Politics After Election: हार मोदीजी की है या भाजपा की ?
वैसे तो यह बात ही पूरी तरह गलत है कि मोदीजी या भाजपा की कोई हार हुई है, लेकिन सोशल मीडिया से जरिये दुष्प्रचार के इस दौर में मुर्गे की तरह जोर-जोर से बांग देकर यह साबित करने की कोशिश की जा रही है कि मोदी जी हार गये। जबकि इसी सोशल मीडिया पर मौजूद मोदी और भाजपा समर्थक भी इसी सुर में सुर मिला रहे हैं कि वे हार गये और बहुसंख्यक सनातनियों ने ही मोदीजी को व्यापक समर्थन नहीं दिया। कितनी विचित्र बात है कि 2014 व 2019 की तरह इस बार भी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन(राजग) ने ही लोकसभा चुनाव में बहुमत प्राप्त किया है और वे सरकार भी बना रहे हैं।
हां,उनका संख्या बल कम हुआ है, जिसे कांग्रेस समेत इंडी गठबंधन में शामिल गैर भाजपाई विपक्षी दल जिसे जोर-शोर से हार करार दे रहे हैं। ऐसे लोग वाकई सहानुभूति के पात्र हैं, जो महज इससे खुश हैं कि भाजपा स्वतंत्र रूप से बहुमत लायक(272) सीटें नहीं ला पाईं और यह भी कि मोदीजी भाजपा को 400 पार नहीं ले जा पाये।जबकि इंडी गठबंधन के दो दर्जन से अधिक दल मिलकर भाजपा की 240 सीट जितनी सीट नहीं ला पाये। इसमें भी उल्लेखनीय तथ्य तो यह है कि जो कांग्रेस बेहद खुश नजर आ रही है, वह 1996 के बाद से चार बार 200 व उसके अंदर रही और चार बार 100 के अंदर सीटें लाई,वह इस बार 99 सीट पाकर व भाजपा को 240 पर रोककर ऐसे खुश है, जैसे दुनिया का ताज उसे मिल गया हो।
आइये अब देखते हैं कि तमाम ऐतिहासिक उपलब्धियों और विकास के नित-नये कीर्तिमान बनाने के बाद भी भाजपा को अपेक्षित जन समर्थन क्यों नहीं मिला? मेरा ऐसा मानना है कि कोई विद्यार्थी यदि परीक्षा में फेल हो जाता है या कम अंक लाता है तो गलती परीक्षक या प्रश्न पत्र की नहीं होती। उसके अभ्यास व ज्ञान में ही कोई कमी रहती है। भाजपा को भी इसी तरह से सोचना होगा कि वह कहां चूकी,क्या कमी रह गई । रही बात जन विश्लेषण की तो वह तो तमाम बुद्धिजीवी,संचार विशेषज्ञ,राजनीतिक विश्लेषक कर ही रहे हैं। सोशल मीडिया की ज्ञान छलनी से भी जो छलक रहा है, वह भी पर्याप्त चिंतन लायक मुद्दे दे ही रहा है।
मेरा ऐसा मानना है कि कुछ तो स्पष्ट कारण रहे हैं,कुछ संदेहजनक हैं, कुछ अज्ञात हैं और कुछ ऐसे हैं, जिनकी सच्चाई पता करना बेहद आवश्यक है। भाजपा के कम हुए जन समर्थन की प्रमुख बातों को मैं बिंदुवार प्रस्तुत करना चाहूंगा-
1- जातिवाद में बंटा बहुसंख्यक वर्ग। याने जिसे हम हिंदू कहते हैं, वह ब्राह्मण, जैन,राजपूत,वैश्य,सिख,जाट,यादव,पटेल,कुरमी,अनुसूचित जाति, जनजाति में विभाजित है। इसे अधिक स्पष्ट करें तो आरक्षित व अनारक्षित वर्ग।इनके बीच अन्यान्य कारणों से इतने मतभेद,दूरियां,विसंगतियां,बैर-भाव हैं कि स्वयं भारत के मंगल,अंतरिक्ष में पहुंच जाने के बावजूद कम होने का नाम ही नहीं ले रहे। चुनाव जैसे राष्ट्रीय महत्व के मसले पर भी हम एकमत होने को तैयार नहीं हैं। उत्तर प्रदेश जहां भाजपा को तगड़ा झटका लगा, वहां बसपा का दलित-पिछड़ों का पारंपरिक करीब 10 प्रतिशत वोट सपा को चला गया, जो पहले भाजपा को मिल जाया करता था। भाजपा इसे समझ नहीं पाई।
2- चार सौ पार का नारा इस मायने में भारी पड़ गया कि इसे विपक्ष ने अहंकार व बड़बोलापन मान लिया। विपक्ष के चुनाव अभियान की धुरी ही यह आंकड़ा रहा और वे मोदीजी को इससे दूर रखने में जी जान से लग गये। वे भले ही भाजपा,राजग को सत्ता से दूर नहीं कर पाये। फिर भी वे ज्यादा उत्साहित नजर आ रहे हैं।
3- भाजपा कार्यकर्ताओं के मन में सत्तावदी,सुविधाभोगी कार्यकर्ता की मानसिकता बैठ गई और उन्होंने भाजपा की परंपरा के अनुसार मैदानी कामों से मुंह मोड़ लिया। मोदीजी को दुनिया भर से मिले प्यार,सम्मान को उन्होंने विजय की गारंटी मान लिया।अनेक कार्यकर्ताओं व समर्थकों ने यह मान लिया था कि इस बार तो 400 पार हो ही रहे हैं, तब जबरन अतिरिक्त मेहनत क्यों की जाये?
