Politico Web : राजनीति में ‘मुन्ना भाई’ तो बहुत हैं पर ‘मुन्ना भैया’ एक ही हैं

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Politico Web : राजनीति में ‘मुन्ना भाई’ तो बहुत हैं पर ‘मुन्ना भैया’ एक ही हैं

राजनीति में बड़बोलेपन और विवादों से सदैव दूर रहने वाले ग्वालियर चंबल अंचल के पानी की तासीर के विपरीत नरेंद्र सिंह तोमर एक ऐसे नेता हैं जिनको शायद ही किसी ने गुस्सा होकर तेज आवाज में बोलते सुना होगा। गैर राजनीतिक परिवार के होने के कारण उनको किसी Political Godfather की छत्रछाया नहीं मिली।

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तोमर के राजनीतिक जीवन की बात करें तो उसकी शुरुआत जयप्रकाश नारायण के देशव्यापी आंदोलन के समय में देखी जा सकती है। वे उस आंदोलन में शामिल होकर जेल भी गए और जिसके कारण पढ़ाई भी छूटी थी। जेपी आंदोलन के उनके साथ जेल में रहे एक साथी के अनुसार नरेंद्र तोमर सरल व मृदुभाषी होने के साथ हस्तरेखा पढ़ने की कला में भी निपुण हैं।

उनकी इस काबिलियत ने उन्हें जेल में बंद साथियों के बीच काफी लोकप्रिय बना दिया था। उन्होंने सबसे पहला चुनाव एसएलपी कॉलेज के अध्यक्ष पद के लिए लड़ा था और जीत कर अपनी राजनीतिक संभावनाओं को पुष्ट भी कर दिया था।

उन्होंने कभी भी राजनीतिक मतभेदों को व्यक्तिगत मतभेद नहीं बनने दिया।1983 का एक किस्सा काफी चर्चित है। जब वे भाजपा पार्षद के तौर पर चुनाव लड़ रहे थे और उनका चुनाव कार्यालय जिस मकान में था उस मकान के मालिक को ही कांग्रेस ने अपने प्रत्याशी के तौर पर मैदान में उतारा था।

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तब कांग्रेस का दबाव था कि भाजपा से जुड़े होने के कारण तोमर से मकान खाली कराओ लेकिन मकान मालिक ने तोमर की शालीनता व सज्जनता को देखते हुए मकान खाली कराने से मना कर दिया और अपनी पार्टी से कह दिया कि चाहो तो टिकट वापस ले लो लेकिन नरेंद्र तोमर से मैं मकान नहीं खाली करा सकता हूं।

बताते हैं कि एक बार पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई ग्वालियर, गिर्द में चुनावी सभा को संबोधित करने के लिए देर से पहुंचे थे। जब अटल जी पहुंचे तो देखा एक युवा नेता ने अकेले ही मंच संभाल रखा था और डेढ़ घंटे से धाराप्रवाह भाषण देकर रात 12:00 बजे तक लोगों को सभा के लिए रोके रखा था।

अटल जी इस नवयुवक नरेंद्र सिंह तोमर की प्रतिभा से प्रभावित हुए और इसी घटना से भाजपा की राजनीति में वे चर्चा का केंद्र बन गए। इसके बाद नरेंद्र सिंह तोमर ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

वे 1986 से 1990 तक भारतीय जनता युवा मोर्चा के मध्यप्रदेश उपाध्यक्ष रहे और 1991 से 1996 तक अध्यक्ष रहे। 1998 में वे ग्वालियर विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीतकर पहली बार विधानसभा पहुंचे। 2003 में इसी विधानसभा क्षेत्र से दोबारा चुनाव जीतकर उमा भारती मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री बने।

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इसके बाद वे बाबूलाल गौर और शिवराज सिंह चौहान के मंत्रिमंडल में भी रहे। कुशल रणनीतिज्ञ व व्यवहार कुशल होने के कारण उन्हें 20 नवंबर 2006 को मध्य प्रदेश भाजपा का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया। मार्च 2010 तक उन्होंने मप्र भाजपा प्रदेश अध्यक्ष की भूमिका निभाई। मप्र में शिव-राज का स्थापना के बाद नरेंद्र तोमर ने दिल्ली का ओर रुख क्यों किया इसको लोकर कई थ्योरी प्रचलित हैं।

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शिवराज व नरेंद्र तोमर की मित्रता को मानने वालों की सोच है कि शिवराज ने दिल्ली में अपनी सेटिंग जमाने के लिए और तोमर की Low Profile में रहने की आदत के चलते खुद के लिए किसी खतरे की आशंका न होने पर ऐसा किया था। दूसरे गुट का मानना है कि मप्र में अपनी सिमटती भूमिका के मद्देनजर उन्होंने दिल्ली जाना मंजूर कर लिया।

