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Our Vegetables: गर आपने इस गर्मी बोहार भाजी{बूंदी के मोर} नही खाई तो फिर क्या किया?
डॉ. विकास शर्मा
मालवा ,पातालकोटऔर छत्तीसगढ़ (Chhattisgarh) में खान पान का एक अलग ही रवैया है. यहां के लोग भाजी खूब खाते हैं और छत्तीसगढ़िया भाजियों में सबसे महंगी होती है बोहार भाजी. भले ही ये साल भर में कुछ दिनों तक ही मिल पाती है. लेकिन इसके लाजवाब स्वाद के लिये लोग हर कीमत देने को तैयार रहते है. बोहार भाजी 400 रुपये किलो तक बिकती है.बोहार भाजी सबसे महंगी बिकने वाली भाजी है, लेकिन कमाल की बात यह है कि यह यहाँ -वहाँ फ्री में उपलब्ध है।
अब आप सोच रहे होंगे कि एक तरफ तो यह सबसे महंगी बिक रही है और दूसरी ओर फ्री में भी उपलब्ध है, ये कैसा झोलझाल है? तो आपको बता दूँ की यह 2 कारणों से महंगी है। एक तो यह कि इसके बेतहासा फायदे हैं। क्या क्या हैं? ये पोस्ट में विस्तार से बताऊँगा। और दूसरा कारण यह है कि यह सीमित समय के लिए ही उपलब्ध होती है, बमुश्किल से वर्ष भर में मार्च- अप्रैल के 15 से 20 दिन। लेकिन इस समस्या से केवल अल्पज्ञानी ही पीड़ित हैं क्योंकि जो प्रकृति प्रेमी हैं, उन्हें इसे पाने का हर रास्ता मौजूद है। उनके लिए यह 4- 5 महीने उपलब्ध रहने वाला प्रकृति का प्रसाद है।
एक ऐसी सब्जी है, जो खेतों में नहीं बल्कि ऊंचे-ऊंचे पेड़ों पर उगती है. इतना ही नहीं इस भाजी की कीमत चिकन, मटन और पनीर से भी ज्यादा है. आखिर ऐसी क्या वजह है कि इस भाजी की कीमत इतनी ज्यादा है? आखिर इस भाजी के क्या फायदे हैं और इसे लोग महंगे दामों पर क्यों खरीदते हैं? आइए जानते हैं.
इसकी पुष्प कलिकाये बोहार भाजी के नाम से जानी जाती है, जिसके स्वाद का कोई तोड़ नही है। इसीलिए इसके दीवाने इसे देखते ही तत्काल किसी भी कीमत कर खरीद लेते हैं। इसे बनाना बहुत आसान है। किसी भी सूखी भाजी की तरह आप इसे बना सकते हैं या आलू के साथ तरी वाली चटपटी सब्जी भी बना सकते हैं। हमने इसे अपने किचन गार्डन में उपलब्ध संसाधनों से तैयार किया। जिसमे प्याज, मिर्च, लहसन, अदरक, मीठा नीम, प्याज की पत्तियाँ, जंगली लहसन की पत्तियाँ (क्योंकि इसकी खुशबू और स्वाद सामान्य लहसन से कई गुना अधिक होता है) आदि का प्रयोग किया गया। एक बड़े आलू की लंबी पतली फांके भी इसमें डाली गई। जीरे व राई से बघार लगाकर, मीठा नीम, प्याज- मिर्च आदि डाल दें थोड़ी देर बाद आलू के फांक भी छोड़ दें। आलू पक जाने के बाद बची खुची सामग्री डाल दें।।
