आजकल हर भारतवासी की जुबान पर एक फिल्म का नाम है और वह फिल्म है ‘द कश्मीर फाइल्स’ (The Kashmir Files)। ‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म ने बॉलीवुड के तथाकथित कर्णधारों की रातों की नींद उड़ा दी है। एक घोषित एजेंडे के तहत काम करने वाले बॉलीवुड की नींव पहली बार खिसकती और धंसकती हुई महसूस की जा रही है।
इस फिल्म में वह सच्चाई दिखाई गई है जो यह देश देखना चाहता था, 1990 में कश्मीर में रहने वाले कश्मीरी पंडितों को रातों-रात किस तरह बेदखल किया गया, यह आज तक एक रहस्यमयी पर्दे के पीछे छिपा हुआ सच था जिसे आईआईएमसी दिल्ली (IIMC, NewDelhi) के पासआउट विवेक रंजन अग्निहोत्री ने अपनी फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ के माध्यम से उजागर किया है।
इस फिल्म को देखने के बाद लोग चौंक रहे हैं कि अब तक यह डरावना सच उन्हें क्यों नहीं पता था। इस फिल्म में दिखाई गई सच्चाई को राजनेता से लेकर आम आदमी तक पसंद कर रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए किए गए विशेष शो में जब उन्होंने इस फिल्म को देखा तो वे भी कश्मीरी पंडितों के साथ हुए अत्याचारों को देखकर अपने आंसू नहीं रोक सके। सबसे खास बात यह है कि इस फिल्म में दिखाया गया सच कोई 200- 400 साल पुरानी बात नहीं है। यह सच 1990 की घटनाओं पर आधारित है। उस दौरान आज के युवाओं में से ज्यादातर का जन्म हो चुका था। इस युवा पीढ़ी का सबसे बड़ा सवाल यही है कि उनके जन्म के इर्द गिर्द होने वाली इस महत्वपूर्ण घटना को किस एजेंडे के तहत उन लोगों से छिपा कर रखा गया था।
विवेक रंजन अग्निहोत्री की फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ ने इस पूरे सच को उजागर करके एक ऐसा बवंडर खड़ा कर दिया गया है जिसने पूरे बॉलीवुड की नींद उड़ा दी है। हालांकि इस फिल्म को रोकने की बहुत कोशिशें की गई। अनेक तरह के प्रेशर बनाए गए पर सच कभी छिपता नहीं है और वह आखिर सामने आ ही गया। बॉलीवुड में हिंदू विरोधी मुस्लिम परस्त सोच कोई नई नहीं है आईआईएम के एक प्रोफेसर ने इस बारे में एक महत्वपूर्ण शोध किया है जिसका मैं आपसे जिक्र करना चाहूंगा।
बॉलीवुड फिल्में लंबे समय से हिंदू और सिख धर्म के खिलाफ लोगों के दिमाग में धीमा ज़हर भर रही हैं। यह सब कुछ एक बड़े एजेंडे के तहत सायास किया जा रहा है और हम गंगा जमुनी तहजीब में रचे बसे लोग अपनी उदार मनस्थिति में मस्त सब कुछ अनजाने में सहते जा रहे हैं। भला हो इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट (IIM), अहमदाबाद के प्रोफेसर धीरज शर्मा का जिन्होंने इन सब तथ्यों को अध्य़य़न कर के रिसर्च रिपोर्ट तैयार की जो आम भारतीयों का होश उड़ाने के लिए काफी है।
आईआईएम के प्रोफेसर धीरज शर्मा ने बीते छह दशक की 50 बड़ी फिल्मों की कहानी को अपने अध्ययन में शामिल किया और पाया कि बॉलीवुड एक सोची-समझी रणनीति के तहत बीते करीब 50 साल से लोगों के दिमाग में यह बात भर रहा है कि हिंदू और सिख दकियानूसी होते हैं। उनकी धार्मिक परंपराएं बेतुकी होती हैं। मुसलमान हमेशा नेक और उसूलों पर चलने वाले होते हैं जबकि ईसाई नाम वाली लड़कियां बदचलन होती हैं। हिंदुओं में कथित ऊंची जातियां ही नहीं, पिछड़ी जातियों के लिए भी रवैया नकारात्मक ही है। यह पहली बार है जब बॉलीवुड फिल्मों की कहानियों और उनके असर पर इतने बड़े पैमाने पर अध्ययन किया गया है।