देखा जाए तो पहला तर्क ज्यादा सटीक लगता है। पार्टी ने उन्हें 2009 के शुरुआती महीनों में राज्यसभा के सदस्य बनाया। इसी के साथ वे मप्र से निकलकर केंद्र की राजनीति में स्थापित हो गए और मई 2009 में वे मुरैना लोकसभा संसदीय क्षेत्र से जीतकर पहली बार लोकसभा पहुंचे और 2014 में ग्वालियर संसदीय क्षेत्र से अशोक सिंह को चुनाव हराकर संसद में पहुंचने पर मोदी मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री का दर्जा प्राप्त किया। अपनी कुशल रणनीति और क्षमता के कारण वे मोदी के भरोसेमंद हो गए।

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मुरैना संसंदीय क्षेत्र से 17वीं लोकसभा में चुनकर आए सांसद नरेंद्र सिंह तोमर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के कृषि मंत्रालय के अलावा ग्रामीण विकास और पंचायती राज मंत्रालय की जिम्मेदारी देकर उनके बढ़ते कद के बारे में स्पष्ट संकेत दे दिया था। वे इससे पहले पंचायती और खनन मंत्रालय संभालते थे लेकिन मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में मप्र के दिग्गज नेता नरेंद्र सिंह तोमर का आभामंडल दमक गया।

पांच साल के दौरान तोमर का कार्य देखकर मोदी और शाह ने उन्हें संगठन में काफी ज्यादा महत्व देने लगे है। मोदी 2 में नरेंद्र तोमर के मंत्री बनने के साथ ही इतिहास में पहली बार मुरैना-श्योपुर लोकसभा क्षेत्र के प्रतिनिधि को केंद्रीय मंत्रिमंडल में स्थान मिला।

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पहले कार्यकाल के दौरान नरेंद्र सिंह तोमर का मंत्रियों की सूची में 15वां क्रम था, जो कि इस बार टॉप 10 में सातवां हो गया है। इस बार पीएम मोदी ने उनपर भरोसा किया है और इस बार देश की कृषि कार्य जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी उनको दी गई है जिसे वे बाखूबी निभा रहे हैं।

मध्य प्रदेश के मुरैना जिले में पोरसा विकासखंड के ग्राम ओरेठी के किसान मुंशी सिंह तोमर के पुत्र नरेंद्र सिंह तोमर का जन्म 12 जून 1957 को तोमर गुर्जर परिवार में हुआ था।उन्होंने जीवाजी विश्वविद्यालय से स्नातक किया । उन्होंने किरण तोमर से शादी की है, जिनसे उनके दो बेटे और एक बेटी है।

घर परिवार में मुन्ना उनका प्रचलित नाम है जिसमें सुधार कर तत्कालीन मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर ने उन्हें ‘मुन्ना भैया’ संबोधित करके उनका यह नाम भी राजनीतिक क्षेत्र में चर्चित कर दिया।

नरेंद्र सिंह तोमर संगठनात्मक क्षमता के साथ ही प्रशासन पर मजबूत पकड़ और कुशल रणनीतिकार के रूप में जाने जाते हैं। बात करने की बजाए काम को तवज्जो देने वाले तोमर को वर्ष 2008 में तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने उत्कृष्ट मंत्री के रूप में सम्मानित किया था।

राज्यसभा के एक सदस्य (भाजपा के नहीं) का तो यहां तक कहना है कि नरेंद्र तोमर अपने जवाब से जिस तरह विपक्ष को संतुष्ट करते हैं और मीडिया को फेस करते हैं, इस वजह से वे सरकार में और भी बड़ी जिम्मेदारी के हकदार बनते हैं।
तोमर की एक और खासियत जो उन्हें दूसरे से अलग करती है वो हैं विवादों में डूबे बगैर विवादों को सुलझाना।

मध्यप्रदेश में जो वर्तमान भाजपा सरकार है, उसकी केंद्रीय भूमिका में कोई और नहीं तोमर ही थे। ज्योतिरादित्य सिंधिया को भाजपा में लाने में सबसे अहम भूमिका इन्हीं की थी। सिंधिया के लिए भाजपा में माहौल व जगह बनाने वालों में वे ही सबसे आगे रहे जबकि वे स्वयं उसी चंबल-ग्वालियर क्षेत्र के क्षत्रप हैं जहां दशकों से महल का दबदबा चला आ रहा था।

