Political Analysis: मध्यप्रदेश में कांग्रेस की करारी हार के गर्भ में क्या छुपा!

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Political Analysis: मध्यप्रदेश में कांग्रेस की करारी हार के गर्भ में क्या छुपा!

– हेमंत पाल का विशेष राजनीतिक विश्लेषण

तीन राज्यों में कांग्रेस की करारी हार के बाद पार्टी सदमे में है। पार्टी की सबसे बुरी हार मध्यप्रदेश में हुई, जहां उसकी सत्ता में वापसी को लेकर कोई शंका नहीं थी। ताजपोशी की पूरी तैयारी हो चुकी थी, कि अचानक भाजपा की सुनामी आ गई। जितनी सीटें भाजपा को मिली, वो अनपेक्षित सा आंकड़ा है। कांग्रेस को परेशानी इसलिए है, कि उसे प्रतिद्वंदी कि ऐसी जीत की उम्मीद कतई नहीं थी। उसे अनुमान था कि मुकाबला कांटाजोड़ जरूर है, पर कांग्रेस बाजी मारकर सरकार बनाने लायक बहुमत पा लेगी। लेकिन, जो हुआ उसने प्रदेश नेतृत्व को आत्ममंथन करने पर मजबूर कर दिया। अब हार के कारण तलाशने के लिए मंथन हो रहा है। देखा जाए तो इसका कोई मतलब नहीं रह गया, जो होना था वो हो चुका। अब आने वाले पांच साल तक भाजपा ही मध्यप्रदेश की सत्ता में रहेगी और कांग्रेस विपक्ष की भूमिका में!

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कमलनाथ पिछले 6 साल से मध्य प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष हैं। पार्टी की तरफ से वे ही मुख्यमंत्री का चेहरा भी थे। लेकिन, चुनाव नतीजों ने भाजपा को अव्वल साबित कर दिया। उसे 163 सीटें मिली और कांग्रेस मात्र 66 सीट पर सिमटकर रह गई। इस चुनाव में भाजपा को पिछले चुनाव के मुकाबले 57 सीटों का फ़ायदा हुआ। इंदौर, जबलपुर, ग्वालियर, रतलाम, सागर, दमोह और खंडवा जैसे शहरी क्षेत्रों में जिस तरह कांग्रेस की हार हुई, वो सबसे ज्यादा चिंता की बात है।

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इन शहरों में पार्टी का पूरी तरह सफाया हो गया। जहां तक हार के कारणों का सवाल है, तो कमलनाथ का सॉफ्ट हिंदुत्व का चुनावी प्रयोग पूरी तरह असफल रहा। कांग्रेस पर भाजपा ने हिंदू विरोधी होने का आरोप लगाया, जिसका जवाब देने के लिए कमलनाथ ने धार्मिक आयोजनों पर ध्यान दिया। हनुमान जयंती पर पार्टी दफ्तर में ही पूजा-पाठ करवाया गया। पार्टी में ‘धार्मिक और उत्सव प्रकोष्ठ’ के गठन के साथ धार्मिक कार्यक्रम करवाए गए। लेकिन, इससे हिंदुओं में पकड़ नहीं बनी, उल्टा मुस्लिम वोटर नाराज हो गए।

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यदि कांग्रेस की हार के कारणों की चीरफाड़ की जाए, तो कई ऐसे कारण सामने आएंगे, जो भाजपा की जीत को सही साबित करते हैं। कांग्रेस की हार के कारणों में उम्रदराज कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की बड़ी भूमिका रही। कमलनाथ भले 6 साल से प्रदेश अध्यक्ष हों, पर वे जन नेता नहीं हैं। वे रणनीति बना सकते हैं, पर उसे अमल कैसे किया जाए, ये वे नहीं कर जानते। उनमें एक कमजोरी संपर्क की भी है। पार्टी के कार्यकर्ता तो छोड़ विधायकों तक को उनसे मिलने से पहले कई औपचारिकता निभानी पड़ती है। यही कारण है कि उन्हें पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष के बजाए कारपोरेट कंपनी का मैनेजर ज्यादा कहा जाता है।
निश्चित रूप से चुनाव में उनकी ये आदत पार्टी के लिए मुश्किल बनी है। ये उनकी संगठनात्मक खामी ही मानी जाएगी कि वे कांग्रेस को उस हालत में ले आए, जहां से उसके आगे बढ़ने की सारी संभावना ही ख़त्म हो गई। यही स्थिति दिग्विजय सिंह की भी है, वे पार्टी कार्यकर्ताओं पर गुर्राते ज्यादा दिखाई दिए। इन दोनों नेताओं की वजह से पार्टी में नई लीडरशिप को आगे आने का मौका नहीं मिला। इस बार ज्यादातर युवा नेता चुनाव हार गए, जिसके बाद भविष्य की संभावना भी ख़त्म हो गई।

