PM Narendra Modi : “श्रीकृष्ण से मोदी तक : राष्ट्रधर्म ही सर्वोपरि”

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PM Narendra Modi: “श्रीकृष्ण से मोदी तक : राष्ट्रधर्म ही सर्वोपरि”

 बाबा सत्यनारायण मौर्य का विशेष आलेख

Mumbai:जब मैं नरेंद्र मोदी जी के जीवन को देखता हूं, तो मुझे बार-बार श्रीकृष्ण के विराट व्यक्तित्व की याद आती है। जैसे श्रीकृष्ण ने द्वारका की महानता को स्वीकार करते हुए अपने व्यक्तिगत संबंधों और मधुर स्मृतियों से ऊपर उठकर राष्ट्रधर्म को सबसे बड़ा लक्ष्य बनाया, वैसे ही मोदी जी ने भी जीवनभर राष्ट्र की सेवा को सर्वोपरि माना है।

मेरे लिए यह लेख केवल उनके जन्मदिवस पर शुभकामनाओं का संदेश नहीं, बल्कि अपने अनुभवों और स्मृतियों के माध्यम से साझा की गई एक साधना है। नरेंद्र मोदी जी से जुड़ी अनेक यादें आज भी मेरे मन को भावुक करती हैं, परंतु उन सबके पीछे हमेशा यही संदेश छिपा रहा है कि जब राष्ट्र का कार्य सामने हो, तो व्यक्तिगत संबंधों से ऊपर उठना ही सच्चा धर्म है।

जिन्होंने भी श्रीकृष्ण के जीवन को पढ़ा या सुना है, वे अक्सर कहते हैं कि द्वारका का विराट व्यक्तित्व बनने के बाद वे कभी वृन्दावन नहीं लौटे, न राधा से मिले, न अपने ग्वाल-बाल मित्रों से। कथाकार इसकी अनेक आध्यात्मिक व्याख्याएं करते हैं। परंतु मेरी सोच कुछ अलग है। कहा जाता है कि जितना बड़ा पाना हो, उतना ही बड़ा दांव लगाना पड़ता है। महान बनने की राह आसान नहीं होती। अच्छे वर्तमान और भविष्य के लिए कभी-कभी भूतकाल की मधुरतम स्मृतियां भी त्यागनी पड़ती हैं।

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व्यक्तिगत जीवन से उपजी अनुभूति
यह मैंने अपने जीवन में भी देखा। जब मैंने अपने नगर को छोड़ा, तो वह निर्णय हृदय को चीर देने वाला था। मित्रों और परिवार का छोटा संसार मेरे प्राणों के समान था। सुबह से रात तक उन्हीं के साथ रहना मेरा जीवन था। लेकिन धीरे-धीरे संसार बड़ा हुआ और पीछे का सब छूटता चला गया।
आज भी जब पुराना मित्र अपने उसी अंदाज में गालियां देता है और लोग पूछते हैं कि यह कौन है, तो मैं कह देता हूं- “तुम्हारे लिए मैं सम्माननीय हू़ं, लेकिन इनके लिए तो कर्जदार हूं। इनकी गालियां खाकर मित्रता का कर्ज चुका रहा हूं।”

मातृ-पितृ स्मृतियां और राष्ट्रधर्म
माता-पिता के अंतिम समय में उनके दर्शन न कर पाने की पीड़ा और भी गहरी है। मां के निधन का समाचार मुझे एक कार्यक्रम के बीच मिला। तब स्थिति शब्दों से परे थी। लेकिन श्रीकृष्ण के जीवन ने ही प्रेरणा दी- “पहले राष्ट्र का धर्म, फिर अपना व्यक्तिगत धर्म।”

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इसलिए रोते-रोते पहले मंच पर कार्यक्रम किया, फिर राजगढ़ जाकर अंत्येष्टि में सम्मिलित हुआ। यही राष्ट्रधर्म की साधना है।

मित्रों का सफर और यथार्थ
जीवन की पुरानी स्मृतियां केवल राजनीति तक सीमित नहीं, बल्कि कला, व्यापार और समाज के कई बड़े नामों से जुड़ी हैं। जिनके साथ कभी मुफ़लिसी के दिन बिताए, वे आज मुख्यमंत्री, मंत्री, व्यापारी, अभिनेता या कलाकार बन गए। संयोग होता है तो मुलाकात हो जाती है, पर न कोई अपेक्षा है न लेना-देना।
सुदामा श्रीकृष्ण से मजबूरी में मिलने गए थे। मेरी तो वह भी मजबूरी नहीं।

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कला और धर्म का बंधन
मेरा स्वभाव ऐसा है कि बिना काम के किसी से मिलना संभव नहीं। कला और धर्म के छोटे से संसार ने मुझे बांध रखा है। यह बंधन बहुत लोग नहीं समझ पाएंगे, लेकिन मैंने इसे जीकर जाना है।

