Jhuth Bole Kauva Kaate: राजनीति की शर्मनाक सच्चाई दलबदल
कितने भी कानून बनें, कहते हैं कि राजनीति में ‘टिकाऊ’ नहीं बल्कि ‘जिताऊ’ और ‘सुरक्षित ठिकाने’ का फॉर्मूला ही चलता है। दलबदल की संस्कृति इसी की उपज है। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार के कैबिनेट मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य के चौंकाने वाले अंदाज में इस्तीफे के बाद कई विधायकों और कैबिनेट मंत्री दारा सिंह चौहान तथा राज्यमंत्री डॉ. धर्म सिंह सैनी के इस्तीफे से भाजपा की राजनीति में क्या सचमुच भूचाल आ गया है।
या, सपा के कद्दावर विधायक और मुलायम सिंह यादव के रिश्ते में समधी हरिओम यादव तथा सपा के पूर्व विधायक धर्मपाल सिंह के भाजपा में शामिल होने से सपा लड़खड़ा गई। सब कहने की बातें। करीब पांच साल तक सत्ता की मलाई खाने के बाद किसानों, दलितों एवं वंचितों के हितों की अनदेखी का आरोप गले उतरने वाली बात नहीं।
सितंबर 2021 में ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स’ (एडीआर) की एक रिपोर्ट आई, जिसमें कहा गया कि ‘2014 से 2021 के बीच हुए अलग-अलग चुनावों में 1133 उम्मीदवारों ने दलबदल किया।
इसके अलावा 500 सांसदों-विधायकों ने भी पाला बदला।’ अब एक ट्रेंड देखने को मिल रहा है कि जिस भी राज्य में चुनाव होने को होते हैं, पार्टियां ऐसे चेहरों की तलाश शुरू कर देती हैं, जो उनके लिए जिताऊ हो सकते हैं, विपक्षी दल में असंतुष्ट-असुरक्षित, या बिकाऊ हो सकते हैं। यहीं से दलबदल का दरवाजा खुलता है।
1985 से पहले दल-बदल के ख़िलाफ़ कोई क़ानून नहीं था। उस समय ‘आया राम गया राम’ मुहावरा ख़ूब प्रचलित था। 1967 में हरियाणा के एक निर्दलीय विधायक गया लाल ने चुनाव जीतने के एक पखवाड़े के भीतर कांग्रेस, ‘विशाल हरियाणा पार्टी’ (विहपा), फिर वापस कांग्रेस में पाला बदला। इतना ही नहीं, बंदा इसके नौ घंटे के भीतर ही दोबारा विहपा में शामिल हो गया। तब, विहपा के नेता राव बीरेन्द्र सिंह ने उन्हें प्रेस-कॉन्फ्रेंस में पेश करके कहा, ‘गयाराम’ अब ‘आयाराम’ है’। तबसे ही ‘आयाराम-गयाराम’ वाला मुहावरा चल निकला।
भारतीय गणतंत्र के शुरूआती दशकों में कांग्रेस ही एकमात्र बड़ी पार्टी थी, इस कारण दलबदल का असर कम था। 1977 में पहली बार विपक्ष मजबूत हुआ, जिसकी वजह भी दलबदल ही था। इस दौरान पहली गैरकांग्रेसी सरकार जनता दल के नेतृत्व में बनी। इस सरकार के गिरने की वजह भी दलबदल ही था। तब से लेकर आज तक छोटे से बड़े चुनावों में ये आयाराम-गयाराम का खेला चल रहा हैं।
दलबदल पर नियंत्रण के लिए संसद ने 32 वें संविधान संशोधन के जरिये पहला प्रयास 1973 में किया, जिसे सरकार पारित नही करवा सकी थी। वर्तमान में प्रभाव वाले दलबदल विरोधी कानून 1985 को 52 वें संविधान संशोधन के रूप में लागू कर इस पर नकेल कसी गईं। हालांकि, राजीव गांधी सरकार का यह कानून लाने का उद्देश्य भी तब अपने नफा-नुकसान के आधार पर टूटे हुए विधायकों या सांसदों के गुट को मान्यता देना या न देना था। इसलिए इस कानून में लोकसभा और विधानसभाओं के स्पीकर को असीमित अधिकार दिए गए, जिसका दुरुपयोग भी हो रहा है।