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मध्य प्रदेश में भाजपा की जीत उतना मायने इसलिए नहीं रखती, जितनी कि कांग्रेस की हार। भाजपा के जीत में लाडली बहना, सनातन का मुद्दा, सांसदों को विधानसभा चुनाव में उतारना और प्रधानमंत्री मोदी की ‘गारंटी’ सहित कई कारण गिनाए जा सकते हैं। लेकिन, कांग्रेस की हार का केवल एक ही कारण नजर आ रहा है कि प्रदेश में पार्टी का नेतृत्व बूढ़ा, निस्तेज और अड़ियल रहा। युवा नेताओं को चुनाव अभियान में शामिल नहीं किया गया। थके, चुके और बूढ़े नेताओं ने कांग्रेस की लगाम नहीं छोड़ी। उम्मीदवारों की घोषणा से लगाकर चुनाव प्रक्रिया और प्रचार रणनीति तक ऐसे नेताओं के हाथ में रही, जिन्हें अब सक्रिय राजनीति से रिटायर हो जाना चाहिए था।
कमलनाथ और दिग्विजय सिंह जैसे बूढ़े नेता मध्यप्रदेश में कोई चमत्कार कर सकेंगे, यह सोचना कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व की बड़ी भूल थी। कांग्रेस ने 2018 में इस सोच को बदल लिया होता तो, आज ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसा युवा नेतृत्व उनसे दूर नहीं जाता। जिस भाजपा को पिछले विधानसभा चुनाव में जनता अस्वीकार कर चुकी थी, वो फिर सत्ता में नहीं आती। इसके बावजूद केंद्रीय नेतृत्व ने कोई सबक नहीं सीखा और कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के हाथ में सारा दारोमदार सौंपकर जीत के दावे किए जाने लगे। पूरे चुनाव अभियान में दोनों नेताओं के बीच सामंजस्य का भी साफ़ अभाव दिखाई देता रहा। यहां तक कि सार्वजनिक मंच पर भी दोनों में खींचतान हुई। इसका नतीजा ये हुआ कि मतदाताओं ने इन्हें नकार दिया।

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कांग्रेस और भाजपा की चुनावी रणनीति में मूल अंतर चुनाव लड़ने का है। भाजपा जहां उम्मीदवारों की घोषणा से मतदान तक उनके साथ खड़ी रहती है। कांग्रेस टिकट देकर उन्हें अकेला छोड़ देती है। ये हर बार देखा गया और इस बार भी इसमें कोई सुधार नहीं देखा गया। उम्मीदवारों की घोषणा के बाद पार्टी के संगठन ने चुनाव लड़ने में कहीं उनका साथ नहीं दिया। यहां तक कि जहां पार्टी उम्मीदवारों के खिलाफ विद्रोह हुआ, वहां भी संगठन ने ध्यान नहीं दिया। नतीजा ये हुआ कि जहां कांग्रेस की जीत लगभग तय मानी जा रही थी, वहां भी उसकी लुटिया डूब गई। ये सीधे-सीधे कांग्रेस संगठन की खामी ही मानी जाएगी कि वो पार्टी को एकजुट नहीं कर सकी।
प्रदेश में कांग्रेस के दो ही नेता है दिग्विजय सिंह और कमलनाथ। लेकिन, इन दोनों की रणनीति और सारी चुनावी तैयारी भाजपा के सामने धरी रह गई। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि दोनों कि उम्र अब चुनावी राजनीति करने की नहीं रही। लेकिन, दोनों ही इसे स्वीकारने को तैयार नहीं। उनकी इस जिद की वजह से प्रदेश का युवा नेतृत्व उभर नहीं सका। इस चुनाव में कई ऐसे युवा नेता चुनाव हार गए, जिनकी जीत से नई संभावना की उम्मीद की गई थी। प्रदेश कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष जीतू पटवारी की राजनीतिक वाकपटुता के सभी कायल हैं माना जाता है। लेकिन, इस बार वे अपने कौशल को जीत में नहीं बदल सके। प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अरुण यादव अब युवा नहीं रहे। यही स्थिति अर्जुन सिंह के बेटे राहुल सिंह की भी है।
दिग्विजय सिंह के बेटे जयवर्धन सिंह को पार्टी में सबसे ज्यादा संभावनाशील नेता माना जाता है। वे पिछला चुनाव बड़े अंतर से जीते थे, पर इस बार उन्हें जीतने में भी मुश्किल हो गई। लोकसभा चुनाव की नजदीकी को देखते हुए अब कांग्रेस के पास नया नेतृत्व खड़ा करने का समय नहीं बचा। संभावनाशील आदिवासी युवाओं में उमंग सिंगार और हनी बघेल को भी किनारे नहीं किया जा सकता। इन दोनों ने लगातार जीत दर्ज करके साबित किया कि उनमें भी दम है। लेकिन, वे अभी तक नेतृत्व की आँख में नहीं आए। अभी कांग्रेस के खाते में लोकसभा की 29 में से सिर्फ एक सीट है। केंद्रीय नेतृत्व भी असहाय है, कि वो कुछ नहीं कर सकता। विधानसभा चुनाव में भाजपा के सामने कांग्रेस की जो गत हुई, इसमें बहुत ज्यादा सुधार की उम्मीद नहीं की जा सकती