M.D., DM (Neurology)

 

Speciality : Senior Neurologist Aphasiology

 

Position :  Director, Pauranik Academy of Medical Education, Indore

Ex-Professor of Neurology, M.G.M. Medical College, Indore

 

Some Achievements :

  • Parke Davis Award for Epilepsy Services, 1994 (US $ 1000)
  • International League Against Epilepsy Grant for Epilepsy Education, 1994-1996 (US $ 6000)
  • Rotary International Grant for Epilepsy, 1995 (US $ 10,000)
  • Member Public Education Commission International Bureau of Epilepsy, 1994-1997
  • Visiting Teacher, Neurolinguistics, Osmania University, Hyderabad, 1997
  • Advisor, Palatucci Advocacy & Leadership Forum, American Academy of Neurology, 2006
  • Recognized as ‘Entrepreneur Neurologist’, World Federation of Neurology, Newsletter
  • Publications (50) & presentations (200) in national & international forums
  • Charak Award: Indian Medical Association

 

Main Passions and Missions

  • Teaching Neurology from Grass-root to post-doctoral levels : 48 years.
  • Public Health Education and Patient Education in Hindi about Neurology and other medical conditions
  • Advocacy for patients, caregivers and the subject of neurology
  • Rehabilitation of persons disabled due to neurological diseases.
  • Initiation and Nurturing of Self Help Groups (Patient Support Group) dedicated to different neurological diseases.
  • Promotion of inclusion of Humanities in Medical Education.
  • Avid reader and popular public speaker on wide range of subjects.
  • Hindi Author – Clinical Tales, Travelogues, Essays.
  • Fitness Enthusiast – Regular Runner 10 km in Marathon
  • Medical Research – Aphasia (Disorders of Speech and Language due to brain stroke).