सभी को अच्छी तरह भून लें अब अंत में धुली हुई बोहार भाजी भी छोड़ दें। 2 बार ढक्कन से ढक कर पकायें फिर हल्दी, नमक, मसाले आदि डाल दें। (सावधान- नमक का प्रयोग मात्रा में कम करें, इसमें प्राकृतिक खार पाया जाता है) अच्छी तरह पक जाने पर चटपटी, शानदार बोहार भाजी तैयार है।. इसमें बहुत ज्यादा न्यूट्रीन्स और मिनरल्स पाए जाते हैं. इसमें आयरन सहित तमाम ऐसे तत्व हैं जो हमारे शरीर के लिए काफी लाभदायक होते हैंइसके फलों का अचार भी बनाया जाता है. बोहार का बॉटिनिकल नाम कोर्डिया डिकोटोमा है. अंग्रेजी में इसे बर्ड लाईम ट्री, इंडियन बेरी, ग्लू बेरी भी कहा जाता है. भारत के अन्य राज्यो में इसे लसोड़ा, गुंदा, भोकर जैसे नामों से जाना जाता है
इस भाजी के खाने से हृदय मजबूत होता है। इतना ही नही बल्कि इसका पेड़ ग्रामीण जीवन शैली के लिए यह जैक ऑफ ऑल ट्रेड है। एसा क्यों? रोटी, कपड़ा और मकान! अगर कोई पेड़ इन आवश्यकताओ को पूरा करे और साथ ही साथ इसके कई अन्य उपयोग भी देखने को मिले तो फिर ऐसे पेड़ या पौधे के विषय मे जानना आवश्यक हो जाता है। इसकी पुष्प कलिकाएं भोजन के रूप में प्रयोग होती हैं। छाल से फाइबर निकाला जाता है, हालाकि इसे कभी कपड़े का विकल्प नही समझा गया, लेकिन यह रेशा बहुत मजबूत होता है। जंगलों में लकड़ी के गठ्ठे बाँधना हो, चाहे कृषि कार्यों के लिए बांधने की रस्सी बनाना हो इससे मजबूत विकल्प कोई नही होता। ये प्रयोग उस समय किये जाते थे, जब इनकी संख्या अच्छी खासी होती थी।
इसके अतिरिक्त इसकी काष्ठ कभी कृषि अर्थव्यवस्था की रीढ़- बैलों के साथ बैलगाड़ी का आधार ज्वाड़े के रूप में रही है। और इसकी जड़ें मकान को सुंदर बनाने के लिए पुताई की कूची बनाने में प्रयोग की जाती है।
रेटू, गूंदी या लसोड़ा गाँव देहात में पाया जाने वाला उपयोगी पेड़ है, जिसकी ग्रोथ बहुत धीमी होती है। इसकी लकड़ी में बहुत अधिक रेशे होते हैं इसीलिये मजबूत मानी जाती है, अतः बेलगाडी का #ज्वाड़ा (मजबूत लकड़ी जिससे बैल, गाड़ी के साथ लगाये जाते हैं) बनाने में इसका प्रयोग किया जाता था। इसके अतिरिक्त पहले पुताई के लिए #कूची (देशी ब्रश) बनाने के लिए या तो पलाश या फिर रेटु की जड़ की लकड़ी का ही प्रयोग किया जाता था। आजकल भी गैंती, फावड़े आदि का आधार (#बेंसा) भरने के लिए इसी की मजबूत लकडियो का प्रयोग किया जाता है।
परंतु मेरे लिए तो बचपन से सबसे पहत्वपूर्ण इसके फूल की कलिकाएँ ही थी, जिन्हें तोड़कर लाकर बेसन के साथ एक पारंपरिक व्यंजन #फंगोरे / #पकोड़े बनाये जाते हैं। इसके फलों का प्रयोग पहले गाव में गोंद की तरह चिपकने वाले पदार्थ के रूप में किया जाता था। फलो में मीठा स्वाद होता है अतः कुछ स्थानों पर इन्हें भी खाया जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े लसोड़े का फल खाने के लिए और अचार के लिए पहली पसंद होती है। फलों के आकार के हिसाब से छोटा लसोड़ा और बड़ा लसोड़ा नाम से इन्हें जाना जाता है।
