

वैधव्य का दर्द : हिमांशी की मर्मान्तक पीड़ा के बीच उसके विचारों की क्रांति को समझिए!
– राहुल देव
हिमांशी नरवाल का गहरी, मर्मांतक पीड़ा को भीतर पीकर सद्य वैधव्य से गुज़रती स्त्री का गरिमा-दीप्त चेहरा, उसकी सीधी-सरल भाषा में कह दी गई असाधारण बात और उसकी निजी विभीषिका के संदर्भ की चेतना मन में उमड़ रही है। अभिव्यक्ति के वे सही सटीक शब्द खोज रही है जो उसे व्यक्त कर सकें जो उसे देख और सुन कर उमड़ रहा है। कोशिश करता हूँ। हिमांशी नरवाल आज भारत में नैतिक और बौद्धिक ऊंचाई के उस असाधारण शिखर पर खड़ी दिखती है, जो भारतीयता के श्रेष्ठतम, उदात्ततम, महानतम मूल्यों को स्वयं जीकर ही पाया जा सकता है।
मैं नहीं जानता हिमांशी की पारिवारिक, सामाजिक, शैक्षिक पृष्ठभूमि क्या है। यही मालूम है कि वह पहलगाम में आतंकवादियों द्वारा मारे गए सेना अधिकारी लेफ्टिनेंट विनय नरवाल की वह पत्नी है जिसे वैवाहिक जीवन के सिर्फ़ पाँच-छह दिन मिले। उसकी मनःस्थिति की कल्पना भी हमारे लिए कठिन है। अपना सुहाग और भावी जीवन के मिल कर देखे, सोचे गए सारे सपनों के मिट जाने की विभीषिका से गुज़रती युवा स्त्री से हम केवल चीत्कारों, रुदन, पीड़ा की स्वाभाविक भावनात्मक अभिव्यक्तियों की ही अपेक्षा करते हैं। उससे हम देश की वर्तमान परिस्थितियों, व्यापक सामाजिक-धार्मिक संदर्भों की गहरी समझ रखने, एक असाधारण अंतर्दृष्टि और प्रज्ञा से विचार करने, संवाद करने की अपेक्षा नहीं करते।
हिमांशी ने ऐसी सामान्य अपेक्षाओं को ध्वस्त करके ऐसी बात कह दी है, जिसने पूरे देश को चौंका दिया। प्रत्येक सज्जन और समझदार व्यक्ति ने स्वाभाविक ही उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। मेरे लिए वह आज हमारी नैतिक नायिका है। ‘मैं चाहती हूँ पूरा देश उनके लिए प्रार्थना करे, वो जहाँ भी हैं खुश हैं। मैं किसी के प्रति कोई नफरत नहीं चाहती। लोग कश्मीरियों और मुसलमानों के खिलाफ जा रहे हैं। हम यह नहीं चाहते। हम शांति चाहते हैं। सिर्फ़ शांति। हाँ, हम न्याय तो चाहते ही हैं। जिन लोगों ने उनके साथ ग़लत किया है उन्हें सजा मिलनी चाहिए।’
जब सारे देश में पाकिस्तान पर स्वाभाविक क्रोध के ज्वार को भारत में रहने वाले मुसलमानों के खिलाफ मोड़ देने का दक्षिणपंथी अभियान ज़ोरों पर है, कश्मीरियों को पीटा जा रहा है, कोसा जा रहा है, सारे तथाकथित बड़े चैनल युद्धोन्माद भड़काने में अपनी रचनात्मकता दिखा रहे हैं उस समय में अपनी आँखों के सामने आतंकवादियों का अपने एक सप्ताह पुराने पति को गोली मार देना देख चुकी हिमांशी के ये शब्द क्रांतिकारी हैं।
हिमांशी की पीड़ा अकेली नहीं है। 27 अन्य पत्नियाँ, माएँ और परिवार इसी पीड़ा में जी रहे हैं। सबका दुख साझा है। पूरा देश उनके आगे, उनके दिवंगत परिजनों को शहीद मान कर नतमस्तक और नम है। हम उन सभी महिलाओं, परिजनों का अभिनन्दन करते हैं। क्योंकि, लगभग सबने ही लौट कर अपने-अपने ढंग से यह कहा कि उन विकट क्षणों में सबसे पहले और सबसे ज़्यादा सहायता उन्हें कश्मीरियों ने दी जो उस समय पहलगाम की बैसरन घाटी में मौजूद थे। जिन कश्मीरियों को दशकों से भारत-विरोधी, हिंदू-विरोधी बताया-प्रचारित किया जा रहा था, उन्हीं आम कश्मीरियों ने इन हिंदू पर्यटकों की मदद की जिन्हें इस्लामी आतंकवादियों ने धर्म पूछ कर मारा था। इन सब परिजनों के आगे भी हम नतमस्तक है।
लेकिन, हिमांशी ने जो कहा, जिस तरह से कहा वह उसे अलग खड़ा करता है। वह मददगार कश्मीरियों की भूमिका की बात करके, उन्हें धन्यवाद देकर अपना दुख व्यक्त कर सकती थी। उसने एक नितांत अनपेक्षित बात कही जो अपने अर्थ और निहितार्थों में उसे असामान्य ऊँचाई और विशिष्टता देती है। इसलिए उसका असामान्य अभिनन्दन और सम्मान हो रहा है। इसलिए कि उसकी बात के पीछे एक असामान्य अंतर्दृष्टि और नैतिक साहस संपन्न ऐसी चेतना और बुद्धि है, जो उसे सक्षम बनाती है कि अपने निजी दुख को झेलते हुए भी वह देश के व्यापक वातावरण, घटनाओं और उनके कारणों को देख सके। देख ही न सके, बल्कि उनमें नीर-क्षीर विवेक के साथ आतंकवादियों के अधर्म और कश्मीरी मुसलमानों सहित भारतीय मुसलमानों में अंतर कर सके। दोनों को एक ही मानने और भारतीय मुसलमानों को इस हमले के प्रत्यक्ष या परोक्ष उत्तरदायी मानने के विरुद्ध हमें आगाह कर सके।
इस असाधारण धैर्य, समझदारी और गरिमा का राष्ट्रीय अभिनन्दन होने की जगह उसके विरुद्ध न कहे जा सकने वाले शब्दों में निंदा अभियान चलाया जाना अमानव हो चुके मनुष्य रूपी विषाणुओं का ही काम हो सकता है। ऐसी हरकतें पशु भी नहीं करते। मनुष्यता के दो मॉडेल हमारे सामने हैं। एक ओर हिमांशी है। अपनी गरिमा और पीड़ा-दीप्त प्रज्ञा के साथ। दूसरी ओर यह रक्त-पिपासु उद्दंड भीड़ है। चुनाव हमें करना है।