संसद का संकटकाल: महाभियोग की राजनीति, न्यायपालिका की प्रतिष्ठा और सत्ता-विपक्ष की अदृश्य जंग

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संसद का संकटकाल: महाभियोग की राजनीति, न्यायपालिका की प्रतिष्ठा और सत्ता-विपक्ष की अदृश्य जंग

 

– राजेश जयंत

 

भारतीय संसदीय लोकतंत्र अपने सबसे विचित्र और चुनौतीपूर्ण दौर से गुजर रहा है। बीते सप्ताह संसद भवन में जो राजनीतिक विस्फोट हुआ, उसने न केवल संवैधानिक संस्थाओं की मर्यादा पर प्रश्नचिह्न लगाया, बल्कि सत्तारूढ़ दल, विपक्ष, न्यायपालिका और सोशल मीडिया- सभी को असहज कर दिया। जस्टिस वर्मा और जस्टिस शेखर यादव के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव, राज्यसभा के मंच पर फैसला पलट, और अचानक उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का इस्तीफा…यह सब बेहद गहरी पटकथा का हिस्सा था, जिसमें सच्चाई, रणनीति और विश्वास तीनों की असली परीक्षा थी।

 

*प्रसंग और घटनाक्रम*

1. **सरकार की नियंत्रण नीति और विपक्ष की तगड़ी चूक**

केंद्र सरकार शुरू से चाहती थी कि जस्टिस वर्मा के खिलाफ महाभियोग लोकसभा में लाया जाए, ताकि पूरा नियंत्रण और नैतिक एजेंडा उसके पास रहे। पर राजनीति की बिसात पर अचानक एक चाल उलट गई- राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ ने विपक्ष द्वारा प्रस्तुत 63 सांसदों के हस्ताक्षरयुक्त महाभियोग प्रस्ताव को स्वीकार कर डाला। खास यह रहा कि प्रस्ताव नेतासदन की अनुपस्थिति में मंजूर हो गया, जिससे बीजेपी खेमे में घबराहट साफ दिखी।

 

2. **राजनीतिक तकरार का नाटकीय मोड़**

यह अप्रत्याशित कदम विपक्ष की रणनीतिक जीत थी। राजनीतिक गलियारों में फुसफुसाहट बढ़ गई—क्या जस्टिस वर्मा को बचाने की कोई गुप्त डील हुई? आश्चर्य इस बात का भी रहा कि न्यायपालिका की स्वच्छता पर बहस छेड़ने वाले धनखड़ अब विपक्षी स्क्रिप्ट का अनचाहा नायक क्यों बन गए? सोशल मीडिया पर #JusticeVerma, #DhankharPolitics जैसे हैशटैग ट्रेंड हुए और संसद की घटाएं ट्विटर-फेसबुक तक जा पहुंचीं।

 

3. पैरेलल प्रकरण: जस्टिस शेखर यादव

इसी बीच प्रयागराज हाईकोर्ट के जज शेखर यादव, जिन्होंने वीएचपी मंच से विवादास्पद बयान दिया था, उनके खिलाफ भी विपक्ष ने महाभियोग की कवायद तेज कर दी। यहां सत्ता पक्ष चाहता था कि यादव बचें और विरोधी चाहते थे कि वे हटें, पर धनखड़ का पक्ष झुकते ही सियासी फलक झनझना उठा।

 

4. आंतरिक संकट, डैमेज कंट्रोल और इस्तीफा

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सत्ता पक्ष को लगने लगा कि धनखड़ विपक्ष की लाइन ले सकते हैं। तुरंत एनडीए सांसदों से सादे कागज़ पर साइन कराए गए; संकट गहराते ही ‘डैमेज कंट्रोल’ शुरू हुआ। अर्द्धरात्रि के समीप धनखड़ ने स्वास्थ्य कारणों का हवाला देते हुए इस्तीफा सौंप दिया। विपक्ष ने उन्हें “लोकतंत्र का प्रहरी” जताया तो प्रधानमंत्री की प्रतिक्रिया अपेक्षाकृत शिथिल दिखी। सत्ता पक्ष को यह राहत वाला घटनाक्रम लगा।

