राजनीति में इमोशन की जगह
देश में इस समय सियासत के अलावा और कुछ हो ही नहीं रहा शायद ,इसीलिए मजबूरी है राजनीति के इर्दगिर्द घूमने की .जनजीवन की धुरी बन चुकी है राजनीति.विकास ,कला,संस्कृति,प्रकृति पर सोचने,बात करने की किसी को फुरसत नहीं है .जिन्हें फुर्सत है वे मंहगे पैकेज लेकर पर्यटन पर हैं .राजनीति से ऊबे लोगों और मौसम की बेरुखी से आजिज लोगों के लिए पर्यटन ही अब एक मात्र सहारा है .
देश की बेहया सियासत में अब ‘ इमोशन ‘की तलाश की जा रही है. महाराष्ट्र में जब गैर भाजपा गठजोड़ की कुर्सी डांवाडोल हुई तो सबसे पहले मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने ‘ इमोशनल कार्ड ‘ खेलने की कोशिश की .वे पार्टी में असंतोष भड़कने के बाद मुख्यमंत्री आवास छोड़कर इन दिनों मातोश्री में रह रहे हैं .ठाकरे ने ‘ इमोशन ‘ के जरिये बागियों से घर लौटने की अपील की .लेकिन जब कोई इमोशन हो ही नहीं तो सुने कौन ? राजनीति में इमोशन की अंत्येष्टि हुए अरसा गुजर चुका है. ,महाराष्ट्र में जिस दिन शिवसेना पहली बार टूटी और मनसे का गठन हुआ उसी दिन इमोशन का खेल खत्म हो गया था .अब उद्धव ठाकरे के बेटे इमोशन -इमोशन खेल रहे हैं .उन्हें नहीं पता कि इमोशन प्लास्टिक का कोई खिलौना नहीं बल्कि एक भाव है जो दिलों में होता है जो निराकार है ,जो केवल महसूस किया जा सकता है .
आजादी के बाद देश की सत्ता में दशकों तक काबिज रही कांग्रेस अपने आप में एक इमोशन थी. इसी इमोशन के जरिये देश स्वतंत्रता के लक्ष्य तक पहुँच सका था .आजादी के बाद भी कांग्रेस में इमोशन ज़िंदा रहा.इसी इमोशन के जरिये पंडित जवाहरलाल नेहरू हीरो बने रहे. लाल बहादुर शास्त्री को भी सम्मान मिला और इंदिरा गांधी को भी दुर्गा की उपाधि मिली .इसी इमोशन की वजह से सरदार पटेल आजादी के बाद के पहले उप प्रधानममंत्री बने अन्यथा वे प्रधानमंत्री भी बन सकते थे .
राजनीति में इमोशन का इस्तेमाल सबके बूते की बात नहीं है. कांग्रेस में सबसे जायदा इमोशन इंदिरा गाँधी ने इस्तेमाल किया. उनके जमाने में जितनी बार कांग्रेस टूटी इमोशन के टेप से जोड़ दी गयी .राष्ट्रपति के चुनाव में ‘ अंतरात्मा की आवाज ‘ सुनने की अपील खालिस इमोशनल अपील थी .भारत-पाक युद्ध के बाद बांग्ला देश का जन्म भी एक तरह का इमोशन ही था जो कांग्रेस के काम वर्षों तक आता रहा .बाद में कांग्रेस की देखा देखी 1980 में जन्मी भाजपा ने जनता के इमोशन को भुनाने के लिए रामनाम का सहारा लिया और अंतत: सत्ता सिंघासन तक पहुँच ही गयी .भाजपा में अटल बिहारी बाजपेयी तो एकदम इमोशनल नेता थे ही .
देश की सियासत में इमोशन का इस्तेमाल दक्षिण वाले तो युगों से कर रहे हैं. दक्षिण की जितनी भी राजनीतिक पार्टियां हैं इमोशनल जमीन पर ही खड़ी हैं. इन प्रदेशों की जनता अपने राजनीतिक आकाओं से इमोशनली ही जुडी हैं. एमजी रमचन्द्रन हों या एन टी रामाराव या जयललिता या आज के तेलंगाना नरेश के चंद्रशेखर राव .दक्षिण की जनता तो अपने नेताओं के लिए आत्मोत्सर्ग तक कर लेती है .कम से कम उत्तर में ये स्थिति नहीं है .उत्तर में भी बसपा,सपा जैसे दल इमोशन की जमीन पर ही खड़े हुए और इमोशन खत्म होते ही खुद भी खत्म हो चले ,बिहार में लालू प्रसाद की लालटेन इमोशन के आधार पर ही दशकों तक जली और आज भी बुझी नहीं है ,लुपलुपा रही है .