ये कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो आपको याद होंगे ही। दीवार फिल्म का अमिताभ बच्चन नास्तिक है और वह भगवान का प्रसाद तक नहीं खाता है, लेकिन 786 लिखे हुए बिल्ले को हमेशा अपनी जेब में रखता है और वही बिल्ला बार-बार अमिताभ बच्चन की जान बचाता है। फिल्म “जंजीर” में भी अमिताभ बच्चन नास्तिक हैं और जया भगवान से नाराज होकर गाना गाती है, लेकिन शेरखान एक सच्चा मुसलमान है। फिल्म ‘शान” में अमिताभ बच्चन और शशि कपूर साधु के वेश में जनता को ठगते हैं, लेकिन इसी फिल्म में “अब्दुल” ऐसा सच्चा इंसान है जो सच्चाई के लिए जान दे देता है। फिल्म “क्रान्ति” में माता का भजन करने वाला राजा (प्रदीप कुमार) गद्दार है और करीम खान (शत्रुघ्न सिन्हा) एक महान देशभक्त, जो देश के लिए अपनी जान दे देता है।
“अमर-अकबर-एंथोनी” में तीनों बच्चों का बाप किशनलाल एक खूनी स्मगलर है, लेकिन उनके बच्चों (अकबर और एंथोनी) को पालने वाले मुस्लिम और ईसाई बेहद नेकदिल इंसान है। कुल मिलाकर आपको सलीम-जावेद की फिल्मों में हिंदू नास्तिक मिलेगा या फिर धर्म का उपहास करने वाला। जबकि मुसलमान शेर खान पठान, डीएसपी डिसूजा, अब्दुल, पादरी, माइकल, डेविड जैसे आदर्श चरित्र देखने को मिलेंगे।
ब्राह्मण नेता भ्रष्ट, वैश्य बेइमान कारोबारी
आईआईएम के इस अध्ययन के अनुसार फिल्मों में 58 फीसदी भ्रष्ट नेताओं को ब्राह्मण दिखाया गया है। 62 फीसदी फिल्मों में बेइमान कारोबारी को वैश्य सरनेम वाला दिखाया गया है। फिल्मों में 74 फीसदी सिख किरदार मज़ाक का पात्र बनाया गया। जब किसी महिला को बदचलन दिखाने की बात आती है तो 78 फीसदी बार उनके नाम ईसाई वाले होते हैं। 84 प्रतिशत फिल्मों में मुस्लिम किरदारों को मजहब में पक्का यकीन रखने वाला, बेहद ईमानदार दिखाया गया है। यहां तक कि अगर कोई मुसलमान खलनायक हो तो वो भी उसूलों का पक्का होता है। हैरानी इस बात की है कि यह लंबे समय से चल रहा है और अलग-अलग समय की फिल्मों में इस मैसेज को बड़ी सफाई से फिल्मी कहानियों के साथ बुना जाता है।
सैंप्लिंग ऐसी की कोई पूर्वाग्रह न रहे
अध्ययन के तहत रैंडम तरीके से 1960 से हर दशक की 50-50 फिल्में चुनी गईं। इनमें A से लेकर Z तक हर अक्षर की 2 से 3 फिल्में चुनी गईं ताकि फिल्मों के चुनाव में किसी तरह पूर्वाग्रह न रहे। अध्ययन के नतीजों से साफ झलकता है कि फिल्म इंडस्ट्री किसी विशेष एजेंडे पर काम कर रही है।
कैसे आया रिसर्च का आइडिया
प्रोफेसर धीरज शर्मा कहते हैं कि “मैं बहुत कम फिल्में देखता हूं। लेकिन कुछ दिन पहले किसी के साथ मैंने बजरंगी भाईजान फिल्म देखी। मैं हैरान था कि भारत में बनी इस फिल्म में ज्यादातर भारतीयों को तंग सोच वाला, दकियानूसी और भेदभाव करने वाला दिखाया गया है। जबकि आम तौर पर ज्यादातर पाकिस्तानी खुले दिमाग के और इंसान के बीच में फर्क नहीं करने वाले दिखाए गए हैं।” यही देखकर उन्होंने एक तथ्यात्मक अध्ययन करने का फैसला किया। वे रिसर्च में यह जानना चाहते थे कि फिल्मों के जरिए लोगों के दिमाग में गलत सोच भरने के जो आरोप लगते हैं, क्या वाकई वो सही हैं? यह अध्ययन काफी महत्वपूर्ण है। क्योंकि फिल्में नौजवान लोगों के दिमाग, व्यवहार, भावनाओं और उनके सोचने के तरीके को प्रभावित करती हैं। यह देखा गया है कि फिल्मों की कहानी और चरित्रों के बर्ताव की लोग निजी जीवन में नकल करने की कोशिश करते हैं।