मार्च 2020 में जोड़गांठ की सरकार में शिवराज सिंह चौहान का फिर से मुख्यमंत्री बन जाने को राजनीतिक पंडित विस्मयकारी ही मानते हैं। वास्तव में तो शिवराज चौहान के नेतृत्व को तो जनता ने नकार ही दिया था और इसलिए भाजपा हारी थी। सिद्धांतत: यह सही भी है। सभी को आशा थी कि कि प्रदेश के अगले मुख्यमंत्री तोमर ही होंगे।

लेकिन तोमर ने अनवरत प्रयासों से अर्जित हो सकने वाली मुख्यमंत्री की कुर्सी बड़े ही निश्पृह भाव से अपने ‘मित्र’ की ओर खिसका दी।

भारतीय जनता पार्टी की नई पीढ़ी के जिन वरिष्ठ नेताओं ने अपने सहज, सरल और सफल व्यक्तित्व व कृतित्व से गहरी छाप छोड़ी है उनमें से नरेन्द्र सिंह तोमर का नाम भी अग्रणी पंक्ति में दर्ज है। सरलता व सहजता के कारण ही उनका व्यक्तित्व एक विशिष्ठ चुम्बकीय आकर्षण प्रतिबिंबित करता है।

तोमर को खानदानी विरासत में तो राजनीति मिली नहीं है, उन्होंने सब कुछ खुद अपनी मेहनत से अर्जित किया है।उनका धैर्य, सौम्य स्वभाव और जमीन से जुड़ा रहना ही उनका शक्तिपुंज है। उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वे सब कुछ करने, परिणाम देने व समर्थ होने के बावजूद भी खुद Credit लेने पर विश्वास नहीं करते। वे अपनी उपलब्धियों को साझा करते हैं। ‘Showmanship’ उनमें दूर-दूर तक नहीं है।

इसी कारण मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में इस्पात व खान मंत्री के रूप में अपनी कार्यशैली के अनुरूप आत्मनिर्भर भारत के तहत बेहतरीन काम किया पर उनका दिखावा लेशमात्र नहीं किया। उनकी इसी निष्ठा का प्रतिफल मोदी 2 में उन्हें मिला है।

मोदी 2 में उनके लिए किसान आंदोलन एक बड़ा सरदर्द बन गया है। 20 और 22 सितंबर, 2020 को भारत की संसद ने कृषि संबंधी तीन विधेयकों को पारित किया। 27 सितंबर को भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने इन विधेयकों को मंजूरी दे दी, जिसके बाद ये तीनों क़ानून बन गए। इन क़ानूनों के प्रवाधानों के विरोध में किसान प्रदर्शन कर रहे हैं।

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कृषि मंत्री के तौर पर किसानों के साथ मामला सुलझाने के लिए किए गए उनके सारे प्रयास विफल ही हुए हैं। सबसे खास बात यह है कि दोनों पक्षों में इतनी कटुता के बावजूद कृषि मंत्री के तौर पर नरेंद्र तोमर किसान पक्ष के नेताओं से मधुर संबंध हैं।

खुद किसान होने और कृषि मंत्री होने के कारण वे हालात को काबू में करने व दोनों पक्षों के लिए समग्र हल के लिए अभी भी लगातार काम कर रहे हैं। मोदी और शाह ने उनपर भरोसा कर के किसान आंदोलन से निपटने व इसके समाधान के लिए उन्हें पूरे दमखम के साथ मैदान में उतारा है।

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पिछले माह अपनी दिल्ली यात्रा के दौरान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर की जमकर तारीफ की थी। मुख्यमंत्री ने कहा था कि ”नरेंद्र सिंह तोमर ने पूरे देश में मध्य प्रदेश का नाम रोशन किया है, नरेंद्र सिंह तोमर को गुस्सा कभी नहीं आता है, जिस ढंग से वह मंत्रालय चला रहे हैं यह अद्भुत है, सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का लाभ जिस गति से जनता को दे रहे हैं, इससे उनकी कार्यक्षमता का पता चलता है।”

आज के राजनीतिक परिदृश्य में ज्यादातर नेताओं में हमें ‘मुन्नाभाई’ तो दिख जाते हैं पर बड़बोलेपन व विवादों से दूर रहने वाले सरल, सौम्य, सहज; Showmanship से दूर Low Profile में रहने वाले; दूसरों के कंधों पर न चढ़ कर खुद अपने प्रयासों से ऊंचाइयां छूने वाले ‘मुन्ना भैया’ बिरले ही होते हैं।