राज-काज : अब शिवराज के सामने ‘साख’ बचा कर रखने का खतरा….
– वर्ष 1993 में दिग्विजय सिंह सत्ता में आए थे, तब उनकी लोकप्रियता शिखर पर थी। अयोध्या का विवादित बाबरी ढांचा गिराने के बावजूद भाजपा को पराजय का सामना करना पड़ा था और दिग्विजय के नेतृत्व में कांग्रेस जीत गई थी। दस साल बाद 2003 में जब साध्वी उमा भारती के नेतृत्व में भाजपा ने सरकार बनाई, तब वे सबसे लोकप्रिय नेता थीं। तब भाजपा को जितनी सीटें मिली थीं, उतनी आज तक कभी नहीं मिलीं। इन दोनों नेताओं की लोकप्रियता का ग्राफ आज कहां है, बताने की जरूरत नहीं है। दिग्विजय-उमा काम की बजाय बयानों के कारण जनता के बीच अपनी साख गवां बैठे।
अब साख बचा कर रखने की चुनौती शिवराज सिंह चौहान के सामने है। भाजपा को बहुमत मिलने पर जब वे मुख्यमंत्री नहीं बनाए गए और फैसला डॉ मोहन यादव के पक्ष में हुआ तो उन्होंने कहा था, मैं दिल्ली नहीं जाऊंगा। वहां जाकर कुछ मांगने की बजाय मरना पसंद करूंगा। इसके बाद वे कई बार दिल्ली जाकर नेतृत्व से मुलाकात कर आए। हाल ही में उन्होंने भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा से मिलकर लगभग डेढ़ घंटे बात की। शिवराज यह भी कह चुके हैं कि वे कहीं जाने वाले नहीं हैं, मप्र में ही लोगों की सेवा करेंगे। उन्होंने जो कहा, नहीं कर पाए तो उन्हें भी दिग्विजय-उमा की तरह अपनी साख से हाथ धोना पड़ सकता है। इसलिए उन्हें इस विपरीत समय में हर बात सोच समझ कर कहना चाहिए।
लीजिए, अब रजनी ने दिग्विजय को दिखाया आइना….
– कांग्रेस अब तक तय नहीं कर पाई कि ‘ईवीएम’ के जरिए चुनाव ठीक है या गलत। एक नेता इस पर सवाल उठाता है तो पार्टी का ही दूसरा नेता उस पर पलीता लगा देता है। ईवीएम के जरिए चुनाव में गड़बड़ी की आशंका को लेकर मप्र में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने अभियान चला रखा है। इसे लेकर वे केंद्र की भाजपा सरकार सहित चुनाव आयोग पर सवाल उठा रहे हैं।
ईवीएम के जरिए मतदान में गड़बड़ी को लेकर वे मीडिया के सामने प्रजेटेंशन दिला चुके हैं। यह तक कहा गया कि दिग्विजय द्वारा उठाए सवाल का चुनाव आयोग के पास कोई जवाब नहीं है। इस बीच पहले उनके ही छोटे भाई लक्ष्मण सिंह ने उनके प्रयास की आलोचना की और अब कांग्रेस स्क्रीनिंग कमेटी की अध्यक्ष रजनी पाटिल ने भोपाल में आकर कह दिया कि ईवीएम पर जो नेता सवाल उठा रहे हैं, यह उनकी व्यक्तिगत राय है। कांग्रेस का यह अधिकृत मत नहीं है। ऐसा नहीं है कि दिग्विजय अकेले ईवीएम से मतदान पर सवाल उठाते हैं। पार्टी के कुछ नेता यहां तक कह चुके हैं कि यदि ईवीएम के जरिए मतदान होता है तो कांग्रेस को चुनाव में ही हिस्सा नहीं लेना चाहिए। यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक में जा चुका है। जब कांग्रेस सत्ता में थी तब भाजपा इस पर सवाल उठाती थी। अब इस मसले पर एकमत न होकर कांग्रेस अपनी छीछालेदर करा रही है।
कमलनाथ जी, आपके इस बयान के क्या मायने….!