पाकिस्तान और इस्लाम का महिमामंडन
प्रोफेसर धीरज और उनकी टीम ने 20 ऐसी फिल्मों को भी अध्ययन में शामिल किया जो पिछले कुछ साल में पाकिस्तान में भी रिलीज की गईं। उनके अनुसार “इनमें से 18 में (20 फिल्मो में से) पाकिस्तानी लोगों को खुले दिल और दिमाग वाला, बहुत सलीके से बात करने वाला और हिम्मतवाला दिखाया गया है। सिर्फ पाकिस्तान की सरकार को इसमें कट्टरपंथी और तंग नजरिए वाला दिखाया जाता है। ऐसे में सवाल आता है कि हर फिल्म भारतीय लोगों को पाकिस्तानियों के मुकाबले कम ओपन-माइंडेड और कट्टरपंथी सोच वाला क्यों दिखा रही है? इतना ही नहीं इन फिल्मों में भारत की सरकार को भी बुरा दिखाया जाता है।”
पाकिस्तान में रिलीज़ हुई ज्यादातर फिल्मों में “भारतीय अधिकारी अड़ंगेबाजी करने वाले और जनता की भावनाओं को नहीं समझने वाले दिखाए जाते हैं।” फिल्मों के जरिए इमेज बनाने-बिगाड़ने का ये खेल 1970 के दशक के बाद से तेजी से बढ़ा है। जबकि पिछले एक दशक में यह काम सबसे ज्यादा किया गया है। 1970 के दशक के बाद ही फिल्मों में सलीम-जावेद जैसे लेखकों का असर बढ़ा, जबकि मौजूदा दशक में सलमान, आमिर और शाहरुख जैसे खान हीरो सक्रिय रूप से अपनी फिल्मों में पाकिस्तान और इस्लाम के लिए सहानुभूति पैदा करने वाली बातें डलवा रहे हैं।
बालमन पर पड़ता है बुरा असर
अध्ययन के तहत फिल्मों के असर को जानने के लिए इन्हें 150 स्कूली बच्चों के एक सैंपल को दिखाया गया। प्रोफेसर धीरज शर्मा के अनुसार “94 प्रतिशत बच्चों ने इन फिल्मों को सच्ची घटना के तौर पर स्वीकार किया।” यह माना जा सकता है कि फिल्म वाले पाकिस्तान, अरब देशों, यूरोप और अमेरिका में फैले भारतीय और पाकिस्तानी समुदाय को खुश करने की नीयत से ऐसी फिल्में बना रहे हों। लेकिन यह कहां तक उचित है कि इसके लिए हिंदुओं, सिखों और ईसाइयों को गलत रौशनी में दिखाया जाए? वैसे भी इस्लाम को हिंदी फिल्मों में जिस सकारात्मक रूप से दिखाया जाता है, वास्तविक दुनिया में उनकी इमेज इससे बिल्कुल अलग है। आतंकवाद की ज्यादातर घटनाओं में मुसलमान शामिल होते हैं, लेकिन फिल्मों में ज्यादातर आतंकवादी के तौर पर हिंदुओं को दिखाया जाता है। जैसे कि शाहरुख खान की ‘मैं हूं ना’ में सुनील शेट्टी एक आतंकी संगठन का मुखिया बना है, जो नाम से हिंदू है।
राष्ट्रवादी भारतीय अब जाग चुका है और वह सच को जानने और समझने की कूबत रखता है। विवेक रंजन अग्निहोत्री की फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ में सच को बेपर्दा करने की जो हिम्मत दिखाई है उससे दाऊद इब्राहिम समर्थित बॉलीवुड पूरी तरह से बौखला गया है और उन्हें इसी बात की चिंता है कि हिन्दू विरोधी और मुस्लिम परस्त विशेष एजेंडे के तहत काम कर रहे बॉलीवुड की अब पोल खुल गई है। विवेक रंजन अग्निहोत्री की फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ को मिले समर्थन से स्पष्ट है कि आम जनता ने भी राष्ट्रवादी ताकतों का साथ देने का मन बना लिया। ऐसा हुआ तो इस विशेष कलुषित एजेंडे के तहत काम करने वाले बॉलीवुड के दिन बीत गए, यह सच भी जल्द देखने को मिलेगा।