4- सोशल मीडिया के उत्साही लालों ने ऐसा माहौल बना दिया कि भाजपा 400 नहीं संसद के भी पार निकल जायेगी। इस चक्कर में वे यह नहीं समझ पाये कि इससे इंडी गठबंधन के समर्थकों,कांग्रेस के सोशल मीडिया सेल को उन बातों की काट करने का मसाला मिलता रहा और वे काफी आक्रामक ढंग से प्रचार में जुटे रहे।
5- विपक्ष के इस प्रचार का प्रभाव कम करने में भाजपा विफल रही कि मोदी सरकार आई तो दलित-पिछड़ों का आरक्षण खत्म कर देगी और संविधान को बदल कर रख देगी।
6- विपक्ष ग्रामीण जनता को यह बताने में सफल रहा कि मोदी सरकार तो अडानी-अंबानी जैसे रईसों,पूंजीपतियों की सरकार है और इनके पास जो अकूत धन है, वह उनके हिस्से का भी है।
7- अनेक राज्यों के स्थानीय प्रभावी क्षत्रपों की अनदेखी कर उन्हें या उनके समर्थकों की बजाय नये को टिकट दिये गये । इसमें जातिगत संतुलन का भी ध्यान नहीं रखा गया,जिसका नुकसान उसे उत्तर प्रदेश,बिहार,राजस्थान में खास तौर से उठाना पड़ा।राजपूतों की नाराजी बड़ा मुद्दा रहा।
8- कांग्रेस की इस चुनावी घोषणा का सच वे नहीं बता पाये कि हर घर की एक महिला के खाते में एक मुश्त एक लाख रुपये जमा कराये जायेंगे। जबकि यह गरीबी रेखा के नीचे के परिवारों के लिये योजना थी।
9- भाजपा अपने दस साल के शासनकाल में मुस्लिमों के बीच यह विश्वास पैदा करने में विफल रही कि वह उसके खिलाफ नहीं है। वह यह तक न बता सकी कि इन दस वर्षों में किसी भी मुस्लिम को एक भी सरकारी योजना से वंचित नहीं किया गया। इसके उलट वे किसी अन्य वर्ग की तुलना में कहीं अधिक शासकीय सुविधाओं का उपयोग करते हैं। कांग्रेस,समाजवादी पार्टी या तृणमुल कांग्रेस ने मुस्लिमों के हित में कभी कोई उल्लेखनीय काम नहीं किये, यह तक ठीक से भाजपा बता नहीं पाई है।विपक्ष केवल मुस्लिम वोट बैंक के ठेकेदारों के हित पूरे कर पूरे समाज के वोट एकतरफा प्राप्त करने का खेल करता रहा। स्वयं मुस्लिम आज तक यह नहीं समझ पाया कि उसके बीच गरीबी,अशिक्षा का प्रतिशत अपेक्षाकृत ज्यादा क्यों है?
10- मुस्लिम मतदाता एक मत है और जो उनके हित साध सकता है,उसे एकतरफा समर्थन देते हैं, जबकि हिंदू मतदाता स्वतंत्र भारत में आज तक यह तय नहीं कर पाया कि उसका हितचिंतक कौन है? इस दुविधा में उसका वोट बंट जाता है और मुस्लिम का स्थिर रहता है। इस बात को भाजपा लेशमात्र भी असरकारक ढंग से प्रस्तुत नहीं कर पाई। इसका एक ताजा उदाहरण है उत्तर प्रदेश के रामपुर क्षेत्र के एक गांव का। वहां सौ प्रतिशत मुस्लिम आबादी है और 2322 वोट डले। इनमें से एक भी भाजपा को नहीं मिला, जबकि प्रधानमंत्री आवास में वहां 532 आवास दिये गये हैं। तात्पर्य यह कि भाजपा सरकार ने देने में भेदभाव या हिंदू-मुस्लिम नहीं किया,लेकिन मुस्लिम उसके साथ कभी खड़ा नहीं होता।
11- जब 22 जनवरी को राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा हुई,उसके बाद देश भर से विशेष रेलगाड़ियों से लोगों को रामलला के दर्शन के लिये ले जाया गया। इसमें केवल भाजपा कार्यकर्ता ही गये, जबकि देश के उस वंचित वर्ग को ले जाना था, जो चुनाव में निर्णायक भूमिका निभाता है। सीधी बात है कि दलित,आदिवासी,पिछड़े वर्ग को देव दर्शन कराते तो शायद कुछ फायदा तो मिलता।
बहरहाल, कारण जो भी रहे हों, सच तो यही है कि भारतीय जनता पार्टी के लिये 2024 के चुनाव केवल बड़ा सदमा ही नहीं, बल्कि बड़ा सबक भी है। उसे अगले पांच साल सांसत में सहकर सरकार चलाना है और बीच में कुछ आसमानी-सुल्तानी हुई तो फिर जो हो सो हो।