बाद में, 2003 के 91 वें संविधान संशोधन द्वारा दलबदल कानून को और अधिक कारगर बनाते हुए यह प्रावधान किया गया कि यदि किसी राजनैतिक दल से एक तिहाई सदस्य निकलकर किसी नई पार्टी का निर्माण करते हैं अथवा विधानसभा, लोकसभा या राज्यसभा का कोई सदस्य विधानसभा, लोकसभा, राज्यसभा का सभापति, अध्यक्ष चुने जाने की स्थति में अपने पद से इस्तीफा देने के उपरांत भी उनकी संसद सदस्यता समाप्त नही होगी।
झूठ बोले कौआ काटे
चुनाव की दहलीज पर उप्र की राजनीति में आयाराम-गयाराम का बड़ा धमाका करने वाले तीनों मंत्री ओबीसी नेता हैं। इन ओबीसी नेताओं ने भाजपा छोड़ने की वजह बताई है कि पांच सालों तक मुद्दों पर उनकी बात नहीं सुनी गई। सरकार ने किसानों, दलितों एवं वंचितों के हितों के खिलाफ काम किया।
हालांकि, मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार जहां मौर्य अपने बेटे उत्कृ्ष्ट के लिए रायबरेली के ऊंचाहार से, वहीं 22 अन्य लोगों के लिए भी भाजपा से टिकट की मांग कर रहे थे। इसके लिए पार्टी तैयार नहीं थी। बेटे और अपने समर्थकों को टिकट नहीं मिलता देख, उन्होंने भाजपा छोड़ी है। मौर्य की बेटी संघमित्रा बंदायू से भाजपा सांसद हैं।
स्वामी प्रसाद मौर्य ने 80 के दशक में अपने गृह जनपद प्रतापगढ़ छोड़कर रायबरेली से अपनी राजनीतिक पारी की शुरुआत की। यही नहीं पहली बार विधायक भी वे रायबरेली की डलमऊ विधानसभा से 1996 में चुने गए। उसके बाद मायावती के मंत्रिमंडल से मंत्री बने, बसपा के प्रदेश अध्यक्ष बने और बसपा में उनकी हैसियत नंबर दो की माने जाने लगी।
फिर 2007 के विधानसभा चुनाव में बसपा हार गई। तब भी स्वामी प्रसाद मौर्य का कद कम नहीं हुआ। मायावती सरकार में मंत्री बने। 2012 से लेकर 2017 तक तक विपक्ष के नेता के तौर पर वे सदन में सक्रिय रहे। लेकिन 2017 विधानसभा चुनावों के ठीक पहले मौर्य बसपा छोड़कर भाजपा में चले गए। मौर्य ने ऊंचाहार से हार के बाद कुशीनगर के पडरौना को अपनी कर्मभूमि बनाया।
बोले तो, दलबदल के मास्टर स्वामी प्रसाद मौर्य समेत ये नेता अपने लिए सुरक्षित ठिकाने की तलाश में थे। वास्तव में मुस्लिम-यादव फैक्टर के बिना इस बार उनका जीतना मुश्किल था। मौर्य तीन बार से पडरौना विधायक हैं। दो बार बसपा, एक बार भाजपा के टिकट पर। सपा में जाने से यादव-मुस्लिम वोट पर दावेदारी सुनिश्चित होती, इसलिए स्वामी ने सपा की ओर हाथ बढ़ा दिया। सपा के लिए भी सौदा फायदे का है। एक तो जातिगत राजनीति में भाजपा को चोट, दूसरे सरकार में असंतोष का संदेश जनता में देना।
Jhuth Bole Kauva Kaate
दारा सिंह ने भी सोच-समझ कर ही भाजपा से इस्तीफा दिया। उनका भी दलबदल से अटूट रिश्ता है। वे 2015 में बसपा छोड़कर भाजपा में शामिल हुए थे। इस समय मऊ के मधुबन विधानसभा से विधायक हैं। भाजपा ने उन्हें ओबीसी मोर्चे का अध्यक्ष बनाया था। चर्चा है कि वह मुख्तार अंसारी की घोसी सीट से चुनाव लड़ना चाहते हैं। मुख्तार अंसारी की आपराधिक छवि से दूर रहने के लिए सपा दारा सिंह को टिकट दे सकती है।