पातालकोट में आज भी बच्चे पुरानी किताबें या कापियाँ चिपकाने के लिए इसके फलों की गोंद का ही प्रयोग करते हैं। बचपन की यादों में गोता लगाऊं तो मजेदार किस्से निकलकर बाहर आते हैं। दिन भर मैदानों में पतंग उड़ाना और फट जाने पर इसी के फल से पतंग चिपका लेना, क्या दिन थे ये। इन सुनहरी यादों का जिक्र यदि इसके फल के साथ न करूं तो इस पोस्ट के साथ अन्याय होगा।
इसके फल स्वादिष्ट तो होते ही हैं, लेकिन मुफ्त के गोंद भी प्रदान करते हैं। गोंद प्राप्त करने के लिए पके हुए फल को थोड़ा दबाइये ताजी गोंद प्रयोग के लिए उपलब्ध है। बड़े लसोड़े का अचार तो बनता ही है, इसके अलावा बीजों को सुखाकर उसका मिश्री के साथ लड्डू बनाकर रख लिया जाता है। प्रतिदिन एक लड्डू खाने से रीढ़ की हड्डी मजबूत होती है और पूरे शरीर को शक्ति मिलती है। रीढ़ की हड्डी में आ जाने वाले गेप के मामले में भी यह कारगर है। इसके तने से निकली गोंद खासी कीमत पर बिकती है। बबूल की तरह रेटु की गोंद (सूखा रेजिन) भी औषधीय महत्त्व का होता है। इन सब के अलावा यह weber ant (घौसला बनाने वाली चीटी) का पसंदीदा आवास है, इन्ही के पत्तो को सिलकर वे अपना घोसला बनाती हैं। पके फल तो पक्षियों के लिए दावत से कम नही है।
इसके पेड़ में कई औषधीय गुण पाये जाते हैं। इसकी छाल का पेस्ट दाँत ओर मसूड़ो के दर्द में काम आता है। इसके बीजों का पेस्ट लहसन की कली के साथ पीसकर दाद के ऊपर लगाने से दाद ठीक हो जाता है। आधुनिक शोध के द्वारा भी जानकारियाँ मिलती हैं कि इस वनस्पति में लिवर रोगों से लड़ने वाले, तनाव से मुक्ति दिलाने वाले, वात रोग तथा जोड़ो के दर्द से निजात दिलाने वाले रसायन पाये जाते हैं। बायोमेडिसिन एंड फार्मेकोथेरेपी में छपे शोध पत्र के अनुसार इसके विभिन्न भागों में कई सारे सैकंडरी मेटाबॉलाइट्स जैसे- फ्लेवेनॉइड्स, टैनिन्स, अल्केलाइड्स तथा फिनोलिक कपांउड्स आदि पाये जाते हैं।
जिनका शरीर मे ज्वर नाशक से लेकर हृदय रोगों में उपचार के लिए प्रयोग किया जा सकता है। इसमें पाया जाने वाला महत्वपूर्ण रसायन Quercetin (कुरसेटिन) कैंसर सहित एलर्जी, वात रोग, जोड़ो के दर्द और हृदय रोगों में फायदेमंद है। अब जरा सोचिए कि इतनी सारी रिसर्च करके लाखो रुपये और कई वर्षों का कीमती समय खराब करके इस निष्कर्ष पर पहुँचा गया, जबकि हमारे गाँव देहात के बड़े बुजुर्ग और दादी नानियाँ वर्षों से यही बात कहते हुए आ रही हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि वे बेचारे अंग्रेजी में अपनी बात नही कह पाये, जबकि आज की पीढ़ी के लिए तो अंग्रेजी ही ज्ञान का पर्याय है।
चलिये अब बात करता हूँ इससे बनने वाले एक और लेकिन मेरे पसंदीदा व्यंजन की। बोहार भाजी से एक खास क्षेत्रीय व्यंजन बनाया जाता है। जिसे हमारे यहाँ फँगोरे कहा जाता है। यह भाप में पका एक स्वादिष्ट व्यंजन है जो पुष्पकलिकाओं से तैयार किया जाता है। इन्ही पुष्प कलिकाओं से बहुत से स्थानों पर शाक या भाजी भी बनाई जाती है, जिसे बोहार भाजी कहते हैं। थोड़ी बहुत जानकारी के साथ आज आपको फँगोरे बनाना सिखाता हूँ।