भाजपा में बीते आठ साल से एक तरह के नए इमोशन का आगाज हुआ है. जिसमें पंत प्रधान अक्सर रुदाली करते दिखाई देते हैं. उनकी आँखें चाहे जब सजल हो जातीं हैं. उनमें अम्बकजल छलकने लगता है .वे कार के पहिये के नीचे आये पिल्ले के लिए भी छलक सकती हैं और संसद में बोलते -बोलते हुए भी .इस तरह आप कह सकते हैं कि राजनीति में अगर इमोशन को किसी ने बचाकर रखा है तो उसका श्रेय पंत प्रधान को जाता है .मैंने बीती आधी सदी में अनेक छोटे-बड़े नेताओं को इमोशनल होते देखा है .ये अच्छी बात है. बिना इमोशन के राजनीति निष्ठुर हो जाती है ,निष्ठुर हो भी गयी है .अब जो आंसू होते हैं उनमें इमोशन कम मगरमच्छ मोशन ज्यादा होता है.
आज की सियासत में इमोशन ने भक्तों की नेत्रज्योति ही छीन ली है. उन्हें हर मौसम में हरा-हरा ही दिखाई देता है .ऐसा भक्तिभाव देश दुनिया की राजनीति में दुर्लभ है .इससे पहले पूरब हो पश्चिम,उत्तर हो या दक्षिण कहीं भी देखने -सुनने में नहीं आया .पहले रीतिकाल में हमारे पास ले-देकर एक सूरदास थे लेकिन कलिकाल में हमारे पास सूरदास की एक पूरी पीढ़ी है .सूरदास होना कोई आसान नहीं है .सूरदास होना आज की विषम परिस्थिति में सबसे बड़ा सहारा है .पुराने जमाने में कहते थे’ आँख फूटी,पीर न जानी ‘ .अब पीर किस खेत की मूली है ,कोई नहीं जानता .वैष्णवजन तो अब देश की राजनीति में बचे ही नहीं हैं जो पीर पराई जान लें !
आप माने या न मानें लेकिन मै बचपन से अब तक राजनीति में इमोशन का पक्षधर रहा हूँ. हालाँकि मेरी पक्षधरता को लेकर सूर पीढ़ी हमेशा संदेह से भरी रहती है .मेरी पक्षधरता में कांग्रेस ,भाजपा या वाम नहीं है .मै शुरू से जन पक्षधरता के साथ हों सत्ता प्रतिष्ठान से मेरा मधुर रिश्ता कभी नहीं रहा ,मैंने अपने इमोशन जनता के लिए बचाकर रखे हैं .सत्ता के चरणों में लौटने के लिए तो हमारे पास एक लम्बी फ़ौज है .आज इमोशन की रक्षा ही असल राजधर्म है .मै इमोशनली ब्लैकमेलिंग का धुर विरोधी रहा हूँ ,लेकिन मेरा विरोध इमोशनली ब्लैकमेलिंग करने वालों को फूटी आँख नहीं सुहाता .इमोशन से भरे लालजी यानि आडवाणी जी या राकेश टिकैत को कोई पूछ रहा है ?
दरअसल राजनीति में इमोशन और विरोध दो परस्पर विरोधी भाव हैं . यदि आप इमोशनल हैं तो निर्मम नहीं हो सकते और यदि निर्मम हैं तो इमोशनल नहीं हो सकते .दोनों के बीच छत्तीस का आंकड़ा है .इसी आंकड़े का ताजा परिणाम तीस्ता सीतलबाड़ और उन जैसे तमाम लोग भुगत रहे हैं .अगर आप सत्ता प्रतिष्ठान का विरोध करेंगे तो उसे सत्ता को बदनाम करने की साजिश मान लिया जाएगा. आपके पीछे ईडी ,सीडी लगा दी जाएगी ,ताकि आप टूट जाएँ,झुक जाएँ ,नतमस्तक हो जाएँ या फिर विरोध करना भूल जाएँ .कुल जमा राजनीती में इमोशन की तलाश चील के घोंसले में मांस खोजने जैसी है .इमोशन एक लापता चीज है. आपको कहीं भूले-भटके मिल जाये तो हमें भी खबर कीजिये.हम भी उसे देखना और महसूस करना चाहते हैं .
@ राकेश अचल