स्वामी प्रसाद मौर्य के इस्तीफा देने के बाद से ही माना जा रहा था कि डॉ. धर्म सिंह सैनी भी उनकी ही राह पर चलेंगे। डॉ. सैनी ने पहले भी मौर्य के साथ ही बसपा छोड़ कर भाजपा की सदस्यता ग्रहण की थी। अब उन्होंने साइकिल की सवारी कर ली है। भाजपा से इस्तीफा देने वाले इन 14 नेताओं में एक को छोड़कर सारे विधायक 2017 चुनाव से पहले ही भाजपा से जुड़े थे। ये भाजपा काडर के नहीं थे। ज्यादातर नेता हर बार दलबदल कर चुनाव जीतते रहे हैं।
एक बार तो हरियाणा में रातों-रात पूरी सरकार ने दलबदल कर लिया था। दलबदल या इसके लिए हुए इस्तीफों के चलते मध्यप्रदेश, मणिपुर, गोवा, अरुणाचल प्रदेश और कर्नाटक की सरकारें गिरी। जहां उपचुनाव हुए, वहां वही चेहरे दूसरों दलों के नुमाइंदे बने और जीते भी। नाना प्रकार के उदाहरण हैं।
दलबदल आज की राजनीति की एक शर्मनाक सच्चाई बनकर रह गया है। न दलबदल करने वालों को शर्म आती है और न ही दलबदल करवाने वालों को। आज कोई दल किसी विरोधी को भ्रष्टाचारी, निकम्मा वगैरह कह रहा है, और अगले ही दिन राजनीतिक समीकरणों के चलते वह भ्रष्टाचारी उसी राजनीतिक दल के लिए एक बेदाग नेता बन जाता है।
झूठ बोले कौआ काटे, ऐसे हालात में सपा के वर्तमान विधायकों और टिकट के दावेदारों के माथे पर बल पड़े हुए हैं। कमोबेस यही हाल दूसरे प्रमुख दलों का भी है। जाहिर है कि अनेक के टिकट भी कटेंगे। तब एक और घमासान देखने को मिलेगा।
आयातित नेताओं का असर समर्पित कार्यकर्ताओं का मनोबल गिराने तक ही नहीं सीमित होता है। विचारधारा के स्तर पर भी इसका व्यापक और गहरा कुप्रभाव पड़ता है। ऐसे नेता अवसरवादी होते हैं। इसलिए, जब तक दल बदलुओं को यह अहसास रहेगा कि वे फिर से चुनाव जीतकर विधानसभा में पहुंच जाएंगे तब तक दलबदल को नहीं रोका जा सकता।
जनता सबक सिखाये, साथ ही दलबदल कानून में संशोधन समय की मांग है और जब तक यह नही होगा तब तक हमारा लोकतंत्र बस-प्लेन में भर कर कभी बेंगलुरु, कभी जयपुर तो कभी गोवा भी ले जाया जाता रहेगा। गौरतलब है कि कानून के अनुसार, दल-बदल करने वाले विधानसभा सदस्य को अयोग्य करार देने का स्पीकर का फैसला अंतिम होता है।
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हालांकि, उनके द्वारा इस बारे में फैसला करने के लिए कोई समय सीमा नहीं है। पार्टी अदालत का रुख भी तभी कर सकती है, जब स्पीकर ने अपने फैसले की घोषणा कर दी हो। सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस अशोक कुमार गांगुली के अनुसार, कानून की समीक्षा करने की जरूरत है, क्योंकि वर्ष 1985 से भारतीय राजनीति काफी परिवर्तन के दौर से गुजरी है। अयोग्यता याचिका पर फैसला करने हेतु स्पीकर के लिए एक समय सीमा तय की जानी चाहिए।
ऐसे में, 11 अगस्त, 1968 को एक प्रमुख कांग्रेसी सांसद पी बेंकटसुबैया के लोकसभा में ऱखे अनैतिक रूप से दलबदल रोकने के लिए एक गैर-सरकारी प्रस्ताव की चर्चा समीचीन है। इसमें उस दौर के प्रखर समाजवादी नेता मधु लिमये ने कुछ महत्वपूर्ण संशोधन सुझाए थे।
इसमें एक सुझाव यह था कि दल-बदलुओं को न केवल मंत्रीपद आदि से वंचित किया जाए, बल्कि व्यक्तिगत रूप से भी दंडित किया जाए और न केवल दलबदलू सदस्य को बल्कि दल बदलुओं को शरण देने वाली पार्टी को भी दंडित किया जाए। अब वक्त की माग है कि राजनीति के इस मजाक पर प्रभावी नियंत्रण के लिए असरदार कानून बनाया जाए।