मोदी से जुड़ी यादें
आज यह प्रसंग इसलिए सामने आया क्योंकि यह प्रधानमंत्री मोदी जी का जन्मदिन है। कई लोग मुझसे पूछते हैं कि प्रधानमंत्री बनने के बाद उनसे कभी मिले क्यों नहीं। तब मेरे मन में वही श्रीकृष्ण और ग्वाल-बाल वाला उदाहरण आता है।
प्रधानमंत्री बनने से पहले नरेंद्र भाई से जुड़ी अनेक स्मृतियां हैं-
चुनावों में उनका फोन आते ही मैं झोला उठाकर चल देता था।
दिल्ली में 11 अशोका रोड पर बिना पूछे चला जाता था और देर तक बैठकों में शामिल होता था। गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के दिन मिठाई लेकर न जाकर उनके साथ मिठाइयां खाईं और लौटते समय डिब्बे भी मिले।
मोदी जी की व्यस्तता मैं जानता हूं, इसलिए कभी फोन नहीं करता। वे याद कर लेते हैं, यही मेरा सौभाग्य है।

2014 का चुनाव और आत्मीयता
2014 के चुनाव में जब मुझे स्लिप डिस्क की समस्या थी, तब बैठकर कार्यक्रम करना पड़ा। फिर भी मैंने काशी जाकर प्रचार किया। जब वे प्रधानमंत्री बने, तो मुंबई लौटे मेरे संरक्षक स्वरूपचंद गोयल ने बताया कि मोदी जी ने सबसे पहले मेरे बारे में पूछा।
मैंने कहा-“वे याद करते हैं, यही पर्याप्त है। काम होगा तो खुद बुला लेंगे। उनका और राष्ट्र का समय क्यों नष्ट करूं?”

दरबार से दूरी और आत्मसम्मान
न चुनाव का टिकट चाहिए, न सरकारी योजना का लाभ। तो फिर दरबार में हाजिरी क्यों दूं? श्रीकृष्ण के ग्वाले यदि दरबारी बन जाते, तो स्वयं भी दुखी होते और द्वारिकाधीश को भी करते।
मेरा मानना है- “जो काम उनके साथ रहकर करता था, वही आज स्वतंत्र रूप से कर रहा हूं। वृन्दावन की स्वतंत्रता ही सबसे सुखद है।”

पुराने दिनों की यादें
उस समय मोबाइल नहीं था। फोटो खिंचवाने के लिए फोटोग्राफ़र बुलाना पड़ता था। कहीं-कहीं से कुछ फोटो मिले हैं, जिन्हें देखकर द्वारिकाधीश बने अपने मित्र को याद कर लेता हूं। उनकी सफलता की खुशी मेरे लिए निजी खुशी है।

आत्मीयता ही असली रिश्ता
आज सुबह से मोदी जी के जन्मदिन पर शुभकामनाएं देख रहा हूँ। उनकी उपलब्धियां मुझे अपनी ही लगती हैं। यही आत्मीयता है, यही अपनापन है।
श्रीकृष्ण ने जब अपने मित्रों, परिवार और यहां तक कि यशोदा मैया तक को पीछे छोड़ दिया, तो यह हम सबके लिए एक संदेश है- “संबंधों में मत उलझो, राष्ट्र का लक्ष्य सबसे ऊपर रखो।”

अंतिम प्रार्थना
मोदी जी के जन्मदिन पर परमात्मा से प्रार्थना करता हूं कि वे स्वस्थ और प्रसन्न रहकर राष्ट्र की सेवा करते रहें। और सबके लिए यही संदेश —
जब राष्ट्र का काम सामने हो, तो मित्रता और पारिवारिक बंधनों से ऊपर उठें।
लक्ष्य केवल एक हो – राष्ट्र को परम वैभव तक पहुंचाना।

संबंध और मेल-मुलाकात तो जन्म-जन्मांतर तक चलते रहेंगे। इस जन्म में जो साथी हैं, वे अगले जन्म में भी मिलेंगे। भूमिकाएं बदलेंगी, पर साथ बना रहेगा।

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 सत्यनारायण मौर्य

बाबा सत्यनारायण मौर्य एक देशभक्त कलाकार है. जो अपनी कलाओं के माध्यम से राष्ट्रजगरण में लगे हुए है. विश्व के एकमात्र ऐसेकलाकार है जो भारत माता की आरती का मनोरम, मन को मोहने वाला कर्यक्रम करते है.बाबा सत्यनारायण मौर्य का जन्म मध्यप्रदेश के राजगढ़ ज़िले में हुआ। साधारण परिवार में जन्म लेने के बावजूद बचपन से ही उनमें कला और साहित्य के प्रति गहरी लगन थी। उन्होंने औपचारिक शिक्षा के साथ-साथ अपनी सृजनशीलता को ही जीवन का मार्ग बनाया।

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