सामग्री:
लसोड़े की पुष्प कलिकाएँ, बेसन, मिर्च, हरा धनिया, काला नमक, सामान्य नमक और थोड़ी मात्रा में जीरे, अजवाइन, सौंफ, हल्दी आदि।
विधि-
इस व्यंजन को हम फंगोरे, पतोड़, पात्रे, भाप के पकोड़े, बिना तेल के पकोड़े आदि कई नाम से जानते हैं। इसे बनाने के लिये सबसे पहले आपको रेटू/लसोड़े की पुष्प कलिकाओं को एकत्र करना होगा। फिर इसके साथ बेसन और बाकि सभी सामग्री मिलकर गूथ ले, अब इसकी लड्डुओं की तरह गोल या अंडाकार बॉल्स बना लें। इन्हें बर्तन के मुँह पर कपड़ा बांधकर या छन्नी के ऊपर रखकर भाप में पकायें।
1. थोड़ा ठंडा होने के बाद क्षेत्रीय व्यंजन भाप के पकोड़े तैयार हैं। भाप में पकने के बाद इसे ऐसे ही खाया जाता है। आप चाहें तो टोमेटो सॉस के साथ परोस सकते हैं।
2. अगर कुछ फँगोरे बच जाए तो दोपहर के नास्ते के लिए अन्य तरह से और अधिक स्वादिष्ट बनाकर इसे परोस सकते हैं।इसके लिये बॉल्स के छोटे छोटे टुकड़े काटकर उसे तेल मसाले और कड़ी पत्ते के साथ फ्राय करें। गर्मागर्म नास्ता तैयार हो जायेगा।
लगता है, जैसे कल किन्ही बात हो…। मैं अपनी नटखट टोली के साथ निकल पड़ता था जंगल की ओर, और तलाश शुरू होती थी जंगल के खजाने की। ये जंगल का खजाना ऐसा है जो वर्ष के केवल कुछ दिन ही उपलब्ध होता है। यहाँ मैं बात कर रहा हूँ हर्बल खजाने की। पोषण के आधार पर इसमें सब कुछ है। अंग्रेजी वाली शटर- पटर भाषा मे कहूँ तो प्रोटीन, विटामिन, कार्बोहाइड्रेट, मिनरल्स फलाना, अमका,ढिमका। और बड़े बुजुर्गों की मानू तो ये बहुत पौष्टिक होते हैं। आज भी याद है- एक परिचित दादा हमे इसकी पुष्प कलिकाएँ तोड़ते समय पेड़ के नीचे से ही आवाज देते थे…। , अच्छे से तोड़ो, दवाई हैं।
इन्हें घर लेकर आने के बाद माँ इनसे डंठलों को अलग करती थी और शाम होते ही बेसन के साथ मिलाकर इसके लड्डू तैयार हो जाते थे। इन लड्डुओं के नाम से भ्रम मत पालियेगा, इसका मीठे लड्डुओं से कोई संम्बन्ध नही है शिवाय आकार के। जब इसे भाप में पकाने के लिए चूल्हे पर बर्तन जमाया जाता था तो मेरी आंखें टकटकी लगाकर इसके उतरने का इंतजार करती रहती थी। वैसे तो इसे भाप में पकने के बाद तेल में फ्राई करके खाया जाता है, लेकिन मुझे इस मामले में बचपन से इंतजार पसंद नही है तो फ़्राय होंने तक इन्हें आधा करके ही दम लेता था। आज उम्र से तो बड़ा हो गया हूँ लेकिन समझदारी के मामले में अभी भी बचपने में चला जाता हूँ। रेटू दिखे नही कि ले आये घर। वैसे हमारे यहाँ हाट बाजारों में इसे साधारण कीमत पर प्राप्त किया जा सकता है।
डॉ. विकास शर्मा
वनस्पति शास्त्र विभाग
शासकीय महाविद्यालय चौरई,
जिला छिंदवाड़ा (म.प्र.)