– कहावत है ‘बंदूक से निकली गोली और जुबान से निकली बोली’, कभी वापस नहीं आते। इसीलिए हर बात सोच समझ कर बोलने की सलाह दी जाती है। वरिष्ठ नेता कमलनाथ को ही ले लीजिए, एक सवाल के जवाब में उन्होंने कह दिया कि ‘कोई पार्टी से बंधा नहीं है, हर कोई स्वतंत्र है।’
प्रदेश अध्यक्ष पद से हटने के बाद जब उनके और बेटे नकुलनाथ के कांग्रेस छोड़कर भाजपा में जाने की अटकलें चल रही हैं, ऐसे में कमलनाथ ही बताएं कि उनके इस बयान के क्या मायने निकाले जाएंगे? उन्होंने प्रमोद कृष्णम से जुड़े सवाल के जवाब में यह बात कही थी, लेकिन बयान को उनसे जोड़कर टीका-टिप्पणी होने लगी। हमेशा की तरह उनके एक समर्थक की प्रतिक्रिया आ गई कि कमलनाथ के बयान को गलत ढंग से लिया गया। सवाल है कि किसी भी दल का नेता क्या वास्तव में पार्टी से बंधा नहीं होता? क्या उसकी पार्टी के सिद्धांतों और अनुशासन के प्रति कोई प्रतिबद्धता नहीं होती? यह बात कमलनाथ जैसे वरिष्ठ नेता को तो बताने की जरूरत नहीं है। राजनीतिक हल्कों में पहले से अटकलें हैं कि कमलनाथ, नकुलनाथ में से कोई भी कांग्रेस छोड़ भाजपा में जा सकता है। यह भी कि नकुलनाथ अगला चुनाव भाजपा के टिकट पर लड़ सकते हैं। ऐसी खबरों को हवा न मिले, इसे ध्यान में रखकर ही कमलनाथ को सोच समझ कर बोलना चाहिए।
राज्यसभा के लिए कांग्रेस में ‘एक अनार-सौ बीमार’….
– मप्र से राज्यसभा के लिए खाली हो रही 5 सीटों में से एक कांग्रेस के पास है। पार्टी के राज्यसभा सदस्य राजमणि पटेल का कार्यकाल खत्म होने वाला है। विधानसभा की सदस्य संख्या के लिहाज से कांग्रेस एक ही सीट जीत सकती है। लिहाजा पार्टी में ‘एक अनार- सौ बीमार’ की स्थिति है। सीट एक है और दावेदार अनेक। कार्यकाल पिछड़े वर्ग से पटेल का खत्म हो रहा है, इसलिए पटेल समाज के नेता उम्मीद में हैं। इनमें पूर्व मंत्री कमलेश्वर पटेल का नाम आगे है। दूसरा, भाजपा ने यादव समाज से डॉ मोहन यादव को मुख्यमंत्री बनाया है। इस लिहाज से इस समाज से पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव को उपयुक्त माना जा रहा है। कई क्षेत्रों में यादवों ने कांग्रेस को वोट दिया है। इन्हें बचाने के लिए भी इस समाज के नेता को मौका मिल सकता है। तीसरे प्रमुख दावेदार हैं, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष जीतू पटवारी। राज्यसभा सदस्य होने पर संगठन चलाने में उन्हें मदद मिल सकती है। इनके अलावा लगभग एक दर्जन अन्य नेता भी दावेदार हैं। पार्टी लोकसभा चुनाव की तैयारी में तो जुट गई है लेकिन राज्यसभा प्रत्याशी को लेकर अब तक अपने पत्ते नहीं खोले हैं। पार्टी के एक पदाधिकारी का कहना था कि नेतृत्व ने जिस तरह प्रदेश के नेताओं की राय लिए बगैर प्रदेश अध्यक्ष एवं नेता प्रतिपक्ष की घोषणा कर दी, उसी तर्ज पर राज्यसभा का प्रत्याशी भी घोषित हो जाएगा।
क्या भाजपा ने गुटबाजी से डर कर बदल दिए प्रभार….?
– भाजपा ने लोकसभा चुनाव के लिए प्रदेश को सात क्लस्टर में बांटकर नेताओं को प्रभार सौंपे थे। प्रभार देने का फैसला दिल्ली की बैठक में हुआ था, लेकिन जल्दी ही पार्टी नेतृत्व को यू टर्न लेना पड़ गया। अधिकांश क्लस्टर प्रभारियों के प्रभार भोपाल में हुई पहली बैठक में ही बदल दिए गए। जबकि अधिकांश प्रभारी अपने क्षेत्र की लोकसभा सीटों में जाकर बैठकें ले चुके थे। भोपाल की बैठक में उन्होंने अपनी पहली रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी थी। बावजूद इसके सभी के प्रभार बदल गए। इसके दो कारण बताए जा रहे हैं। पहला यह कि नेताओं को उनके संभाग के क्लस्टर का प्रभार दिया गया था। इसकी वजह से गुटबाजी बढ़ने लगी थी। कुछ क्षेत्रों में इसकी वजह से विधायक और वरिष्ठ नेता तक बैठकों में नहीं पहुंचे थे। नेतृत्व के पास कुछ क्षेत्रों से शिकायतें पहुंची थीं कि क्लस्टर प्रभारी अपने लोगों को ज्यादा महत्व दे रहे हैं। इससे पार्टी डर गई। दूसरा, नेतृत्व चाहता है कि उसके पास पूरा फीडबैक पहुंचे। एक प्रभारी से रिपोर्ट मिल गई। अब बाहर के नेता को प्रभारी बना दिया गया। उसकी रिपोर्ट आने के बाद नेतृत्व के पास हर क्षेत्र की सही तस्वीर पहुंच जाएगी। इसके बाद पार्टी को प्रत्याशी तय करने में मदद मिलेगी। क्लस्टर का प्रभार बदलने की वजह जो भी हो लेकिन चर्चा में ये दो कारण ही हैं।