 

5. सोशल मीडिया में सियासी ज्वार

संसद की परछाई अब सोशल मीडिया के ट्रेंड्स में बदल गई। ट्विटर (अब X), फेसबुक और व्हाट्सऐप ग्रुप्स पर #ImpeachmentSaga, #बनामदिल्ली, भाजपा विरुद्ध भाजपा, और “RSS बैकग्राउंड बनाम आयातित नेता” जैसे चर्चे तेज़ हो गए। ग्रुप्स में राजनाथ सिंह के ऑफिस में सांसदों के हड़बड़ी में साइन कराने की खबरें वायरल हुईं, जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर भी सवाल उठने लगे।

 

6. संदेश और संभावनाओं की असल तस्वीर

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इस पूरे मामले ने भाजपा को यह सिखाया कि बड़ी जिम्मेदारी ‘आयातित’ नेताओं के हाथ देने का जोखिम पार्टी डीएनए से दूर ले जा सकता है। विपक्ष की रणनीतिक सक्रियता ने दिखाया कि अब जंग संसद के भीतर ही नहीं, सोशल मीडिया और पब्लिक स्पेस में भी बराबरी से लड़ी जाती है। बारीकी से देखें तो, लोकतंत्र अब केवल प्रक्रियाओं का नहीं, सार्वजनिक सोच और ‘पर्सेप्शन वॉर’ का भी नाम है।

*इस्तीफा और उसके बाद*

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– उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के इस्तीफे के बाद उनके संसद स्थित कार्यालय को प्रशासन ने तुरंत सील कर ताला लगा दिया है।

– उनके सरकारी आवास पर भी सुरक्षा बढ़ा दी गई है और आवास पर विशेष प्रशासनिक निगरानी रखी जा रही है।

– कार्यालय स्टाफ को स्पष्ट निर्देश दिए गए हैं कि पूर्व उपराष्ट्रपति की अनुमित के बगैर कोई दस्तावेज या इलेक्ट्रॉनिक डाटा बाहर न ले जाया जाए।

– विपक्ष इन कार्रवाइयों को सत्ता की बौखलाहट व बदले की कार्रवाई बता रहा है, वहीं सरकार इसे “सामान्य प्रशासनिक प्रक्रिया” कहकर कम कर आंक रही है।

– सोशल मीडिया पर उपराष्ट्रपति ऑफिस पर लगे ताले की फोटो और आवास की निगरानी की खबरें वायरल हैं—#OfficeSealed और #ResidenceUnderWatch जैसे हैशटैग तेजी से चल रहे हैं।

 

*निष्कर्ष*

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जस्टिस वर्मा और शेखर यादव के महाभियोग मामले ने मात्र एक संवैधानिक प्रक्रिया या दलगत राजनीति नहीं, बल्की भारतीय लोकतंत्र के न्यूक्लियस को चुनौती दी है। संसद, न्यायपालिका, विपक्ष- तीनों की नीयत, सीमा और रणनीति कटघरे में हैं। सोशल मीडिया ने इस समूचे प्रसंग को ‘पब्लिक कोर्ट’ में ला के खड़ा कर दिया है, लिहाजा अब हर निर्णय केवल संविधान की किताब तक सीमित नहीं, बल्कि जनता की भावना, भरोसा और सवालों के मध्य से होकर गुजरेगा।

इस पूरे घटनाक्रम ने एक ही संदेश दिया- आज संसद का सीधा युद्ध संसद भवन से निकल कर हर हाथ के मोबाइल, हर आम आदमी की राय और ‘औनलाइन जनमत’ तक पहुँच गया है।

 

क्या लोकतंत्र अब और ज्यादा पारदर्शिता की ओर बढ़ेगा या उलझनों के बियाबान में खो जाएगा, इसका उत्तर अब नेताओं या जजों के पास नहीं, बल्कि जनता के भरोसे और सोशल मीडिया के तापमान में छुपा है।